खड़ी बोली इससे तात्पर्य खड़ी बोली हिंदी से है जिसे भारतीय संविधान में राष्ट्रभाषा का पद मिला है और संविधान ने जिसे राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसे आदर्श (स्टैंडर्ड) हिंदी, उर्दू तथा हिंदुस्तानी की मूल आधार स्वरूप बोली होने का गौरव प्राप्त है। खड़ी बोली पश्चिम रु हेलखंड, गंगा के उत्तरी दोआब तथा अंबाला जिले की उपभाषा है जो ग्रामीण जनता के द्वारा मातृभाषा के रूप में बोली जाती है। इस प्रदेश में रामपुर, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरपुर, मुरादाबाद, सहारनपुर, देहरादून का मैदानी भाग, अंबाला तथा कलसिया और भूतपूर्व पटियाला रियासत के पूर्वी भाग आते हैं। इस उपभाषा के बोलनेवालों की संख्या ५३ लाख के ऊपर है। मुसलमानी प्रभाव के निकटतम होने के कारण इस बोली में अरबी फारसी के शब्दों का व्यवहार हिंदी प्रदेश की अन्य उपभाषाओं की अपेक्षा अधिक है।
साहित्यिक संदर्भ में ब्रज, अवधी आदि बोलियों में साहित्य का पार्थक्य करने के लिए आधुनिक हिंदी साहित्य को खड़ी बोली साहित्य के नाम से अभिहित किया जाता है। यह भारतवर्ष की सर्वाधिक प्रचलित, सरल तथा बोधगम्य भाषा है। बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश तथा राजस्थान ये चार हिंदी (खड़ी बोली) भाषाभाषी राज्य हैं। परंतु इनके अतिरिक्त सुदूर दक्षिण के कुछ स्थानों को छोड़कर इसका प्रचार न्यूनाधिक समस्त देश में है।
नामकरण----खड़ी बोली अनेक नामों से अभिहित की गई है यथा---हिंदुई, हिंदवी, दक्खिनी, दखनी या दकनी, रेखता, हिंदोस्तानी, हिंदुस्तानी आदि। डा. ग्रियर्सन ने इसे वर्नाक्युलर हिंदुस्तानी तथा डा. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने इसे जनपदीय हिंदुस्तानी का नाम दिया है। डा. चाटुर्ज्या खड़ी बोली के साहित्यिक रूप को साधु हिंदी या नागरी हिंदी के नाम से अभिहित करते हैं। परंतु डा. ग्रियर्सन ने इसे हाई हिंदी का अभिधान प्रदान किया है। इसकी व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न रूप से की है। इन विद्वानों के मतों की निम्नांकित श्रेणियाँ हैं-----
खड़ी बोली की उत्पत्ति तथा इसके संबंध में विभिन्न मत----अत्यंत प्राचीन काल से ही हिमालय तथा विंध्य पर्वत के बीच की भूमि आर्यावर्त के नाम से प्रख्यात है। इसी के बीच के प्रदेश को मध्य प्रदेश कहा जाता है जो भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता का केंद्रबिंदु है। संस्कृत, पालि तथा शौरसेनी प्राकृत विभिन्न युगों में इस मध्यदेश की भाषा थी। कालक्रम से शौरसेनी प्राकृत के पश्चात् इस प्रदेश में शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचार हुआ। यह कथ्य (बोलचाल की) शौरसेनी अपभ्रंश भाषा ही कालांतर में कदाचित् खड़ी बोली (हिंदी) के रूप में पारिणत हुई है। इस प्रकार खड़ी बोली की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से मानी जाती है, यद्यपि इस अपभ्रंश का विकास साहित्यक रूप में नहीं पाया जाता। भोज और हम्मीरदेव के समय से अपभ्रंश काव्यों की जो परंपरा चलती रही उसके भीतर खड़ी बोली के प्राचीन रूप की झलक दिखाई पड़ती है। इसके उपरांत भक्तिकाल के आरंभ में निर्गुण धारा के संत कवि खड़ी बोली का व्यवहार अपनी सधुक्कड़ी भाषा में किया करते थे।
कुछ विद्वानों का मत है कि मुसलमानों के द्वारा ही खड़ी बोली अस्तित्व में लाई गई और उसका मूलरूप उर्दू है, जिससे आधुनिक हिंदी की भाषा अरबी फारसी शब्दों को निकालकर गढ़ ली गई। सुप्रसिद्ध भाषाशास्त्री, डा. ग्रियर्सन के मतानुसार खड़ी बोली अंग्रेजों की देन है। मुगल साम्राज्य के ध्वंस से खड़ी बोली के प्रचार में सहायता पहुँची। जिस प्रकार उजड़ती हुई दिल्ली को छोड़कर मीर, इंशा आदि उर्दू के अनेक शायर पूरब की ओर आने लगे उसी प्रकार दिल्ली के आसपास के हिंदू व्यापारी जीविका के लिये लखनऊ , फैजाबाद, प्रयाग, काशी, पटना, आदि पूरबी शहरों में फैलने लगे। इनके साथ ही साथ उनकी बोलचाल की भाषा खड़ी बोली भी लगी चलती थी। इस प्रकार बड़े शहरों के बाजार की भाषा भी खड़ी बोली हो गई। यह खड़ी बोली असली और स्वाभाविक भाषा थी, मौलवियों और मुंशियों की उर्दू-ए-मुअल्ला नहीं। १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के संबंध में वे लिखते हैं कि यह समय हिंदी (खड़ीबोली) भाषा के जन्म का समय था जिसका अविष्कार अंग्रेजों ने किया था और इसका साहित्यिक गद्य के रूप में सर्वप्रथम प्रयोग गिलक्राइस्ट की आज्ञा से लल्लू जी लाल ने अपने प्रेमसागर में किया।
लल्लू जी लाल और पं. सदल मिश्र को खड़ी बोली के उन्नायक अथवा इसको प्रगति प्रदान करनेवाला तो माना जा सकता है, परंतु इन्हें खड़ी बोली का जन्मदाता कहना सत्य से युक्त तथा तथ्यों से प्रमाणित नहीं है। खड़ी बोली की प्राचीन परंपरा के संबंध में ध्यानपूर्वक विचार करने पर इस कथन की अयथार्थता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है।
मुसलमानों के द्वारा इसके प्रसार में सहायता अवश्य प्राप्त हुई। उर्दू कोई स्वतंत्र भाषा नहीं बल्कि खड़ी बोली की ही एक शैली मात्र है जिसमें फारसी और अरबी के शब्दों की अधिकता पाई जाती है तथा जो फारसी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू साहित्य के इतिहास पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट प्रमाणित है। अनेक मुसलमान कवियों ने फारसी मिश्रित खड़ी बोली में, जिसे वे रेख्ता कहते थे, कविता की है। यह परंपरा १८वीं १९वीं शती में दिल्ली के अंतिम बादशाह बहादुरशाह तथा लखनऊ के अंतिम नवाब वाजिदअली शाह तक चलती रही।
साधारणत: लल्लू जी लाल, सदल मिश्र, इंशाअल्ला खाँ तथा मुंशी सदासुखलाल खड़ी बोली गद्य के प्रतिष्ठापक कहे जाते हैं परंतु इनमें से किसी को भी इसकी परंपरा को प्रतिष्ठित करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। आधुनिक खड़ी बोली गद्य की परंपरा की प्रतिष्ठा का श्रेय भारतेंदु बाबू हरिशचंद्र एवं राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद को प्राप्त है जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा एक सरल सर्वसम्मत गद्यशैली का प्रवर्तन किया। कालांतर में लोगों ने भारतेंदु की शैली अधिक अपनाई।
वस्तुत: आधुनिक हिंदी साहित्य खड़ी बोली का ही साहित्य है जिसके लिए देवनागरी लिपि का सामान्यत: व्यवहार किया जाता है और जिसमें संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि के शब्दों और प्रकृतियों के साथ देश में प्रचलित अनेक भाषाओं और जनबोलियों की छाया अपने तद्भव रूप में वर्तमान है।
सं. ग्रं.------आचार्य रामचंद्र शुक्ल: हिंदी साहित्य का इतिहास; ग्रियर्सन : दि मार्डन वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑव हिंदुस्तान की भूमिका, कलकत्ता, १८८९; तासी : हिंस्ट्री दि ला हिंदुई ऐंड हिंदुस्तानी (प्रथम संस्करण, भाग १; टी. ग्रैहम बेली: दि हिस्ट्री ऑव उर्दू लिटरेचर; डा. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या: भारतीय आर्यभाषा और हिंदी; डा. धीरेंद्र वर्मा: हिंदी भाषा का इतिहास (पंचम संस्करण, १९५८;) डा. उदयनारायण तिवारी : हिंदी भाषा का उद्गम और विकास। (कष्णदेव उपाध्याय)