क्लोरोफ़ार्म (ट्राइक्लोरोमेथेन , Chloroform, CHCI3) सन् १८३१ में लीबिख (Liebig) और सोबेरियन (Souberian) ने क्लोरोफ़ार्म का आविष्कार किया पर इसके सम्मोहक गुणों की पहचान सिंपसन (Simpson) ने १८४९ ई. में की।
यह भारी (१७० सें. ताप पर आपेक्षिक घनत्व १.४९१) रंगहीन, अज्वलनशील तथा मीठी गंधवाला द्रव है, जिसका क्वथनांक ६२० सें. है। यह अल्प जलविलेय है, पर ऐलकोहल और ईथर में शीघ्र ही विलेय है। यह अच्छा सम्मोहक है और कुछ देर के लिये अचेतना पैदा कर देता है। अत: यह शल्यचिकित्सा में उपयोग होता है।
बड़े पैमाने पर एथिल ऐलकाहल और विरंजन चूर्ण (Bleaching Powder) के आसवन से प्राप्त होता है। समझा जाता है कि पहले ऐलकोहन आक्सीकृत होकर ऐलडीहाइड बनता है और क्लोरीन द्वारा प्रतिस्थापित होकर क्लोरल में परिवर्तित होता है। यह आगे चूने की उपस्थिति में फार्मिक अम्ल और क्लोरोफार्म देता है। एथिल ऐलकोहल के स्थान पर ऐसीटोन का भी उपयोग हो सकता है। अमरीका में अधिक क्लोराफार्म कार्बन टेट्राक्लोराइड के अवकरण से प्राप्त होता है। शुद्ध क्लोरोफार्म क्लोरल हाइड्रेट को क्षार के साथ गर्म करके प्राप्त होता है।
यह प्रकाश और हवा से विघटित होकर क्लोरीन, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा एक विषैली, कार्बोनिल क्लोराइड, उत्पन्न करता है। ओषधि में प्रयुक्त होने वाले क्लोरोफार्म में एक प्रतिशत ऐलकोहल मिलाते हैं और रंगीन बोतलों में गरदन तक भरकर रखते हैं। ( शवमोहन शर्मा)