कौख, रौबटर् (१८४३-१९१० ई.) जर्मन जीवाणु अन्वेषी। इनका जन्म ११ दिसंबर, १८४३ ई. को हैनोवर नगर में हुआ था। गौटिंजेन विश्वविद्यालय में चिकित्सा का अध्ययन किया और १८६६ ई. में डाक्टरी की उपाधि प्राप्तकर उन्होंने पूर्वी दशा के एक ग्राम में चिकित्सा का कार्य आरंभ किया; परंतु उनकी रु चि अनुसंधान कार्य में अधिक थी। उन्होंने जीवाणुओं को रँगना, उनके वंश की वृद्धिकर उनकी कॉलोनी उत्पन्न करना; केवल एक जीवाणु की शुद्ध कॉलोनी उत्पन्न करना; तरल पदार्थ की लटकती हुई बूँद में सूक्ष्मदर्शी के द्वारा जीवाणुओं की गति को देखना ; कैमेरा द्वारा जीवाणुओं का चित्र खींचना आदि विषयों का अनुसंधान किया। उनका कहना थाकि किसी जीवाणु को किसी रोग का कारण मानने के पूर्व आवश्यक है कि रोगी के शरीर से जीवाणु को प्राप्तकर उसके वंश की वृद्धि की जाय और फिर उस जीवाणु को किसी जानवर के शरीर में प्रविष्ट कर उस जानवर में वही रोग उत्पन्न किया जाए और तब उस जानवर के शरीर के उस जीवाणु को पुन: प्राप्त किया जाए।
१८७६ ई. में ब्रेसलॉ में प्रोफेसर कोन के संमुख उन्होंने ऐं्थ्रावैस के जीवाणु का प्रदर्शन किया। १८८० ई. में जर्मन सरकार ने उनको बर्लिन में अनुसंधान करने की सुविधा प्रदान की। १४ मार्च, १८८२ ई. को बर्लिन में फ़िज़िओलॉजिकल सोसायटी की सभा में उन्होंने तपेदिक के जीवाणुओं का प्रदर्शन किया। १८८३ ई. में ये हैजे के जीवाणु का पता लगाने मिस्र गए और कुद समय पश्चात् इसी जीवाणु पर अनुसंधान करने के लिये वे कलकत्ता आए। इन्होंने तपेदिक के विष ट्यूबरकुलिन (Tuberculin) के द्वारा तपेदिक की चिकित्सा करने का भी प्रयास किया।
इनके शिष्यों में लोफलर ने डिफ्थीरिया के जीवाणु का, गैफकी ने आंत्रज्वर (टायफायड) के जीवाणु का, फेहलिसेन ने एरिसिपेलैस (Erysipelas) के जीवाणु स्ट्रेप्टोकॉकस (Streptococcus) का तथा गारे ने कार्बकल (Carbuncle) के जीवाणु स्टैफ़िलोकॉकस (Staphylococcus) का पता लगाया।
१८८० ई. में कौख बर्लिन के इंपीरियल बोर्ड ऑव हेल्थ के सदस्य बनाए हुए। १८८५ ई. में वे बर्लिन विश्वविद्यालय में अध्यापक हुए और हाइजीन इंस्ट्यूिट के अध्यक्ष बने। १८९१ ई. में संक्रामक रोगों के इंस्टिट्यूट के अध्यक्ष बनाए गए। १९०५ ई. में उन्हें चिकित्सा शास्त्र पर नोबेल पुरस्कार मिला। २८ मार्च, १९१० ई. को उनकी मृत्यु हुई।
(शिवनाथ खन्ना)