क्षतिपूर्ति किसी अन्य व्यक्ति के व्यवहार से जब किसी को कुछ हानि पहँुचती है तब उसमें एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया यह जानने की होती है कि इसका उपचार क्या होगा? विधि का यह अंतर्निहित कर्तव्य है कि वह हानियों की पूर्ति करे। इस पूर्ति की कई रीतियाँ हैं। एक तो यह कि हानि उठानेवाले को कुछ मुद्राएँ देकर क्षतिपूति की जाय। अत: क्षतिपूति वह वस्तु है जिससे प्रतिवादी के कर्तव्योल्लंघन से हुई हानि की पूर्ति उसके ही द्वारा वादी को दी जानवाली एक निश्चित धनराशि से की जा सके। इस क्षतिपूर्ति की दो समस्याएँ हैं। पहली यह कि वादी की उक्त क्षति की परिधि कितनी है जिसके लिए प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया गया। दूसरी यह कि पूरणीय क्षति की सीमा निश्चित हो जाने पर भी रुपयों में उसका मूल्य कैसे कूता जाए। दोनों ही बातें एक सुव्यवस्थित विचार की अपेक्षा रखती हैं। इन समस्याओं से संबद्ध कुछ आधारभूत नियम है:

पहला यह कि मानवीय दुष्कृत्य अपने होनेवाले प्रभावों तक ही नहीं सीमित रहते। बहुधा कार्यकारण की एक शृंखला होती है जो उसके दुष्परिणामों की दूरस्थ दिशाओं तक चली जाती हैएक जहाज यदि किसी दूसरे जहाज से टकरा जाए तो जहाज का स्वामी दिवालिया हो ही जाएगा, बाद को उसका परिवार भी शिक्षा एवं अवसरों के अभाव से पीड़ित हो सकता है। नैतिक सदाचार एवं सुनागरिकता की दृष्टि से तो दोषी को वादी की उक्त हानि से उत्पन्न सभी प्रकार के अभावों के लिये उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। हम प्रतिवादी द्वारा किए गए अपराध के परिणामों को किसी निश्चित अंश तक नहीं पहुँच सकते। परिणामों का तो अंत नहीं, किंतु अपेक्षित कर्तव्यों का एक अंत अवश्य है। विधि इसी अपेक्षित कर्तव्य की व्यवहार्य एवं सुसंगत सीमाएँ तय करना आवश्यक समझती है। हैडली बनाम बैक्सेंडल वाले मुकदमे के नियम लागू होते है। इनके अनुसार केवल उन्ही क्षतियों की पूर्ति होनी चाहिए जो या तो स्वभवत: उत्पन्न हैं (अर्थात् उस समझौते के उल्लंघन से होनेवाले स्वाभाविक व्यापारों की उपज हैं) या जिनके विषय में तर्कसंगत उपायों से ऐसा समझ लिया गया कि उभय पक्ष ने समझौता करते समय ही उसके उल्लंघन से उत्पन्न, इन परिणामों की कल्पना कर ली थी।

हानि विषयक विधि (ला ऑव टार्ट्स) में ग्रीन लैंड बनाम चैप्लिन वाले मामले में बताया गया है कि प्रतिवादी से केवल उन्हीं क्षतिपूर्तियों की अपेक्षा की जा सकती है जिनकी पूर्वकल्पना कोई सामान्यत: बुद्धिमान समझा जानेवाला व्यक्ति कर सकता हो। किंतु भविष्यदर्शिता की इस कसौटी को स्मिथ बनाम लंदन ऐंड साउथ वेस्टर्न रेलवे कं. वाले मामले के निपटारे में नहीं अपनाया गया था। इसमें तय हुआ था कि असावधानी (नेग्लिजेंस) की स्थिति में दोषी सभी प्रकार के परिणामों के लिए उत्तरदायी है; चाहे उन्हें उसने पहले से सोच रखा हो अथवा नहीं। असावधानी सिद्ध हो जाने के बाद इस आपत्ति की गुंजाइश नहीं रह जाती की क्षतिपूर्ति की मांग आशा से अधिक है। यह नियम इन रे पोलेमिस फ़र्नेस विदी एंड कं. वाले मामले में स्थिर हुआ। प्रतिवादी के नौकर जहाज से माल उतार रहे थे। एक ने शहतीर के एक तख्ते को ठोकर मारी और वह तख्ता जहाज के पेट्राल -वाष्प (पेट्रोल वेयर से) रगड़ खाता नीचे की ओर गया। इस क्रिया से उसमें आग लग गई और यह आग कुछ देर में पूरे जहाज में फैल गई। जहाज के मालिक ने पूरे जहाज की क्षतिपूर्ति का दावा किया। बचाव में प्रतिवादी का कहना था कि उसे इतने बड़े दुष्परिणाम की कल्पना न थी किंतु यह युक्ति स्वीकार नहीं कि गई। किसी भी क्रिया में असावधानी सिद्ध हो जाने के पश्चात् प्रतिवाद उन सभी परिणाम का उत्तरदायी होगा जिनका संबंध सीधे तौर पर उक्त कार्य से जोड़ा जा सकता है।

दूसरी समस्या है क्षतिपूर्ति के स्वरूप एवं सीमा का निर्धारित कर देने के बाद उसका मूल्य रुपयों में कूतने की। क्षतिपूर्ति का मूल्यांकन लिखे नियमों द्वारा होता है:

पहला यह कि शर्तबंध समझौते की विधि में क्षतिपूर्ति का आधारभूत उद्देश्य होता है-हानि सहनेवाले पक्ष को उपयुक्त धनराशि दिलाकर उसी स्थिति पर ले आना जिस पर वह समझौता भंग होने के बदले उसकी पूर्ति हो जानेवाली दशा में पहुँच पाता। यों क्षतिपूर्ति वादी द्वारा झेले जानेवाले नुकसान को भरने के लिए ही होती है, न कि उस उल्लंघनकर्ता को सजा देने के लिए। हानिविषयक विधि में भी नियम तो इसी आपूर्ति का ही है, किंतु इसमें क्षति किए जाने के ढ़ग पर क्षतिपूर्ति का परिणाम बढ़ाया घटाया जा सकता है। जहाँ क्षति जान बूझकर अथवा द्वेषवश पहँुचाई जाती है वहाँ न्यायालय वादी की क्षति की आपूर्ति यथोचित धन से भी अधिक देकर कर सकता है। इस प्रकार की क्षतिपूर्तियाँ आदर्श अथवा दंडात्मक समझी जाती है। दंडात्मक क्षतिपूतियों का उद्देश्य एक ओर तो प्रतिवादी को दंड देना है, दूसरी ओर अभावग्रस्त वादी को अनुप्राणित करना भी है। जहाँ क्षति अज्ञानवश पहुँचाई गई है अथवा वादी वैसे भोगदंड के उपयुक्त है, उसे बहुत छोटी रकम से क्षतिपूर्ति करने को कहा जाता है। ये मानभंजक क्षतिपूर्तियाँ मानी गई है। ये वादी के कार्य के विरूद्ध न्यायालय की बेरुखी प्रकट करती हैं।

दूसरा यह कि चूँकि प्रतिज्ञानबद्ध समझौते (कंट्रैक्ट) और विक्षति (रॉर्ट) दोनों ही मामलों में अंतर्निहित उद्देश्य अभावपूर्ति का ही होता है एक यह नियम अपने आज नि:सृत होता है कि यदि वादी ने हानि नहीं उठाई है तो वह किसी क्षतिपूर्ति का भी दावेदार नहीं है। किंतु वादी के वैध अधिकारों के अतिक्रमण की अवस्था में न्यायालय एक छोटी रकम की क्षतिपूर्ति उसे दिला सकता है। ये नाम्ना क्षतिपूर्तियाँ हैं जो वस्तुत: रकम कहीं जाने योग्य तो होती हैं किंतु परिमाण की दृष्टि से उनका कोई खास अस्तित्व नहीं होता। ऐशबी बनाम ह्वाइट का मामला इसका उदाहरण है। वादी संसदीय चुनाव में मतदाता था। चुनाव-अधिकारी से उसे अपना मत देने से रोका। वादी ने उसपर अपने वैध अधिकार के हनन का दावा किया। प्रतिवादी ने बचाव में यह तर्क उपस्थित किया कि वादी को उससे कोई वित्तीय क्षति नहीं हुई। किंतु न्यायालय ने कहा हर हानि अपनी क्षतिपूर्ति लेती ही है, भलें ही उस पक्ष की एक कौड़ी भी हानि न हुई हो। क्षतिपूर्ति केवल दंडात्मक ही नहीं होती। हानि अपनी क्षतिपूर्ति उस दशा में भी लेती है जब किसी अधिकारक्षेत्र में कोई बाधा होती है। जैसे, गलत प्रचार में कहे गए शब्दों द्वारा किसी को भी, कम से कम, मात्र कहे जानेवाले शब्दों से कोई आर्थिक हानि नहीं होती लेकिन उसपर कार्रवाई की जा सकती है। किसी व्यक्ति ने यदि किसी अन्य की कनपटी पर एक मुक्का मारा तो इससे पीड़ित व्यक्ति का कुछ भी व्यय नहीं हुआ, किंतु एतदर्थ उसपर कार्रवाई हो सकती है। किसी दूसरे की भूमि पर सवारी ले जाना हानि न होते हुए भी उसकी संपत्ति पर आक्रमण माना जा सकता है।

तीसरा यह कि समझौते एवं विक्षति, दोनों ही मामलों में वादी का कर्त्तव्य क्षति का शमन करने के लिये आवश्यक कदम उठाना हो जाता है। उदाहरणार्थ, प्रतिवादी ने समझौता भंग करते हुए यदि वादी के माल का अपने जहाज पर लादने से इनकार कर दिया तो यह वादी का कर्त्तव्य है कि, उपलब्ध हो सके तो, वह किसी दूसरे जहाज पर सामान लदवा दे। यदि उसने इसमें असावधानी दिखलाई और अकस्मात् तूफान आ जाने से डॉकयार्ड में पड़ा पड़ा सामान नष्ट हो गया तो प्रतिवादी इस हानि के लिए उत्तरदायी नहीं। इसी प्रकार किसी एक दल द्वारा सामग्रीवाही जहाज दिए जाने से इनकार किए जाने पर क्षति के शमन के लिए जहाज के मालिक का कर्त्तव्य है कि वह वैसे अन्य किसी भी सुलभ जहाज का उपयोग करे। इस सिद्धांत का विश्लेषण जमाल बनाम मुल्ला, दाऊद ऐंड कं. वाले मामले में हुआ है। एक समझौते के अनुसार २३,५०० शेयरों के बेचने और ३० दिसंबर, १९११ तक उसे भेजे जाने तथा भुगतान होने की बात तय हुई। शेयर आमंत्रित किए गए लेकिन प्रतिवादी ने उनकी डिलीवरी लेने अथवा पैसे चुकाने से हाथ खींच लिया। अब ऐसे मामलों में समझौतेवाले तथा बाजार के मूल्यों के बीच अंतर ही इसकी पूर्ति का आधार होगा। समझौता भंग वाले दिन शैयरों पर समझौतेवाले मूल्य से १,०९,२१८ रु. कम मिलना चाहिए था। लेकिन २८ फरवरी, १९१२ तक कोई बिक्री नहीं हुई। इस समय बाजार दर बढ़ रही थी अत: शेयरों पर, समझौतेवाले दाम से केवल ७९,८६२ रु. कम मिले। प्रतिवादी का आग्रह था कि हमें केवल ७९,८६२ रु. का ही उत्तरदायी ठहराया जाए। किंतु निश्चित हुआ कि ऐसी क्षतिपूर्तियों की माप, समझौताभंग होनेवाले दिन की बाजार दर और समझौते की दर के बीच का निहित अंतर होना चाहिए। यहाँ बेचनेवाला अपनी क्षतिपूर्ति के लिए उसका भरपूर मूल्य ले सकता है। यदि विक्रेता समझौता-भंग होने के बाद भी उन अंशों को रखता है तो वह खरीदनेवाले से, बाजार दर गिर जाने की अवस्था में, तो किसी प्रकार की अतिरिक्त क्षतिपूर्ति पाने का अधिकारी होगा और न बाजार दर बढ़ जाने की अवस्था में क्षतिपूर्ति की रकम घटा ही सकेगा।

प्रतिवादी द्वारा देय क्षतिपूर्ति का मूल्यांकन मुख्यत: न्यायालय ही करता है। मूल्यांकन न्यायालय के विचारधीन होने की अवस्था में की गई कार्रवाई अगृहीत क्षतिपूर्ति के लिए हुई कहलाती है। किंतु कभी कभी ये समझौतेवाले पक्ष क्षतिपूर्ति की रकम की माँग समझौता भंग करनेवाले व्यक्तियों से करते है। यदि उस तय की हुई रकम का अनुमान संभावित हानि के बिल्कुल बराबर होना ठीक मान लिया गया तो वह अदा की गई क्षतिपूर्ति समझी जाएगी और पूरी रकम ही दोषी पक्ष को देनी होगी। किंतु यदि वह संभावित हानि के बराबर नहीं समझा गया वरन् यह माना गया कि समझौता भंजक को दंड देने अथवा इस प्रकार की गलती का अत्यधिक भुगतान के लिए निश्चित की गई है तो इसे जुर्माने के बराबर समझा जायगा। न्यायालय इससे असहमति रखता है और केवल उन्ही क्षतिपूर्तियों को अनुमति देता है जो वादी की वास्तविक हानि को पूरी करते हों।

पादटिप्पणियाँ -१. अमरीकी मुकदमे वाबे बनाम बैरिगटन में स्थिर। २. लार्ड राइट -लिसे बाश ड्रेज़र बनाम एडिसन एस. एस. १९३३ ए. सी। ३. १८५४ प्र. उदा. ३४१। ४. १८५० ५ उदा० २४३। ५. १८७० एल. आर. ६ सी. पी. १४। ६. १९२१ ३ के. बी. ५६०। ७. १ स्मिथ: प्रमुख मामले (१३वाँ संस्क.) २५३ । ८. १९१५, ४३ आई. ए. ६ या १९१५ ए. सी. १७५। (अवतार सिंह)