क्रव्यदंत (Creodonta)
एक प्राचीन पशु-वर्ग। इस वर्ग के जंतु आज के मांसभक्षी पशुओं के पूर्वज
समझे जाते हैं। यही इस जाति के जीवों की विशेषता है। ऐसा प्रतीत होता है कि
इस वर्ग के जीवों का एक अलग ही वंश था, जो क्रिटेशस और पेलियोसीन युगों के
कीटाहारियों की पहली शाखा में थी। क्रव्यदंत विकास की प्रारंभिक दशा में
थे और कीटाहारियों के समान ही वे आकार में भी छोटे थे। इसी प्रकार यह भी
कहा जा सकता है कि मांसभक्षी पशुओं के विकास की परंपरा में ये क्रव्यदंत
निम्नतम स्थिति में थे। मांसभक्षण का स्वभाव उनके दाँतों तथा शारीरिक रचना
के क्रमिक विकास से प्रकट होता है।
मांसभक्षण
ही इस जाति के पशुओं की विशेषता है, परंतु इन आदि क्रव्यदंतों में मांस
काटने के दाँत नहीं होते थे। इनके दाँतों की पंक्तियाँ प्रथम प्रिमोलर (Premolar)
और अंतिम मोलर को छोड़कर इसके चीर फाड़ करनेवाले दाँतों का विकास हो गया है
और वे अन्य क्रव्यदंतों तथा इसके पूर्वज कीटाहरी प्राणियों के इसी प्रकार
के दाँतों के सदृश तथा सरल नहीं रह गए हैं। प्राय: पूर्ण विकसित थीं।
कालांतर में इनके दाँतों की बनावट में विभिन्नता होने लगी और कुछ कुत्ते के
चीरफाड़ करनेवाले केनाइन दाँत की भाँति बड़े और नुकीले होने लगे। इन प्राचीन
क्रव्यदंत मांसभक्षियों की दंतरचना मूलत: प्राचीन कीटभक्षियों की भाँति
मिलती थी (देखें चित्र २)। कोप तथा मैथ्यू नामक विशेषज्ञों के मतानुसार
पेलियोसीन (Palecocene) तथा इयोसीन (Eocene) युगों के माइसिडी (Mysidae)
जंतु क्रव्यदंत के ही परिवार के थे। इन्हीं दोनों के अनुसार माइसिडी
व्याघ्र परिवार (जैसे बिल्ली, बनबिलार, कस्तूरी इत्यादि) के जंतुओं और
कुत्ता परिवार (जैसे कुत्ता, भालू, भेड़िया इत्यादि) के प्राणियों से इनक
उद्गम हुआ। इस प्रकार नुकीले दाँतवाले आधुनिक मांसभक्षी वर्ग के जंतुओं के
पूर्वज पेलियोसीन युग के क्रव्यदंत ही हैं। ये छोटे मांसभक्षी जीव छोटी-छोटी
झाड़ियों या जंगलों में रहते थे। अपने शिकार की खोज में तथा अपनी रक्षा के
लिए ये पेड़ों भी चढ़ जाते थे। इनमें कुछ मांसभक्षी, कुछ सर्वभक्षी और कुछ
कीटभक्षी थे। सड़ा गला मांस खानेवाले इन क्रव्यदंतों में से कुछ का मस्तिष्क
बहुत ही छोटे आकार का था और उनकी समझदारी भी निम्नतम अवस्था में थी।
समझदारी का अभाव इस श्रेणी के शीघ्र नष्ट हो जाने का एक कारण हो सकता है।
१. में डेल्थेरियम नामक कीटभक्षी का चौथा तथा उसके बाद के तीन चर्वणदंत; २. में मेज़ोनिक्स नामक प्रादिनूतन (Eocene) युग के क्रव्यदंत तथा ३. में डिस्साप्सैलिस नामक अतिनूतन (Pliocene) युग के हाइनोडॉन (Hyaenodon) क्रव्यदंत की पूर्वोक्त क्रम में दंतरचनाएँ; ४. में वल्पैवस (Vulpavus) नामक प्रातिनूतन युग के माइऐसिडी (Miacidae) कुलवाले क्रव्यदंत; ५. में आदिनूतन (Oligocene)
युग के आर्कटोथीरियम नामक भालू तथा ६. में इसी युग के हेस्पेरोसिऑन नामक
कुत्ते के सदृश क्रव्यदंत के चौथे तथा उसके बाद के दो चर्वणदंत; ७. में
अतिनूतन युग के लकड़बग्धे का एक चर्वणदंत तथा उसके पहले के तीन दाँत और ८.
में प्रातिनूतन (Pleistocene) युग के बड़े दाँतेवाले बिल्ले का चौथा प्रथम चर्वणदंत दिखाया गया हैं।
क्रव्यदंतों का विभाजन निम्नलिखित तीन उपवर्गों में किया गया है :
- प्रोक्रियोडी
(Procreodi)
इन्हें आर्कटोसियोनियोडेई
(Arctocyoniodae)
भी कहते है। ये
टर्शरी युग के
क्रव्यदंत हैं, जो
पेलियोसीन
युग में अपनी संख्या
की चरम सीमा
पर पहुंच गए
थे। इसके बाद इनकी
संख्या तेजी से
घटने लगी फिर
भी इयोसीन युग
त्रक ये विद्यमान
रहे। यूरोप
के पेलियोसीन
युग के ऊपरी
तहों के आर्कटोसियोन
(Arctocyon)
आजकल के रीछों
के समान (इन्हें
रीछों का पूर्वज
या संबंधी कदापि
नहीं समझा जा
सकता ) है। रीछों
के साथ केवल
इनके कामों का
ही सादृश्य है। इनके
अँगूठों में खुर
थे और इनके
दाँतों की रचना
भी अत्यंत सरल
थी।
- ऐक्रियोडी
(Acreodae),
जिसे मेसोनिकिडी
(Mesonychidae)
की भी संज्ञा दी
गई है, क्रव्यदंतों
की दूसरी जाति
है। इस जाति के
क्रवयदंतों में
बड़े आकार में
विकसित होने
का भी आभास प्रतीत
होता है। इनके
दाँतों की रचना
में भी अब विशेषता
दिखाई पड़ती
है। इनके दाँत
चीरफाड़ के उपयुक्त
नहीं होते थे,
परंतु इनके
दाढ़ के दाँतों
में एक विशेष प्रकार
के कुंद दिखाई
पड़ते हैं, जिनकी
सहायता से इस
उपवर्ग के प्राणी
अपने शिकार तथा
उनकी हड्डियों को
बहुत सरलता
से तोड़ते और
चबाते थे। इनके
पैर भेड़ियों
के समान थे, जिनमें
उँगलियाँ दूर
दूर थीं और
नाखून चिपटे
थे। इनमें आजकल
के लकड़बग्घों की
भाँति पंजे नहीं
थे, वरन छोटे-छोटे
खुर थे। मेसोनिकिडी
उपवर्ग के इन क्रव्यदंतों
का महत्व उनके विशिष्ट
आकार के कारण
है। मंगोलिया
का अंतिम ऐक्रियोडी
क्रव्यदंतों में
सबसे दीर्घायु
था। इसकी खोपड़ी
तीन फुट से भी
अधिक लंबी थी।
- स्यूडोक्रियोडाई
(Pseudocreodi)
क्रव्यदंतों की
तीसरी जाति
है। चीरने फाड़नेवाले
दाँत इनकी विशेषता
हैं। दूसरे जानवरों
पर आक्रमण करके
ये जीवन निर्वाह
करते थे। इनकी
शरीर रचना
इस कार्य के लिये
विशेष रूप से
अनुकूल थी। विकास
की प्रारंभिक
अवस्था में ही यह
उपवर्ग दो-शाखाओं
ऑक्सीनिडी (Oxyaenidae)
तथा हाइनोडोंटिडी
(Hyaenodontedae)
में बँट गया था।
इन दोनों शाखाओं
के क्रव्यदंतों
में केवल इतना
अंतर था कि प्रथम
श्रेणी के क्रव्यदंतों
के ऊपरी भाग
का प्रथम मोलर
तथा निचले भाग
का दूसरी मोलर
दाँत अब पूर्ण
रूप से काटने
के लिये बन गए।
इसी प्रकार दूसरी
श्रेणी के क्रव्यदंतों
में ऊपरी भाग
के दूसरे मोलर
और निचले जबड़े
में तीसरे मोलर
काटने के काम
आने लगे थे। पेलियोसीन
युग में इस जाति
के क्रव्यदंतों
का विकास अपनी
पराकाष्ठा पर
पहुँच गया था,
परंतु इसके
पश्चात ही इनका
्ह्रास तीव्र गति से
प्रारंभ हुआ। इस
जाति के प्राणियों
के जीवित रहने
के चिह्न हमें
इयोसीन युग
में भी मिलते
हैं। इस जाति के
क्रव्यदंत अति प्राचीन
शफ वर्ग या खुरवाले
प्राणियों के
शिकार पर जीवन
निर्वाह करते
थे। इन ‘शफ’
वर्ग के प्राणियों
के समाप्त होने
पर क्रव्यदंतों
की यह वंशशाखा
भी धीरे-धीरे
लुप्त हो गई और
एलिगोसीन में
तो इन क्रव्यदंतों
के स्थान पर इनसे
मिलते जुलते
नए जीवन का प्रादुर्भाव
हो गया था, जिन्हें
फिसिपेड (Fissiped)
कहते हैं। इनमें
जीवन रचना
उच्च श्रेणी की थी,
किंतु ये भी छोटे
आकार के थे और
अपने पूर्वजों
के समान मांसभक्षी
स्वभाव और आकार
के थे। इन पुश्तैनी
रूपों से परिस्थितियों
के अनुसार अपने
में परिवर्तन
करते-करते
कालांतर में
मांसभक्षियों
की अनेक शाखाएँ
हो गईं। (धर्मेद्रनाथ
वर्मा)