खाँ, अलाउद्दीन उस्ताद विख्यात संगीतज्ञ। आपका जनम १८७० में त्रिपुरा जिले के शिवपुर गाँव में हुआ था। उनके पिता साधु खाँ बड़े संगीतप्रेमी थे; इसी कारण अलाउद्दीन खाँ भी संगीत की ओर उन्मुख हुए। पिता जब सितार का रियाज करते तो बालक अलाउद्दीन भी गुनगुनाते फलत: स्वर और लय से वे परिचित हो गए। तब वे सुप्रसिद्ध वाद्यवृंद संगीतज्ञ हाबू दत्त के पास गए। उन्होंने फिडल बजाकर उनकी परीक्षा ली थी। अलाउद्दीन ने तुरत धुन की सरगम बना दी। फिर लोबो नामक बैंड मास्टर से उन्होंने अंग्रेजी नोटेशन का ज्ञान प्राप्त करते हुए शहनाई सीखी। पर इतने से ही वे संतुष्ट नही हुए। अहमद अली से उन्होंने सरोद सीखना चाहा पर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। तब वे गुरु की खोज करते रामपुर पहुँचे। वहाँ उस्ताद वजीर खाँ ने काफी कठिन परीक्षा के बाद उन्हें अपना शिष्य बनाया और अपना सारा ज्ञान उनमें समाहित कर दिया। जब शिक्षा समाप्त हो गई तो वे भ्रमण कर संगीत के महफिलों में भाग लेने लगे। अंत में मैहर (मध्य प्रदेश) पहुँचकर वहां के राजा ब्रजनाथ के यहाँ नौकरी कर ली और फिर वे वहीं बस गए। आज भी उनकी ख्यादि मैहरवाले के नाम से है। उनके पास ध्रुपद और धमार के तीन हजार चीजों का संग्रह था और १२०० तो उन्हें कठस्थ थे। भारतीय संगीत के प्रचार के लिए वे इंग्लैंड और अमरीका भी गए थे। उनकी संगीतसेवा पर भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया था। (परमेश्वरीलाल गुप्त)