खानजहाँ लोदी मुगल दरबार का एक प्रमुख व्यक्ति। इसका पूर्वनाम पीर खाँ था। यह दौलत खाँ लोदी साहूखेल का बेटा था। अपने बड़े भाई के साथ, जिसका नाम मोहम्मद खाँ था, बंगाल के राजा मानसिंह की शरण में गया। उसके पश्चात् वह सुल्तान दानियाल के पास गया। दोनों में प्रगाढ़ मैत्री संबंध स्थापित हुआ। जब सुल्तान दानियाल मर गया तो इसने जहाँगीर के दरबार में शरण ली। उस समय खानजहाँ लोदी की आयु लगभग २० वर्ष की थी। जहाँगीर ने इसे तीन हजारी मंसब और सलावत खाँ की उपाधि प्रदान की। कुछ दिनों पश्चात् इसका मंसब बढ़ा, और इसे खानजहाँ की उपाधि दी गई। इतना ही नही, अधिक विश्वास पात्र होने के कारण उसे राजमहल में भी स्वतंत्रता प्राप्त थी। १०१८ हिजरी में बादशाह ने इसे १२ हजार सैनिकों के साथ दक्षिण की स्थिति सुधारने के लिए भेजा। मलकापुर में मलिक अंबर से घनघोर युद्ध हुआ; किंतु परिस्थितियों ने ऐसी करवट बदली कि मलिक अंबर ने खानजहाँ को धोखा दिया और स्थिति बिगड़ने पर सारा दोष इसी के सर पर आया। इसने उसे सँभालने का भरसक प्रयत्न किया और बादशाह के दरबार में अपना सम्मान पूर्ववत् रखा। इसके अतिरिक्त इसे थानेदार की जागीरदारी मिली। १५ वें वर्ष यह मुल्तान का सूबेदार नियुक्त हुआ। १७ वें वर्ष के आरंभ से लेकर १८ वें वर्ष तक समय ने इसकी कठिन परीक्षा ली, जबकि कंधार घिर गया तथा बादशाह और शाहजादे में युद्ध ठन गया तब उससे कुछ करते न बन पड़ा। उन्ही दिनों यह बहुत अस्वस्थ भी हो गया। तत्पश्चात् इसे आगरे के दुर्ग और फतहपुर सीकरी के कोष की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया। फिर १९ वें वर्ष खान आजम की मृत्यु के पश्चात् इसे गुजरात का सूबेदार बनाया गया।
२१ वें वर्ष, सन् १०३५ हिजरी में, सुलतान पर्वेज की मृत्यु के पश्चात् दक्षिण का सारा कार्यभार इसे सौंपा गया। यह मलिक अंबर के विद्रोही पुत्र फतेह खाँ का दमन करने के लिए बालाघाट और खिरकी की ओर गया। इस समय उसने निजामशाह के मंत्री हमीब हब्शी से ३ लाख होन की घूस लेकर निजामशाही का राज्य उसके लिए छोड़ दिया। इसी स्थिति में महावत खाँ विद्रोह करके शाहजहाँ के पास गया तब जहाँगीर ने इसे सेनाध्यक्ष बनाया।
जहाँगीर की मृत्यु के पश्चात् शाहजहाँ ने इसे आश्वासन दिया कि उसे कोई भय नहीं है, किंतु खानजहाँ के बुरे दिन थे, अत: लोगों के बहकावे में पड़ गया। इतना सब कुछ होते हुए भी शाहजहाँ ने उसे क्षमा करके मालवा के सूबेदार के रूप में मान्यता दी; किंतु वह सदैव सशंकित रहता था। अधिक शंका से विकल होकर २७ सफर् सन् १०३९ हिजरी को यह आधी रात के समय आगरे से भाग निकला। वह धौलपुर पहुँचा ही था कि बादशाह के सरदारों ने उसे घेर लिया। वह भी जमकर लड़ा। इस युद्ध में उसके कई संबंधी और विश्वासपात्र लोग मारे गए। खानजहाँ आहत अवस्था में चंबल नदी पारकर गोंड़वान पहुँचा। अंत में निजामशाह का मित्र बन गया। तब शाहजहाँ ने इसे दंड देने के लिए सेनाएँ भेजीं। निजाम इसकी अच्छी सहायता नहीं कर सका। इसीलिये भाग खड़ा हुआ। शाही सेना इसके पीछे पड़ी हुई थी। भांडेर के पास फिर टक्कर हुई किंतु इसे फिर भागना पड़ा। भागते-भागते यह शिथिल हो चुका था। शाहजहाँ की सेना पीछा नहीं छोड़ रही थी। अंत में कोई विकल्प न देखकर इसने शाही फौज पर प्रत्याक्रमण किया और लड़ते लड़ते मारा गया। इसकी संतानों में कुछ मारे गए, कुछ भागते फिरते रहे।