क्रूज़र नौसेना के उन जलयानों या जहाजों को क्रूज़र कहते हैं जिनकी गति अन्य जहाजों से तेज होती है और उनकी कार्यक्षमता का क्षेत्र काफी विस्तृत होता हैं। ये कम से कम ईधंन का प्रयोग कर दूर तक जाकर लौटने की क्षमता रखते हैं और पर्याप्त शाक्तिशाली तोपों से सुसज्जित और उपयुक्त कवच से सुरक्षित होते हैं। युद्धतोपों की अपेक्षा इनका कवच हल्का और तोपें भी अधिक बड़ी नहीं होतीं; उनकी क्षमता भी उतनी विस्तृत नहीं होती। अत: नौसेना में उनका स्थान युद्धपोतों के बाद ही आता है। ये सँकरे और लंबे होते हैं और युद्धपोतों से जमकर टक्कर लेने में अक्षम होते हैं। साधारणत: इनका उपयोग स्काउटिंग के लिये ही होता है। इनका एकमात्र उद्देश्य अपने शत्रु का पता चलाना, अपने बेड़े को उसकी सूचना देते रहना, शत्रु के वाणिज्यपोतों का नाश करना और अपने वाणिज्यपोतों की रक्षा करना होता है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेशा ले जाने और सुदूर देशों मे अपने देश की ध्वजा का प्रदर्शन भी इन्हीं के द्वारा किया जाता है। जहाँ अन्य जहाज साधारणत: झुंडों में जाते हैं वहाँ क्रूज़र अकेला या एक छोटी टुकड़ी के साथ समुद्री भागों में भ्रमण करता हुआ प्रहरी का कार्य करता हैं। इसलिये इन्हें समुद्री बेड़े की आँख कहा जाता है। संदेशवाहन के लिये अब रेडियों का उपयोग होने लगा है, पर अन्य सभी कार्य क्रूज़र ही करता है।

प्राचीन काल में बड़े बड़े वाणिज्यपोतों और छोटे छोटे क्रूज़रों में बहुत कम अंतर होता था। अमरीका ने वाणिज्यपोतों से ही क्रूज़रों का काम लेना प्रारंभ किया था। १९वीं शताब्दी के अंत तक अमरीकी समुद्री बेड़ा उन्हीं से बना था। शांतिकाल में वह अपने छोटे छोटे क्रूज़रों को सूदूर क्षेत्रों में रखता था, जहाँ अमरीकी राष्ट्रध्वज के प्रदर्शन के अतिरिक्त ये अपने वाणिज्यपोतों की संरक्षा का भी भार उठाते थे। पर ऐसे जहाजों से आक्रमण या संरक्षण कर सकना कठिन था। अत: जब १८८३ ई. में अमरीका ने नौसेना का पुनस्संघटन किया जब क्रुज़रों को उनकी तोपों की शक्ति या उनकी युद्ध में ठहर सकने की क्षमता के कारण नहीं, वरन् उनकी गति के कारण ही महत्व दिया गया। वाष्प इंजनों के आविष्कार के बाद, पालवाले जहाजों के सामने, जिन्हें हमेशा हवा के ही रुख पर निर्भर रहना पड़ता था, इनकी उपादेयता में अपेक्षाकृत वृद्धि हुई साथ ही रणकौशल तथा व्यूहनिर्माण क्षमता में कमी भी आई। कारण, ईधंन के लिये उन्हें उन्हीं बंदरगाहों के समीप रखना आवश्यक हो गया जहाँ कोयला सरलता से उपलब्ध हो सकता था।

जहाँ तक युद्धपोतों की घातक तथा सहन शाक्ति में दिनोंदिन वृद्धि की जाती रही है वहाँ क्रूज़रों के निर्माण में ऐसी किसी भी नीति का अनुसरण नहीं किया गया। केवल उनकी नाप, उनके तोपों के गोलों की नाप तथा संख्या, उनके संरक्षण कवच और उनकी गति में उलटफेर किए जाते रहे हैं।

एक समय था जब सभी राष्ट्र १४,००० टन विस्थापन (displacement) के ही क्रूज़र बनाते थे। बाद में केवल ४,००० टन के क्रूज़र बनने लगे और फिर थोड़े ही समय बाद पुन: ६८,००० टन विस्थापन के बनाए जाने लग। इसका कारण मात्र यह है कि यह निश्चित ही नही है कि क्रूज़र कैसा होना चाहिए। समय समय पर नौसेना की आवश्यकताएँ बदलती रहती हैं फलत: उनमें इच्छित परिवर्तन या सुधार कर दिए जाते है। शुत्र की शक्ति को देखकर जर्मन ड्रेडनॉट (Dreadnought) के उत्तर में ब्रिटेन ने इंन्वसिबुल (Invincible), इन्फ्लेक्सिबुल (Inflexible) और इन्डौमिटेबुल (Indomitable) नामक युद्ध-क्रूजरों का निर्माण किया, जिनका विस्थापन १७,२५० टन था। इनमें आठ बारह इंची तथा सोलह चार इंची तोपें टॉरपिडो पोतों का सामना करने के लिये और साथ ही तीन अठारह इंची पानी में डूबी हुई टारपिडों नलिकाएँ (tubes) भी थीं। संरक्षण कवच के रूप में जो क्रुप इस्पात काम में लाया गया था वह मध्य में तो २ इंच मोटा और सिरों तक ४ इंच मोटा होता था। छत पर थी ३ इंच की मोटी चादर थी और तोप-शिखरिका (turret) पर १० इंच मोटे इस्पात का प्रयोग होता था। इनमें लगे हुए टरबाइन चालक ४१,००० अश्वबल के थे जिनके कारण इनका महत्तम वेग २५ नॉट्स (१ नॉट=१.८५ किलोमीटर प्रति घंटा) तक संभव था। इनके उदर (bunker) में ३,००० टन कोयला रख सकने की क्षमता थी । यह उस तेल के अतिरिक्त थी जो कोयले में छिड़का जाता था। महत्तम वेग से जाते हुए इन क्रूजरों में ५०० टन कोयला और १२५ टन तेल प्रति दिन जलता था। इनके मुकाबले में जर्मनों के ब्लूचर क्रूज़र थे, जिनका विस्थापन १५,५०० टन था और जिनका वेग २४.५ नॉट्स था। उनमें कितनी ही छोटी तोपों के अतिरिक्त, बारह ८.२ इंची और आठ ५.८ इंची तेज गति की तोपें थीं। इसलिये जर्मनों ने २४,३५० टन विस्थापन वाले दो स्लिड्लिट्ज तथा दर्फ्लिङ्गर क्रूज़रों का निर्माण किया, जिनका वेग २७ नॉट और जिनकी आक्रमण क्षमता दस ११ इंची, बारह ५.९ इंची तथा बारह ३.८ इंची तोपों और पाँच टारपिडो नलिकाओं से मालूम पड़ती थी।

इस प्रकार क्रूज़रों के विशालकाय होने पर जापान ने भी कौंगो (Congo) तथा अन्य तीन क्रूज़र बनाए। कौंगों २८,००० टन का था और उसमें आठ १४ इंची, सोलह ६ इंची, सोलह ३ इंची तोपें और आठ टारपीडो नलिकाएँ भी थी। २७ नॉट वेगवाले ये क्रूज़र ४,००० टन कोयला तक अपने गर्भ में ले जाने की क्षमता रखते थे।

प्रथम विश्वयुद्ध में संरक्षण कवच की कमी के कारण ब्रिटिश बेड़े के कितने ही जलयान समुद्र के गर्भ में समा गए। अत: ब्रिटिश ऐडमिरैल्टी ने ४२,१०० टनवाले हूड (Hood) का निर्माण किया, जिनका वेग था ३१ नॉट और जिसमें आठ १५ इंची एवं कितनी ही और तोपें लगी थीं। धीरे धीरे उत्तम रीति से कवचित (armoured) ऐसे क्रूज़रो का प्रादुर्भाव हुआ जो युद्धपोतों से टक्कर ले सकें। इसके साथ ही यह भी आवश्यक हुआ कि गोलों की मोटाई (calibre) में नही बल्कि उन्हें फेंकने की गति में भी वृद्धि हो। चार शिखरिकाओं के लिये आठ या बारह ९ इंची या १२ इंची तोपें पर्याप्त थीं। साथ ही युद्धपोतों से इनकी गति १०-१५ प्रतिशत तेज होना भी जरूरी था। तात्पर्य यह कि क्रूज़रों में आक्रमण शाक्ति की दृष्टि से बारह ९.५ इंच की और ५ इंच की सोलह तोपों का होना आवयश्क माना गया। इनके कवच का डेक में ६ इंच, कमर (belt) में ८ इंच और शिखरिका में १० इंच मोटा होना भी आवश्यक जान पड़ा। यह भी अनुभव किया गया कि उनका वेग ३५ नॉट और कार्यक्षेत्र (radius of action) १५,००० मील हो।

१९२२ ई. की वाशिंगटन संधि में निश्चय किया गया कि क्रूज़रों का कवच ८ इंच का और उनका विस्थापन १०,००० टन से अधिक नहीं होना चाहिए। निदान १९३०-३७ ई. तक अमरीका ने इसी मान के सोलह जहाज बनाए पर वे सफल सिद्ध नहीं हुए। तब ऐल्यूमिनियम का प्रयोग होने लगा ओर साथ ही दस ८ इंची तोपों के अतिरिक्त चार ५ इंची वायुयान विध्वंसी (anti-aircraft) तोपें और छह २१ इंची टारपिडो नलिकाएँ भी आवश्यक मानी गई। इनके इंजनों का अश्वबल १,०७,००० और इनका वेग ३२.७ नॉट ठहराया गया। इस समय ब्रिटेन के पास १०,००० टन के तोपोंवाले १३ जहाज थे, जिनका वेग औसतन ३१ नॉट था। द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीका ने वॉरसेस्टर (Worcester) ढंग के हल्के १४,७०० टन विस्थापनवाले क्रूज़रों का निर्माण किया, जिनमें १२ द्विधर्मी (double purpose) और छह अन्य तोपें थी एवं तोपें शिखरिकाओं में लगाई गई थीं। साथ ही तीन भारी क्रूज़र भी बनाए जिनमें स्वचालित तीव्र गतिवाली तोपों के साथ ही आठ इंची तोपें भी लगी थीं। हाथ से चलाई जानेवाली तोपों की अपेक्षा स्वचालित तोपें चौगुनी शीघ्रता से काम करती हैं। इन तोपों के अतिरिक्त ३२ अन्य तोपें और २० मिलीमीटर की कई मशीनगनें भी उनमें लगी थीं। उनका वेग ३० नॉट था। अब तो अमरीका ने चालित (guided) टेरियर (Terrier) प्रक्षेपास्त्रों (missiles) से सुसज्जित क्रूज़र भी तैयार किए हैं। यू. एस. एस. कैनबरा इसी ढंग का क्रूज़र है, जो अपनी सौहार्द्र भावना लेकर भारतीय बंदरगाह कोचीन में सन् १९६० में आया था।

भारतीय नौसेना का इतिहास सन् १६१२ ई. से प्रारंभ होता है। उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंडियन मैरिन की स्थापना की और सन् १६८६ ई. में इसी का नाम बंबई मैरीन कर दिया गया। सन् १८९२ में इसको रायल इंडियन मैरीन के नाम से विभूषित किया गया। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद ५ जुलाई, सन् १९४८ में भारत ने ग्रेट ब्रिटेन से पहला क्रूज़र दिल्ली खरीदा, जिसका पुराना नाम एच. एम. एस. एकिलेस था। उसने द्वितीय महायुद्ध में जर्मन बेड़े को हराया था। इसका विस्थापन ७,०३० टन (पूरे वजन के साथ ९,७४० टन),लंबाई ५०० फुट से अधिक और कवच एक इंच से चार इंच तक मोटा है। इसमें छह ६ इंची, आठ ४ इंची और पंद्रह ४० मि. मी. की वायुयान विध्वंसक तोपें तथा आठ २१ इंची नलिकाएँ लगी हुई हैं।,

२९ दिसंबर, १९५७ ई. को भारतीय नौसेना ने एक दूसरा क्रूज़र (जो नाइजीरिया के नाम से प्रसिद्ध था) ग्रेट ब्रिटेन से खरीदा। तभी मैसूर जहाज को भारतीय नौसेना का ध्वजपोत बना दिया गया। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में यह हमारी शक्ति और हमारी कार्यक्षमता का ही प्रतीक नहीं हैं, वरन् हमारे देश के गौरव को भी इंगित करता है। मैसूरका विस्थापन ८,७०० टन (पूरे भार के साथ ११,०४० टन) है और लंबाई ५५० फुट के लगभग। इसकी तोपें अधिक वेगवाली तथा चौड़ी हैं। (गोविंदवल्लभ र्पेत)