कौल तांत्रिक उपासना का विशिष्ट साधक। इस शब्द की व्युत्पत्ति कुल शब्द से है। कुल शब्द का सांकेतिक अर्थ तंत्रग्रंथों में अनेक प्रकार से किया गया है-(१) भास्कर राय की समिति में कुल का अर्थ है सजातीय समूह अर्थात, ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान का सामरस्य। चिद्गगन चंद्रिका के रचयिता कालिदास इसी मत के पोषक हैं-मेयमातृमिति लक्षणं कुलं प्रांततो ब्रजति यत्र विश्रमम् अर्थात जिस साधक की दृष्टि में मेय (ज्ञान का विषय), माता (प्रमाता) तथा मिति (ज्ञान की क्रिया) तीनों वस्तुएँ विश्राम को प्राप्त करती हैं, वहीं कौल कहलाता है। इस विश्लेषण के अनुसार कौल शक्ति का पूर्ण अद्वैत भावापन्न साधक हैं जिसकी दृष्टि कर्दम तथा चंदन में, शत्रु और प्रिय में, श्मशान तथा भवन में, कांचन तथा तृण में किसी प्रकार का भेद नहीं देखती (भाव चूड़ामणि तंत्र), (२) स्वच्छद तंत्र के अनुसार कुल शक्ति का वाचक है तथा अकुल शिव का बोधक है। जो साधक योग की विशिष्ट क्रिया के द्वारा मूलाधार में स्थित होनेवाली कुंडलिनी शक्ति का अभ्युत्थान कर सहस्रार में स्थित शिव के साथ सम्मेलन कराता है, वही कौल कहलाता है-

कुलं शक्तिरिति प्रोक्तमकुलं शिव उच्यते।

कुलेऽकुलस्य संबंध: कौल इत्यभिधीयते।।

प्राचीन काल में कौलों के अनेक संप्रदाय भारतवर्ष में, विशेषत: पूर्वी प्रांतों में फैले हुए थे जिनमें से कुछ के नाम कौल ज्ञाननिर्णय के अनुसार रोमकूपादि कोल, वृष्णोत्थ कोल, व्ह्र कौल, पदोत्थित कौल, महाकौल, सिद्धकौल, योगिनी कोल आदि हैं। इस ग्रंथ में सुप्रसिद्ध चौरासी सिद्धों में से अन्यतम सिद्ध मत्स्येंद्रनाथ का संबंध योगिनी कौल से स्वीकार किया गया है। कौल संप्रदाय का प्रधान पीठ कामाख्या क्षेत्र (असम राज्य का मुख्य तीर्थ) था जहाँ से इसका प्रचार भारतवर्ष के अन्य प्रांतों में, विशेषत: कश्मीर में हुआ। नाथ संप्रदाय का स्पष्ट संबंध कौल मत से माना जाता है। गोरखनाथ जैसे प्रख्यात हठयोगी तथा अभिनवगुप्त जैसे आचार्य कौल मत के ही अंतर्गत थे। (बलदेव उपाध्याय)