खानदौराँ, नुसरतजंग जहाँगीरकालीन मंसबदार। इसके पिता ख्वाजा हिसारी नक्शबंदी थे और इसका नाम ख्वाजा साबिर था। जहाँगीर ने इसे मंसब देकर दक्षिण में नियुक्त किया था। इसके पश्चात् निजामशाह के राज्य में पहुँचने पर यह शाहनवाज खाँ कहलाया। तदनंतर यह शाहजादा खुर्रम के यहाँ आया। समय बदला, इसे घोड़ो की देखभाल का काम सोपा गया। टोंस में यह शाही सेना का नेतृत्व करता हुआ लड़ा। फिर चल फिरकर यह मलिक अंबर के यहाँ पहुँचा, जब मलिक मरा तो निजामुल्मुल्क का पल्ला इसने पकड़ा। शाहजहाँ के राज्य के दूसरे साल यह लौट आया तथा तीन हजारी ३००० सवार का मंसब प्राप्त किया और नसीरी खाँ की उपाधि। शाहजहाँ द्वारा यह खानजहाँ को दंड देने के लिए राजा गजसिंह के साथ बुरहानपुर भेजा गया। चौथे वर्ष इसने कंधार दुर्ग बड़ी वीरता से लड़कर जीत लिया। पाँचवें वर्ष मालवा का सूबेदार नियुक्त हुआ। छठे वर्ष महावत खाँ के साथ इसने दौलताबाद दुर्ग पर विजय प्राप्त की। इस कारण से इसे खानदाराँ की उपाधि और ५००० सवार का मंसब प्राप्त हुआ।
सातवें वर्ष मुहम्मद शुजाअ के साथ परिंद: दुर्ग जीतने के लिये भेजा गया। जमकर युद्ध हुआ। खानदौराँ ने ऐसी चालाकी दिखाई कि शत्रु दुर्ग छोड़कर भाग गए। ऐसे अवसर पर इसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि स्वाभाविक थी। महावत खाँ मरा कि यह बालाघाट और पाईघाट पर नियुक्त हुआ। जुझार सिंह बुंदेला के पुत्र विक्रमाजीत के विद्रोह को दमन करने के लिए यह मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया। वहाँ पहुँचकर इसने जुझारसिंह और विक्रमाजीत के सिर कटवा लिए। इसी वर्ष शाहजहाँ ने इसे ओसा जीतने तथा बीजापुर और गोलकुंडा में उपद्रव मचाने के लिए भेजा। उसने आसपास के कई दुर्ग विजित किए तथा नागपुर के राजा से डेढ़ लाख रूपये और १७० हाथी वसूल किए। १० वें वर्ष इसने शाहजहाँ को बहुत सा लूट का सामान भेंट किया जिसके प्रसादस्वरूप शाहजहाँ ने इसे नुसरतजंग की उपाधि दी। साथ ही छह हजारी मंसब और बहुत से पुरस्कार भी दिए। औरंगजेब से असंतुष्ट होकर शाहजहाँ ने इसे दक्षिण के प्रबंध पर नियुक्त किया। मंसब भी सात हजारी ७००० सवार का कर दिया और पुरस्कृत किया। दक्षिण के प्रबंध में इसने जनता के प्रति मनमानी करके खूब स्वामिभक्ति प्रदर्शित की। अंतिम काल में यह लाहौर में नियुक्त किया गया और वहीं ७ जमादि -उल्-अव्वल, सन् १०५५ हिजरी में मर गया। कहते हैं, एक ब्राह्मण के घायल करने से उसकी मृत्यु हुई।