कोर्बे (कूर्बे) (१८१९-७७) क्रांतिकारी चित्राचार्य। पेरिस की नागरिक सत्ता से दूर ओरनान के एक जनवादी क्रांतिकारी वंशपरंपरा के किसान परिवार में १९१९ में उनका जन्म हुआ था और चित्रकारिता के केंद्र पेरिस में उनमें प्रांतीय बोधात्मा का प्रवेश हुआ। आरंभ में ही जब वह चित्रकला सीखने के लिये एक जाने माने आचार्य के पास भेजे गए और आचार्य ने उनके सामने परंपरा के अनुसार नारी के मॉडल की अनुकृति बनाने के लिये दिया तब उन्होंने ऐसी अनुकृति बनाने से इनकार कर दिया और कहा कि नारी का सुंदर चित्र बनाना कला का गौरव नही, मात्र फूहड़ रूढ़िवादिता है। और जीवन भर कोर्बे ने अपना यह दृष्टिकोण बनाए रखा। उन्होंने अपने इस नए व्यक्तित्व के संदर्भ में अपना शिक्षण अपने आप किया तो इससे पेरिस की परंपरा को एक धक्का तो लगा, पर इससे उसे देहात की ताजगी भी मिली; उस एक यर्थाथवादी दृष्टिकोण मिला। प्रकृतित: वह स्वयं कुछ मात्रा में रोमैंटिक था, पर उसने उस आंदोलन की काल्पनिक परिधि छोड़ यथार्थ के परिवेश में प्रवेश किया; उसने घोषित किया-चित्रकला का अस्तित्व कलाकार द्वारा साकार तथा गोचर पदार्थो के रूपायन में ही हो सकता है।
‘ओरनान का भोजोत्तर समूह’ नामक उसके चित्र पर उसे पदक मिला और इस माध्यम से उसका प्रवेश पेरिस के सलून में हुआ। इस प्रवेश के साथ ही उस संघर्ष का आरंभ हुआ जिसे कोर्बे ने सलून के सत्ताधारियों के साथ आजीवन जारी रखा। कोर्बे की सक्रियता चित्रकारिता तक ही सीमित नहीं रही, उसने राजनीति में भी खुलकर भाग लिया और १८४८ को फ्रेंच राज्यक्रांति में उसका स्पष्ट योग था। अपनी राजनीतिक विचारधारा के स्वरूप उसने पत्थरफोड़ (१९४९) जैसे चित्रों का चित्रण किया, जो वस्तुत: जीवन की चित्रत: व्याख्या थे, सामाजिक समीक्षा। यथार्थवादी चित्रों के अतिरिक्त उसने समकालीन स्टूडियों में बननेवाले नग्न अभिप्रायों की परंपरा में भी कुछ चित्र बनाए जो उस परंपरा पर कसे गए व्यंग्य हैं। इस व्यंग्यचित्रण की परंपरा में बनाए उसके चित्र स्नाता (१८५३) में नहाती नग्न नारी को देख एक समीक्षक ने टिप्पणी की कि यह जीव तो ऐसा है कि इसे मगर तक खाना पसंद न करेगा। कोर्बे की कृतियों में स्वाभविक रूप से कुछ अंशों में अहंकार का भी समावेश हो गया था।
कोर्बे के क्रांतिकारी दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप १८५५ ई. में जब सार्वभैमिक प्रदर्शनी (एक्सपोज़िशन युनिवर्सल) के अवसर पर उसे सलून में स्थान नहीं मिला तब उसने अपनी अलग प्रदर्शनी की। अपने नए स्टूडियों में उसने ऐसे चित्रों को सराहा जो दीन जनता और पेरिस के अभिजात्यों के विरोधी भावों के पोषक थे फिर भी उसके चित्रों में रोमैंटिक भावना की कमी न थी। उसके दोनों ही प्रकारों के प्रसिद्ध चित्र निम्नलिखित हैं : ओरनान का दफन (१८४९), देहात के प्रणयी (१८४५), चमड़े के कटिबंधवाला आदमी (१८४९), ब्रूया से मुलाकात (१८४५)।
जब १८७१ ई. में जर्मन विजय और फ्रेंच आत्मसमर्पण को चुनौती देकर पेरिस के सर्वहाराओं ने पेरिस पर अधिकार किया और जनता के शत्रुओं ने नगर की सड़कों के मोर्चों पर जनवादी लड़ाई लड़ी तब कोर्बे ने उसमें भी सक्रिय भाग लिया। इसका मूल्य उसे अपने सर्वनाश के रूप में चुकाना पड़ा। वह कैद कर लिया गया। बंदी जीवन में ही उसने अपने प्रसिद्ध पुष्पचित्र चित्रित किया। शीघ्र ही वह देश से निकाल दिया गया। प्रवास में ही स्विज़रलैंड में, १८७१ ई. में कोर्बे का देहांत हुआ। (पद्मा उपाध्याय)