क्रियोसोट (Creosote) प्राय: पूर्णतया भिन्न दो पदार्थों, कोयला-अलकतरा- क्रियोसोट और काठ-अलकतरा-क्रियोसोट, को क्रियोसोट कहा जाता है। व्यापारिक क्षेत्रों में क्रियोसोट का अभिप्राय कोयला-अलकतरा-क्रियोसोट ही समझा जाता है। यह अलकतरे के आसवन से प्राप्त हाइड्रोकार्बन-बहुल, अनेक कार्बनिक यौगिकों का संकीर्ण मिश्रण होता है। औषध के सम्बन्ध में क्रियोसोट का अर्थ सदैव काठ-अलकतरा-क्रियोसोट ही लिया जाता है। यह काठ-अलकतरे के आसवन से प्राप्त फीनोलीय यौगिकों का मिश्रण होता है।
कोयला-अलकतरा-क्रियोसोट-अलकतरे के आसवन से भिन्न-भिन्न तापों पर विभिन्न गुणवाले पदार्थ निकलते हैं, जैसा आगे दिखाया गया है:
हलका तेल बहुत थोड़ा निकलता है, जो उसी रूप में स्वच्छ करके विलायक नैफ्था बना लिया जाता है। कार्बोलिक अम्ल भाग १७०० से २३०० सें. के बीच में और अपरिष्कृत अलकतरा-क्रियोसोट भाग २३०० सें. (या २००० सें.) से ऊपर डामर निकलने के ताप ३००० सें. (या ३६०० सें.) तक प्राप्त होता है। कार्बोलिक या मध्यम तेल में २५ प्रतिशत अलकतरे के अम्ल होते है यथा, फीनोल, क्रिसोल, ज़िलोनोल तथा अन्य उच्च क्वथनांकवाले अलकतरा अम्ल। ये अम्ल कभी कभी तो अलग कर लिए जाते हैं, किंतु बहुधा केवल नैफ्थेलीन ही निकालकर शेष पदार्थ क्रिसिलिक क्रियोसोट के नाम से बेच दिया जाता है। यह जीवाणुनाशक पदार्थ बनाने के काम आता है। १८०० सें. १९०० सें. के बीच आसवन से प्राप्त अंश भारी नैफ्था कहलाता है।
अपरिष्कृत अलकतरा----क्रियोसोट (आपेक्षिक घनत्व १.०३) आसवन से प्राप्त मुख्य पदार्थ हैं। अधिकांश बिना साफ किए ही काष्ठप्रतिरक्षक (wood preservative) के रूप में बिकता है। कभी-कभी २७०० सें. से ऊपर निकलनेवाला अंश, ऐंथ्रासीन तैल, अलग कर लिया जाता है, जिससे ऐंथ्रासीन और कार्बाज़ोल प्राप्त होते हैं। ये रंजकनिर्माण में काम आनेवाले आवश्यक कच्चे माल हैं। अलकतरा-क्रियोसोट में भी फीनोल इत्यादि अलकतरा अम्लों के कुछ अंश रहते हैं, जो आवश्यक होने पर निकाले जा सकते हैं।
क्रियोसोट अद्वितीय सस्ता काष्ठपरिरक्षक है। काष्ठ का क्षरण करनेवाले कवक (fungus) नामक कुछ विशेष परजीवी होते हैं, जो लकड़ी को ही अपना भोजन बनाते है। काठों को सब से अधिक हानि दीमक से पहुँचती है। लकड़ी छेदनेवाले पोतकीट आदि कुछ सामुद्रिक जीव (marine animals) भी होते हैं जो गरम समुद्रों में तो अधिक सक्रिय होते ही हैं, ठंढे समुद्रों में भी भीषण क्षति पहुँचाते हैं। क्रियोसोट से उपचार करने पर क्षरण रुक जाने से लकड़ी का जीवन बढ़ जाता है। उसकी पुष्टता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
लकड़ी का सर्वोत्तम उपचार दाब विधि से होता है। पूर्ण कोशिका या बीथेल विधि (Bethel Process) में बड़े बड़े पीपों में लकड़ी को बंदकर उन्हें निर्वात कर देते है जिससे लकड़ी की कोशिकाओं में आंशिक शून्यता उत्पन्न हो जाती है। फिर ९००-९५० सें. तक गरम किया हुआ द्रव क्रियोसोट पीपों में भरकर १९० पाउंड प्रति वर्ग इचं तक दाब बढ़ाया जाता है। लकड़ी की कोशिकाओं में क्रियोसोट का अपेक्षित अवशोषण हो जाने पर शेष द्रव निकाल लिया जाता है और पीपे पुन: निर्वात कर दिए जाते हैं, जिससे चूसा हुआ द्रव भली-भाँति सूख जाय। इस प्रकार उपचार हो जाने पर लकड़ी निकाल ली जाती है। दाब की अन्य विधि यह है कि रिक्त कोशिका या रूपिंग विधि में पीपों को निर्वात करने के स्थान पर उनमें २५-७५ पाउंड प्रति वर्ग इंच पर हवा भरी जाती है, फिर क्रियोसोट भरा जाता है। शेष विधि बीथेल विधि के समान ही है।
उपचार की अन्य विधि तप्त-शीत-मज्जन (Hot-cold bath) उपचार की भी है। इसमें लकड़ी को क्रियोसोट से भरी टंकी में ९००-११०० सें. तक गरम करते हैं, जिससे लकड़ी के भीतर की कुछ हवा फैलकर निकल जाती है। फिर टंकी लगभग ३५० सें. तक ठढी की जाती है, जिससे लकड़ी की कोशिकाओं में आंशिक शून्यता उत्पन्न होने से द्रव भीतर प्रविष्ट होता है। इसे खुली टंकी विधि भी कहते हैं। कभी-कभी गरम क्रियोसोट में कुछ देर तक लकड़ी को डुबोकर ही काम चलाया जाता है, किंतु इस विधि से द्रव का प्रवेश अधिक नहीं होता। भारी क्रियोसोट तल, जिसे ऐंथ्रासीन तैल या हरा तैल भी कहते हैं (क्वथनांक २७० सें., आपेक्षिक घनत्व १.०८), ब्रश से ही लगाया जाता है।
विभिन्न मिश्रणवाले क्रियोसोटों के काष्ठप्रतिरक्षक गुण भी अलग अलग होते हैं। परीक्षणों से सिद्ध हुआ है कि निम्न क्वथनांक तथा उच्च क्वथनांकवाले दोनों क्रियोसोटों का संतुलित मिश्रण ही उत्तम प्रतिरक्षक होता है। लकड़ी के उपयोग के अनुसार ही उसमें अविशिष्ट क्रियोसोट की मात्रा रखी जाती है। यथा-इमारत में लगनेवाली लकड़ी में ८ पाउंड, तार के खंभों में ८-१२ पाउंड, लट्ठों, में १६-२४ पाउंड और रेलवे स्लीपरों में ६-१० पाउंड प्रति घनफुट।
अलकतरा-क्रियोसोट का उपयोग भेड़ो के ऊन के प्रतिरक्षक, विलयन, पौधों पर छिड़कने के लिये विलयन, बिटुमेन के विलयन, कारों की धुरी की ग्रीज (चूने के साथ मिलाकर) तथा कज्जल स्याही बनाने में, ईंधन (अकेला या अन्य द्रवों के साथ मिलाकर) और अंतर्दह इंजन के लिये डीज़ल ईंधन के रूप में होता है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय इसका उपयोग किया गया था।
काठ-अलकतरा-क्रियोसोट-यह कठोर काष्ठ (बहुधा बीच वृक्ष की लकड़ी) के अलकतरे के आसवन से प्राप्त तैलों का विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ क्षार में विलेय अंश होता है। यह २०३०-२२० सें. पर आसुत होता है।
इसमें अधिकांश मोनोहाइड्रिक (फीनोल, क्रिसोल तथा ज़िलेनोल) और डाइहाइड्रिक फीनोलों (ग्वायकोल) के मेथिल ईथर मिले रहते हैं। बीच-काष्ठ के क्रियोसोट का किसी समय औषधनिर्माण में बहुत उपयोग होता था। औषध के रूप में इसका कुछ कुछ उपयोग श्वास के दोषों (दमा आदि) के उपचार में आजकल भी होता है।
सं.ग्रं.- दि वेल्थ ऑव इंडिया: इंडस्ट्रियल प्रॉडक्ट्स, भाग २,सी. एस. आई., आर., दिल्ली; एन. चौधरी: इंजीनियरिंग माटीरियल्स; इंडियन स्टैंडर्ड स्पेसिफ़िकेशन २१८ (१९५२)। (विश्वंभरप्रसाद गुप्त)