क्षारनिर्माण सुश्रुत संहिता में महर्षि सुश्रुत ने तत्र क्षारणात् क्षणनाद् वा क्षार इस प्रकार क्षार की परिभाषा की है। क्षार शब्द के बोधक पदार्थ क्षरण और क्षणन करते हैं--दुष्ट मांस आदि काटने को क्षरण और त्वचा, मांस आदि के हिंसन को क्षणन कहते हैं। क्षारों को बनाने का सबसे पुराना उल्लेख हमारे साहित्य में इसी सुश्रुत ग्रंथ का है। इस ग्रंथ में दो प्रकार से क्षार बनाने की विधि दी हुई है : पानीय क्षार, अर्थात् वह क्षार जो खाने योग्य होता है, और प्रतिक्षारणीय क्षार जिसका उपयोग कुष्ठ, किंटिभ, दद्रु, भगंदर विद्रधि आदि रोगों में किया जाता है। प्रतिक्षारणीय क्षार तीन प्रकार का बताया गया है : मृदु, मध्य, तीक्ष्ण। अनेक प्रकार के पेड़ों की लकड़ियों को जलाकर उनकी भस्म से प्राप्त करते थे फिर इस भस्म को पानी के साथ उबालते थे। इस प्रकार जो विलयन मिलता था उसमें खड़िया और शंख की तृप्त भस्म (अर्थात् कैलसियम ऑक्साइड) मिलाते थे, तदनंतर छानकर छने द्रव को उबालकर दाहक (कॉस्टिक caustic) क्षार तैयार कर लेते थे और लोहे के बर्तनों में सुरक्षित रखते थे। हमारे पुराने ग्रंथों में यवक्षार अर्थात् पोटाशियम कार्बोंनेट, सार्जिकाक्षार अर्थात् सोडियम कार्बोंनेट, टंकक्षार अर्थात् सुहागा इत्यादि क्षारीय पदार्थों का उल्लेख है।
प्रकृति में सोडियम कार्बोंनेट कई प्रकार से पाया जाता है। यह मध्यम श्रेणी का क्षार है। रेह या सज्जी (सर्जिका या स्वर्जिका) से हमारा परिचय पुराना है। बुलडाना जिले की लोनर झील के पानी में पर्याप्त सोडियम कार्बोंनेट है। इस पानी में रेह या सज्जी या सोडियम कार्बोंनेट के साथ साथ सोडियम सल्फेट भी मिला हुआ है। इसलिये साधारण भाषा में इसे खारी भी कहते हैं। चमड़े का काम करने वाले इस खारी जाति के पदार्थ का उपयोग चमडा पकाने में भी करते रहे हैं। हमारे देश में बिहार, चंपारन, मुजफ्फरपुर, सारन, वाराणासी, आजमगढ़, जौनपुर, गाजीपुर, हाथरस, कानपुर आदि में सज्जी मिट्टी विशेष रूप से होती है। इस मिट्टी में क्या है, इसका अनुमान इन अंकों से हो जाएगा, जो कानपुर की एक मिट्टी के हैं : २७.०२% सोडियम कार्बोंनेट, ४.२८% सोडियम बाईकार्बोंनेट, और ३३.९८% सोडियम सल्फेट। उत्तर प्रदेश के पुष्परण क्षेत्रों से प्रति वर्ष ८३,२१,००० टन कच्चा सोडा, जिसमें ४८,८८,०६० टन सोडियम कार्बोंनेट होना चाहिए, प्राप्त हो सकता है।
१७७५ ई. में फ्रेंच रॉयल ऐकेडमी ऑव साइंसेज ने एक पुरस्कार की घोषणा की जो उस व्यक्ति को दिया जाने को था जो साधारण नमक, अर्थात् सोडियम क्लोराइड, से सोडा तैयार कर दे। यह पुरस्कार सन् १७९० में निकोलस लब्लाँ को दिया गया। इस व्यक्ति ने ड्यूक ऑव ऑरलेऑ से आर्थिक सहायता प्राप्त करके सेंट डेनिस में क्षारनिर्माण का एक कारखाना खोला। दो वर्ष बाद ही फ्रेंच नैलसन ने लब्लाँ का कारखाना और उसका पेटेंट जब्त कर लिया। फलत निर्धनता के कारण लब्लाँ ने १८०६ ई. में आत्महत्या कर ली। पर क्षारनिर्माण के इतिहास में लब्लाँ का नाम अमर हो गया। इंग्लैंड में १८२३ ई. में लब्लाँ की विधि पर निर्भर एक कारखाना खुला और १८८५ ई. तक बराबर इसी विधि से सोडा राख का निर्माण होता रहा। यूरोप में तो प्रथम महायुद्ध के अंत तक लब्लाँ की विधि से क्षार बनाया जाता रहा।
१८०० ई. केलगभग क्षारनिर्माण की एक दूसरी विधि को प्रश्रय मिलने लगा। यह विधि साल्वे (Solvay) के नाम से प्रसिद्ध हुई। इंग्लैंड में १८४० ई. के लगभग इस विधि के आधार पर एक कारखाना खुला। इस विधि में थोड़े बहुत सुधार १८५०-१८६० ई. के बीच होते रहे। अनेक लोगों ने इसके पेटेंट भी लिए, किंतु इस विधि को व्यापारिक सफलता शीघ्र प्राप्त न हो सकी। इस असफलता का एक कारण नमक पर भारी कर का लगा रहना भी था। १८६१ ई. में सॉल्वे ने इस विधि का स्वतंत्र रूप से सांगोपांग अध्ययन किया और बेल्जियम में कूले (Couillet) नामक स्थान पर एक कारखाना स्थापित किया। यह कारखाना शीघ्र उन्नति करने लगा। १८६६ ई. में प्रति दिन डेढ़ टन सोडा बनता था। १८७२ ई. में १० टन प्रतिदिन का निर्माण होने लगा। शीघ्र फ्रांस और इंग्लैंड में भी इस पद्धति पर कारखाने खुलने लगे। सीराक्यूज, न्यूयार्क में पहला अमरीकी कारखाना खुला जो इस समय संसार का सबसे बड़ा कारखाना है। अब तो संसार के सभी प्रसिद्ध देशों में इस विधि पर अवलंबित कारखाने स्थापित हैं। वाराणासी के निकट साहू जैन के कारखाने में भी इसी विधि का उपयोेग होता है।
लब्लाँ विधि --इस विधि में सोडियम कार्बोंनेट बनाने के लिये साधारण नमक, कोयला, सल्फ्यूरिक अम्ल और चूने के पत्थर की आवश्यकता पड़ती है। साधारण नमक को पहले सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ अभिकृत करते हैं। यह क्रिया दो पदों में होती है। पहले पद में सोडियम हाईड्रोजन सल्फेट NaHSO4 बनता है और अंत में दूसरे पद में सोडियम सल्फेट (Na2SO4), जिसे लवणपिंड (salt cake) कहते हैं :
NaCI+H2SO4 =NaH SO4+HCI
NaCI+NaHSO4 =Na2SO4+HCI
दोनों पदों में हाइड्रोकलोरिक अम्ल निकलता है, जिसकी वाष्प को अलग घोल लेते हैं और उसका उपयोग क्लोरीन तथा विरंजन चूर्ण तैयार करने में करते हैं।
जब लवणपिंड तैयार हो जाता है तब इसे चूने के पत्थर और कोक (कार्बन) के साथ गरम करके अपचयित करते हैं। ऐसा करने पर काली राख मिलती है, जो सोडियम कार्बोनेट और कैलसियम सल्फाइड का मिश्रण होती है:
Na2 SO4+CaCO3+4C=Na2CO3+CaS+4CO
पानी के साथ जब काली राख खलभलाई जाती है, तब सोडियम कार्बोनेट तो इसमें घुल जाता है और कैलसियम सल्फाइड का काला कीचड़ बच रहता है। १८३५ ई. में चांस (Chance) भाइयों ने इस काले कीचड़ में से गंधक प्राप्त करने की एक विधि निकाली। कार्बन डाइऑक्साइड के योग से यह कैलसियम सल्फाइड हाइड्रोजन सल्फाइड देता है और यह गैस फेरिक ऑक्साइड की विद्यमानता में भट्ठी के ताप पर हवा द्वारा उपचायित होकर गंधक देती है।
एमोनिया सोडा विधि या सॉलवे विधि------इस विधि के द्वारा साधारण नमक पाँच पदों में क्रिया करके सोडियम कार्बोनेट देता है। यह विधि ऐमोनिया की सहायता पर निर्भर है।
पहला पद : ३१ प्रति शत, अर्थात् लगभग संतृप्त, सोडियम क्लोराइड के विलयन में ऐमोनिया प्रवाहित करते हैं। विलयन को ऐमोनिया गैस से बिलकुल संतृप्त कर देते हैं।
दूसरा पद : फिर चूने के भट्ठे से प्राप्त कार्बन डाइऑक्साइड गैस द्वारा ऐमोनिया-नमक-विलयन को अभिकृत करते है। अभिक्रिया में ऐमोनिया और कार्बन डाइऑक्साइड के योग से ऐमोनियम बाइकार्बोनेट बनता है। यह सोडियम क्लोराइड से अभिकृत होकर सोडियम बाइकार्बोनेट (NaHCO3) को अवक्षेप देता है। अभिक्रिया में ऐमोनियम क्लोराइड (NH4CI) भी बनता है:
NH3+CO2+H2O =NH4 H CO3
NH4HCO3+Na CI =Na H CO3+NH4CI
तीसरा पद : दूसरे पद में जो सोडियम बाइकार्बोनेट (NaHCO3), का अवक्षेप आया वह कपड़े के पट्टों पर जमा हो जाता है। इसे चाकू की धार से छुड़ा लेते हैं। ऐमोनियम क्लोराइड विलयन में रहता है।
चौथा पद: सोडियम बाइकार्बोनेट को बड़े डेगों में तपाकर सोडियम कार्बोनेट बना लेते हैं :
2 NaHCO3=Na2CO3+H2O+CO2
पाँचवा पद : ऐमोनियम क्लोराइड विलयन में बुझा चूना डालकर फिर ऐमोनिया गैस तैयार कर लेते है, जिसकी सहायता से फिर यही चक्र स्थापित किया जाता है।
इन विधियों से तैयार किया गया सोडियम कार्बोनेट श्वेत, अजल चूर्ण होता है, जिसका गलनांक ८५२० सें. है। इसके विलयन का मणिभीकरण करने पर जो मणिभ मिलते हैं, उन्हें धोबी का सोडा (वाशिंग सोडा) कहते हैं। इसमें १० अणु पानी होता है; अर्थात् इसका सूत्र Na2CO3 10H2O हैं। सोडियम कार्बोनेट की अपेक्षा सोडियम बाइकार्बोनेट पानी में कम विलेय है, २०० सें. पर केवल ९.६ प्रतिशत। लब्लाँ विधि में यदि नमक की जगह पोटासियम क्लोराइड लें, तो पोटासियम कार्बोनेट (K2 CO3) भी तैयार कर सकते हैं। पर सॉलवे विधि से पोटासियम बाइकार्बोनेट (KHCO3) नहीं तैयार कर सकते, क्योंकि पानी में इसकी विलेयता बहुत ही अधिक है। पानी में पोटासियम कार्बोनेट २५० सें., पर ११३.५ प्रतिशत और पोटासियम बाइकार्बोनेट ३६.१ प्रतिशत विलेय है।
दाहक (कॉस्टिक, caustic) सोडा-----इसे तैयार करने की पुरानी विधि तो बुझे चूने और सोडियम कार्बोनेट के योग से थी :
CaO+Na2CO3+H2O=2NaOH CaCO3
इस विधि का परिवर्तित रूप ही लोविग (Lowing) की विधि है। सोडियम कार्बोनेट या सोडा राख को फेरिक ऑक्साइड के साथ मिलाते हैं और लोहित ताप एक भ्रामक भट्ठी में गरम करते हैं। इस प्रकार क्रिया करने से सोडियम फेराइट (NaFeO2) बनता है। ठंडा करके इसके छोटे छोटे टुकड़े कर लिए जाते हैं और फिर गरम पानी में ये टुकड़े छोड़ दिए जाते हैं। पानी की क्रिया से दाहक सोडा विलयन मिल जाता है और फेरिक ऑक्साइड का अवक्षेप आ जाता है, जिसका फिर उपयोग किया जा सकता है :
Na2CO3+Fe2O3=Na Fe O2+CO2
2Na Fe O2+H2O=2NaOH +Fe2 O3
आजकल बहुधा दाहक (कॉस्टिक) सोडा साधारण नमक के विलयन से विद्युद्विश्लेषण से तैयार करते हैं। इस प्रकार नमक से दाहक सोडा और क्लोरीन दोनों व्यापारिक मात्रा में मिलते हैं। विद्युद्विश्लेषण के कार्य के लिये विभिन्न देशों में तरह तरह के विद्युत्सेलों का उपयोग करते हैं। कास्टनर-केलनर सेल (Castner-Kellner Cell) इनमें बहुत प्रसिद्ध हैं। सॉलवे सेल भी इसी का परिवर्तित रूप है। नमक के विद्युद्विश्लेषण के धनाग्र पर क्लोरीन गैस और ऋणाग्र पर सोडियम जमा होता है। ऋणाग्र पर पारा रखते हैं। सोडियम इस पारे से संयुक्त होकर संरस सा आमैल्गम बनाता है। यह सरस पानी के योग से दाहक सोडा देता है। अगर सोडियम को पारे द्वारा पृथक् न करें, तो नमक और कॉस्टिक सोडे का मिश्रण ऋणाग्र पर मिलेगा। निर्वात वाष्पकों में गरम करके पानी उड़ावें तो पहले सोडियम क्लोराइड के मणिभ मिलेंगे, जिन्हें छानकर अलग कर दिया जाता है। फिर दाहक सोडा के ढोंके बना लिए जाते हैं।
दाहक सोडा श्वेत रंग का पारभासी ठोस पदार्थ है। यह ३१८.४ सें. पर गलता है। इसका घनत्व २.१३ सें. है। कॉस्टिक सोडा के समान ही कॉस्टिक पोटाश होता है, जिसका गलनांक ३६०.४ सें. है (और यदि शुष्क हो तो ४१० सें.)। लिथिआ (Li2O) और लिथियम हाइड्राक्साइड भी दाहक सोडा के समान क्षारीय पदार्थ है। ये लिथियम सल्फेट और बाराइटा जल के योग से तैयार किए जाते हैं। चूने के पत्थर को तपाकर जो चूना (CaO) मिलता है, वह पानी में बुझाने पर कैलसियम हाइड्राक्साइड [Ca (OH)2] का क्षारीय विलय देता है। १५ सें. पर पानी में १.२९ ग्राम चूना प्रति लिटर घुलता है। कैलसियम हाइड्राक्साइड के समान ही बाराइटा या बेरियम हाइड्राक्साइड [Ba (OH)2,8H2O] है। इसका विलयन भी अच्छा खासा क्षारीय है और यह मणिभ भी देता है। यह ६५० सें. से नीचे ताप पर पिघलता है। अनेक रासायनिक क्रियाओं में बाराइटा जल का उपयोग होता है। (सत्यप्रकाश )