ख़ाँ फ़ैयाज़ (उस्ताद) ख़याल गायन के आगरा घराने के सुप्रसिद्ध कलाकार। ख़याल गायकी में ग्वालियर, आगरा और दिल्ली घराने प्रमुख माने जाते रहे हैं। इन्हीं में विख्यात गायक हददू खाँ हस्सू खाँ और गंगे खुदाबख्श हुए हैं। आगरा घराना उस्ताद फ़ैयाज, खाँ के कारण बहुत प्रसिद्ध हुआ। इनका जन्म आगरा के निकट सिकंदरा में हुआ था और संगीत की आरंभिक शिक्षा गंगे खुदाबख्श के पुत्र अपने नाना उस्ताद गुलाम अब्बास खाँ द्वारा हुई। उनके चरणों में यह तब तक शिक्षा प्राप्त करते रहे जब तक उनकी १२० वर्षों की आयु में मृत्यु नहीं हो गई। नाना अपने साथ इन्हें बराबर यात्राओं पर भी ले जाते रहे जहाँ विभिन्न संगीताचार्यों के संपर्क में आने का इन्हें अवसर मिला।
जब यह १८-२० वर्षों के ही थे उसी समय की एक घटना है जो इनकी दैवी संगीत प्रतिभा को व्यक्त करती है और जो बहुत कम लोगों को ज्ञात है। एक संगीत सभा में तत्कालीन सुविख्यात गायक उस्ताद मियाँ जान खाँ ने अपने विशिष्ट ढंग से मुल्तानी में ख़याल गाया। फ़ैयाज ख़ाँ वहाँ उपस्थित थे, जनता मंत्रमुग्ध थी और अब किसी का गायन वहाँ उस समय जम पाने का प्रश्न ही नहीं था। मियाँ जान खाँ से लोहा लेना असंभवप्राय था। कुछ देर फ़ैयाज खाँ हिचके किंतु फिर स्वयं भी आलाप, अंतरा और स्थायी में मियाँ जान खाँ की भाँति ही मुलतानी ख्याल गाया, तदनंतर उसी राग को अपने रंग में गाया। मियाँ जान ख़ाँ विभोर हो उठे, स्वयं उठकर फ़ैयाज ख़ाँ के पास आए भूरि-भूरि प्रशंसा की।
ख़याल गायकी के ग्वालियर और दिल्ली घराने धीरे-धीरे प्रमुखता से पीछे हटने लगे किंतु फ़ैयाज़ खाँ के कारण आगरा घराना जीवित और सशक्त रहा। संगीत के क्षेत्र में वह धीर-धीरे भारत विख्यात होने लगे और यह निर्विवाद है कि वह ख़याल गायन के सर्वश्रेष्ठ कलाकार थे। ध्रुपद, होरी और अलाप की परंपराओं को ख़याल गायकी में उत्कृष्ट रूप से उतारना उनकी विशेषता थी। उनका अलाप वस्तुत: राग की रचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता था। सजीव चित्र संमुख उपस्थित कर देता था। कहा जा सकता हे कि वह केवल राग की अवतारणा कंठ द्वारा ही नहीं करते थे प्रत्युत उसे जीवंत कर देते थे, उसमें प्राण फूंक देते थे। वह अमर हो उठता था। उसमें जन-जन का हृदय धड़कने लगता था। इसी कारण, तकनीकी दृष्टि से कठिन और पेचदा होते हुए भी उनके होरी गायन जनता द्वारा बहुप्रशंसित थे। गत्यात्मकता और लयात्मकता उनके लिये आयाससिद्ध न होकर नैसर्गिक गुण थे। धमार ताल को लेकर जहाँ अन्य गायक उलझन में पड़ जाते हैं वहाँ फ़ैयाज़ ख़ाँ, लगता है, उसे अपनी उँगलियों पर नचाते थे।
अभी भी फ़ैयाज़ खाँ के गाए हुए दरबारी, पूरिया, टोडी, असावरी, देसी, रामकली, इमनकल्याण, जयजयबंती तथा अन्य कुछ राग लोगों के कानों में गूँज रहे हैं। उनकी गाई हुई भैरवी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय’, परज ‘मनमोहन ब्रज को रसिया’ आदि अब उस रूप में कहाँ सुनने को मिलेंगे ?
वह बहुत उदार और संतोषी प्राणी थे। भीड़ में भी अपने व्यक्तित्व के कारण सहज ही पहचाने जा सकते थे। विनम्र, सुसंस्कृत तथा आत्म प्रचार से दूर रहते थे। संगीत क्षेत्र के महान की शृंखला की वह अंतिम कड़ी थे, अपनी उपमा आप स्वयं थे। वह अपनी विद्या में अद्वय थे। राष्ट्र को उनपर गर्व होना उचित ही है। आज के संगीतज्ञ उस प्रकाश स्तंभ के नीचे बैठकर कला-साधना करने में गौरवान्वित होंगे।
संगीत विद्या में वह जितनी ऊँचाई पर पहुँच गए थे उसे देखते हुए जनता उन्हें आफताब ए मौसीकी (संगीत का सूर्य) कहने लगी थी। (सर्वदानंद)