क्षेमेंद्र संस्कृत के प्रतिभासंपन्न काश्मीरी महाकवि। ये विद्वान ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए थे। ये सिंधु के प्रपौत्र, निम्नाशय के पौत्र और प्रकाशेंद्र के पुत्र थे। इन्होंने प्रसिद्ध आलोचक तथा तंत्रशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् अभिनवगुप्त से साहित्यशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके पुत्र सोमेंद्र ने पिता की रचना बोधिसत्त्वावदानकल्पलता को एक नया पल्लव (कथा) जोड़कर पूरा किया था। इन्होंने अपने ग्रंथों के रचनाकाल का उल्लेख किया है जिससे इनके आविर्भाव के समय का परिचय हमें मिलता है। काश्मीर नरेश अनंत (१०२८-१०६३) तथा उनके पुत्र और उत्तराधिकारी राजा कलश (१०६३-१०८९) के राज्यकाल में क्षेमेंद्र का जीवन व्यतीत हुआ। क्षेमेंद्र के ग्रंथ समयमातृका का रचनाकाल १०५० ई. तथा इनके अंतिम ग्रंथ दशावतारचरित का निर्माण काल इनके ही लेखानुसार १०६६ ई. है। फलत: एकादश शती का मध्यकल (लगभग १०२५-१०६६) क्षेमेंद्र के आविर्भाव का, निश्चित रूप से, समय माना जा सकता है।

क्षेंमेंद्र के पूर्वपुरूष राज्य के अमात्य पद पर प्रतिष्ठित थे। फलत: इन्होंने अपने देश की राजनीति को बड़े निकट से देखा तथा परखा। अपने युग के आशांत वातावरण से ये इतने असंतुष्ट और मर्माहत थे कि उसे सुधारने में, उसे पवित्र बनाने में तथा स्वार्थ के स्थान पर परार्थ की भावना दृढ़ करने में इन्होंने अपना जीवन लगा दिया तथा अपनी द्रुतगामिनी लेखनी को इसी की पूर्ति के निमित्त काव्य के नाना अंगों की रचना में लगाया। इनके आदर्श थे महर्षि वेदव्यास और उनके ही समान क्षेमेंद्र ने सरस, सुबोध तथा उदात्त रचनाओं से संस्कृतभारती के प्रासाद को अलंकृत किया। प्रथमत: उन्होंने प्राचीन महत्वपूर्ण महाकाव्यों के कथानकों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया। रामायणमंजरी, भारतमंजरी तथा बृहत्कथामंजरी-ये तीनों ही क्रमश: रामायण, महाभारत तथा बृहत्कथा के अत्यंत रोचक तथा सरस संक्षेप हैं। बोधिसत्त्वावदानकल्पलता में बुद्ध के पूर्व जन्मों से संबद्ध पारमितासूची आख्यानों का पद्यबद्ध वर्णन है। दशावतारचरित इनका उदात्त महाकाव्य है जिसमें भगवान् विष्णु से दसों अवतारों का बड़ा ही रमणीय तथा प्रांजल, सरस एवं मुंजुल काव्यात्मक वर्णन किया गया है। औचित्य-विचार-चर्चा में क्षेमेंद्र ने औचित्य को काव्य का मूलभूत तत्व माना है तथा उसकी प्रकृष्ट व्यापकता काव्य प्रत्येक अंग में दिखलाई है।

क्षेमेंद्र संस्कृत में परिहासकथा (सटायर) के धनी हैं। हम नि:संदेह कह सकते हैं कि संस्कृत में इनकी जोड़ का दूसरा सिद्धहस्त सटायर लेखक नहीं है। इनकी सिद्ध लेखनी पाठकों पर चोट करना जानती है परंतु उसकी चोट मीठी होती है परिहास कथा विषयक इनकी दो अनुपम कृतियाँ हैं (नर्ममाला तथा देशोपदेश) जिनमें उस युग का वातावरण अपने पूर्ण वैभव के साथ हमारे सम्मुख प्रस्तुत होता है। ये विदग्धी के कवि होने के अतिरिक्त जनसाधारण के भी कवि हैं जिनकी रचना का उद्देश्य विशुद्ध मनोरंजन के साथ ही साथ जनता का चरित्रनिर्माण भी है। कलाविलास, चतुर्वर्गसंग्रह, चारुचर्या, समयामातृका आदि लघु काव्य इस दिशा में इनके सफल उद्योग के समर्थ प्रमाण हैं। इनकी भाषा सरस और सुबोध है, न पांडित्य का व्यर्थ प्रदर्शन है और न शब्द का अनावश्यक चमत्कार है। भावों की उदात्त व्यंजना में तथा भाषा के सुबोध सरस विन्यास में क्षेमेंद्र सचमुच ही अपने उपनाम के सदृश व्यासदास हैं।

सं. ग्रं.-----मैकडॉनेल, ए हिस्ट्री ऑव संस्कृत लिटरेचर ; कीथ : हिस्ट्री ऑव संस्कृत लिटरेचर ; बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास, काशी, १९६१ ; सूर्यकांत : क्षेमेंद्र स्टडीज़, पूना, १९५०। (बलदेव उपाध्याय)