कोच राजवंश सोलहवीं शती ई. के आरंभ में विशु (विष्णु) नामक एक पराक्रमी व्यक्ति ने विश्वंसह नाम धारण करके आसाम के कतिपय भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। यही विश्वसिंह कोच वंश के संस्थापक हुए। करतोया नदी से बर्नाद्वीप तक के सारे भूभाग पर उनका अधिकार था। उन्होंने नीलांचल पर्वत पर कामाख्या देवी के मंदिर का पुनरुद्वार कराया और उसी समय से उनकी उपासना प्रचलित हुई।
उन्होंने कूचबिहार को अपनी राजधानी बनाया। १५३३ ई. में उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके लड़के मल्लदेव नरनारायण के नाम से राजा बने। वे अपने वंश के सर्वश्रेष्ठ राजा एवं पराक्रमी थे। उन्होंने आहोम और काचारी नरेशों को पराजित किया। मणिपुर और जयंतिया नरेशों ने उनकी अधीनता स्वीकार की। उन्होंने अपने राज्य का सुप्रबंध तो किया ही कला और साहित्य के विकास में भी योगदान दिया। उनके समय में वैष्णव धर्म की विशेष उन्नति हुई।
उनके भाई शुक्लध्वज अत्यंत पराक्रमी थे। उन्होंने राजविस्तार में नरनारायण की काफी सहायता की थी। वे अपने अद्भुत पराक्रम और साहस के कारण चीलराज कह जाते थे और लोग उनके नाम से थरथर काँपते थे। उनके लड़के रघु ने १५८१ ई. में विद्रोह कर दिया। तब नरनारायण ने उसे सोनकोई (सोंकोश) नदी के पूर्व का भाग देकर शांत किया और कोच राज्य के दो भाग हो गए।
१५८४ ई. में नरनारायण की मृत्यु हुई और उनके लड़के लक्ष्मीनारायण राजा हुए; किंतु उनके समय में राज्य निर्बल होने लगा। लक्ष्मीनारायण ने मुगलों की सहायता से रघु के पुत्र परीक्षित को पराजित करने का प्रयास किया, किंतु इस प्रयास में वें अपने राज्य का अधिकांश भाग खो बैठे। पूर्वी भाग पर आहोम राजाओं का तथा पश्चिमी भाग पर मुगलों और भूटिया लोगों का अधिकार हो गया। केवल कूचबिहार के आसपास का भूभाग ही उनके पास रह गया। १८वीं शती में यह राज्य अंग्रेजों की छत्रछाया में आया और तबसे उनके भारत छोड़ने तक उनके अधीन बना रहा। (परमेश्वरीलाल गुप्त)