खत्री, देवकीनदंन (१८६१-१९१३)। ऐयारी उपन्यास लेखक। इनका जन्म १८६१ ई. में मुजफ्फरपुर में ननिहाल में हुआ था। आपके पिता लाला ईश्वरदास अपनी युवावस्था में लाहौर से काशी आए थे और यहीं रहने लगे थे। उनका गया जिले के टिकारी राज्य में अच्छा कारबार था। उन्होंने महाराज बनारस से चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठीका लिया था। इसी सिलसिले में देवकीनंदन की युवावस्था अधिकतर उक्त जंगलों में ही बीती थी। इन्हीं जंगलों और उनके खंडहरों से आपको वह स्फूर्ति मिली थी जिसने आपसे चद्रकांता, चंद्रकांता संतति, भूतनाथ ऐसे ऐयारी और तिलस्मी उपन्यासों की रचना कराई जिन्होंने आपको हिंदी साहित्य में अमर बना दिया। यद्यपि आपके उपन्यासों में बहुत कुछ उस प्रकार की बातें मिलती हैं जिस प्रकार की बातें उर्दू में अमीर हम्जा और तिलिस्म होशरु बा सरीखे किस्से कहानियों में मिलती हैं, फिर भी नि:संदेह आपके सभी उपन्यासों का रचनातंत्र मौलिक और स्वतंत्र है, और इसमें तिलस्मी तत्व के सिवा उक्त ग्रंथों का कुछ भी नहीं है। इस तिलस्मी तत्व में आपने अपने चातुर्य और बुद्धिकौशल से ऐयारी वाला वह तत्व भी मिला दिया था जो बहुत कुछ भारतीय है। १९वीं शताब्दी के अंत में लाखों पाठकों ने बहुत ही चाव और रुचि से आपके उपन्यास पढ़े और हजारों आदमियों ने केवल आपके उपन्यास पढ़ने के लिए हिंदी सीखी। अब भी बहुत से ऐसे पाठक मिलेंगे जिन्होंने आपके उपन्यासों का बीसियों बल्कि पचीसों बार पारायण किया हो।
आपका पहला और परम प्रसिद्ध उपन्यास चंद्रकांता सन् १८८८ ई. में प्रकाशित हुआ था। उसके चारों भागों के कुछ ही दिनों में कई संस्करण हो गए जिससे उत्साहित होकर आपने चंद्रकांता संतति, २४ भागों में लिखा। दस वर्षों में ही बहुत अधिक कीर्ति और यश संपादित कर चुकने और अपनी रचनाओं का अत्यधिक प्रचार देखकर १८९८ ई. में आपने अपने निजी प्रेस की स्थापना की। आप स्वभावत: बहुत ही लहरी अर्थात् मनमौजी और विनोदप्रिय थे। इसीलिए आपने अपने प्रेस का नाम लहरी प्रेस रखा। आपके उपन्यासों के अनेक ऐयारों और पात्रों के नाम आपने अपनी मित्रमंडली मे से ही चुने थे। आपकी अन्यान्य रचनाओं के नाम हैं अनूठी बेगम, काजल की कोठरी, कुसुम कुमारी, गुप्त गोदना और नरेंद्र मोहिनी। आपकी सभी कृतियों में मनोरंजन की जो इतनी अधिक कुतूहलवर्धक और रोचक सामग्री है उसका श्रेय आपके अनोखे और अप्रतिम बुद्धिबल को ही है। हिंदी के औपन्यासिक क्षेत्र का आपने आरंभ ही नहीं किया, वरन् उसके क्षेत्र में बहुत ही उच्च, उज्जवल और बेजोड़ स्थान भी प्राप्त किया। भारतेंदु के उपरांत आप प्रथम और सर्वाधिक प्रकाशमान् तारे के रूप में हिंदी जगत् के सामने आए। प्राय: ५२ वर्ष की अवस्था में १ अगस्त, १९१३ को आप परलोकवासी हुए। (रा. चं. व.)