क्रीलोव, ईवान एंड्रिविच (१७६८-१८४४ ई.)। रूस का राष्ट्रीय गल्पकार। इसका जन्म १४ फरवरी, १७६८ ई. को मास्को में एक सैनिक के घर हुआ था। पिता की मृत्यु के पश्चात् वह १७७९ ई. में माँ के साथ सेंट पीतर्सबर्ग (लेनिनग्राद) चला आया और वहाँ १७८८ ई. तक एक सरकारी नौकरी करता रहा। उसने १७८३ ई. से ही लिखना आरंभ कर दिया था। १७८४ ई. में उसने काफी की दूकानवाला शीर्षक एक आपेरा (गीति-नाट्य) लिखा था जो १८६८ तक अप्रकाशित रहा। उसने क्लियोपेट्रा (१७८५ ई.) और फिलोमेला (१७८६ ई.) नामक दो दु:खांत नाटक लिखे; जिनमें से पहले का तो अब पता भी नहीं हैं। १७८९ ई. में पोचादुखोव (भूत की डाक) नाम से एक मजाकिया मासिक पत्रिका प्रकशित की। १७९२ ई. उसने उसी ढंग की एक दूसरी पत्रिका निकाली जो बाद में सेंट पीतर्सबर्ग मरकरी नाम से प्रख्यात हुई। १८०१ ई. में उसने एक पिरॉग नामक नाटक लिखा जो सेंट पीतर्सबर्ग में अभिनीत हुआ। पर उसके इन सभी प्रयासों का उसकी ख्याति में कोई स्थान नहीं हैं। उसे जिन रचनाओं के लिये ख्याति प्राप्त है, वे सब उसकी ३७ वर्ष की आयु के बाद की हैं। १८०५ ई. में उसने ला फौंतेन के दो गल्पों के अनुवाद दिमित्रीव को दिखाए जिन्हें उन्होंने बहुत पसंद किया। इससें उसे प्रोत्साहन मिला। १८०८ ई. में उसने १७ गल्प प्रकाशित किए जिनमें अधिकांश मौलिक थे। १८०९ ई. में उसके फेबेल्स का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ जिनमें २३ गल्प थे। इन गल्पों में उसने रूसी प्रबुद्धवर्ग के फ्रांसीसी वस्तुओं के अंधानुकरण का मजाक उड़ाया था। तभी उसे राज-परिवर का संरक्षण प्राप्त हुआ। १८११ ई. में वह रूसी अकादमी का सदस्य मनोनीत हुआ और १८२३ ई. में अकादमी ने उसे स्वर्णपदक प्रदान किए। उसके बाद तो उसके पास सम्मानों के ढेर लग गए। ९ नवंबर, १८४४ ई. को उसकी मृत्यु हुई।

रूसी जनता को गल्पकार सदा से प्रिय रहे हैं और क्रीलोव तो उनके गल्पकारों में महत्तम था। ला फौंतेन के अनुवादों में भी उसकी अपनी निजी विशिष्ट शैली की अभिव्यक्ति है। सरकारी नौकर होते हुए भी उसने अपनी रचनाओं में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा है। सरकारी अहलकार प्राय: उसके चुहल के पात्र रहे हैं। क्रीलोव के गल्प ग्रामीणों जैसी सरल भाषा में लिखे गए हैं; उनमें नित्य प्रति के जीवन की अकर्मण्यता, गंदगी, लालच आदि की चुटकी ली गई है। क्रीलोव की रचनाओं का वृहद् संग्रह सेंट पीटर्सबर्ग से १८४४ ई. में प्रकाशित हुआ था। (परमेश्वरीलाल गुप्त)