कोंदे के राजकुमार फ्रांस के बारॅबॉन परिवार की एक शाखा का विरुद जिसका संबंध कोंदे-सुर-ल स्कॉन नामक प्राचीन नगर से था। इस विरुद को सर्वप्रथाम बेनडाम के ड्यूक चार्ल्स द बॉरबॉन के पंचम पुत्र लुइ द बॉरबॉन ने (१५३०-१५३९ ई.), जो ह्यूगोनाके प्रख्यात नेता थे, ग्रहण किया था। लुइ ने सुधारवादी धर्म के सिद्धांतों की शिक्षा प्राप्त की थी किंतु अपनी आंकाक्षाओं के कारण उसने सैनिक वृत्ति धारण की और मार्शल द ब्रिज़ाक के नेतृत्व में पिडमाँ के युद्ध में ख्याति प्राप्त की। १५५२ ई. में सेना लेकर मेत्ज़ में घुस गया और पंचम चार्ल्स को घेर लिया तथा वहाँ से उसने अनेक सफल धावे मारे। १५५४ ई. में चार्ल्स के विरुद्ध अश्वारोही सेना का नेतृत्व किया। १५५७ ई. में वह संत क्वेंतिन के युद्ध में उपस्थित था किंतु फ्रांस के राजदरबार में उसके परिवार के लोग संदेह की दृष्टि से देखे जाते थे अत: वहाँ उसकी सेवाओं को कोई महत्व न मिला। उसको नीचा दिखाने की दृष्टि से राजा ने उसे स्पेन नरेश द्वितीय फिलिप के पास एक कठिन मुहिम पर भेजा। इस प्रकार उसकी वैयक्ति कटुता और उसके धार्मिक विचारों ने उसे राज्य का कट्टर विरोधी बना दिया। वह एंबाय के उस षड्यंत्र में सम्मिलित हुआ जिसका उद्देश्य राजा को सुधारवादी धर्म को मान्यता देने के लिये बाध्य करना था। फलत: उसे मृत्युदंड दिया गया किंतु द्वितीय फ्रांसिस की मृत्यु हो जाने से वह कार्यान्वित न किया जा सक ा। नवें चार्ल्स के शासनारूढ़ होने पर राजनीति में परिवर्तन हुआ किंतु कैथलिकों और ह्यूगोना लागों के बीच संघर्ष बना रहा फलत: कोंदे के आगे की जीवन कहानी धर्मयुद्ध की कहानी है। वह अब ह्यूगोनाँ दल का सैनिक और राजनीतिक नेता हो गया और अनेक अवसरों पर अपनी सैनिक दक्षता का परिचय दिया। जारनाक के युद्ध में केवल ४०० अश्वारोहियों को लेकर समूचे कैथलिक सेना का उन्मूलन करने में वह सफल रहा किंतु युद्ध करते करते थक जाने पर युद्धविरत हो गया। तब उसे १३ मार्च, १५६९ ई. को माँते स्यू नाम कैथलिक सैनिक ने धोखा देकर गोली मार दी।

लुई कोंदे का बेटा हेनरी (१५५२-१५८८ ई.) ने भी ह्यू गोना दल से अपना संबंध बनाया और जर्मनी जाकर उसके एक छोटी सी सेना एकत्र की और ह्यूगोना लोगों का नेतृत्व किया। किंतु अनेक वर्ष तक युद्ध करते रहने के उपरांत वह बंदी कर लिया गया। उसके कुछ ही दिनों बाद, कहा जाता है कि उसकी पत्नी कैथरीन द लात्रे माले ने उसे विष दे दिया।

लुई कोंदे का उत्तराधिकारी हेनरी, तत्कालीन नरेश चतुर्थ हेनरी से आतंकित होकर स्पेन और बाद में इटली चला गया था और उसकी मृत्यु के बाद जब लौटा तो बाल-नेरश की अभिभाविका मेरी द मेडिसी के विरुद्ध षड्यंत्र करने लगा। फलस्वरूप वह बंदी कर लिया गया । तीन वर्ष बाद जब वह बंदीगृह से निकला तो उसके विचार एकदम बदले हुए थे। वह जोरशोर से प्रोटेस्टेंट मतावलंबियों के विरुद्ध कार्य करने लगा।

उसका बेटा लुई द्वितीय (१६२१-१६८६ ई.) कोंदे महान् के नाम से विख्यात हुआ। जेसुइट पादरियों ने बूर्ज में इसको शिक्षा दीक्षा दी थी। तीसवर्षीय युद्ध के अंतिम दौर में फ्रांसीसी सेनानायक के रूप में इसने महत्वपूर्ण भाग लिया। रॉक रोआ को मुक्त कराने के लिये एक सेना इसकी कमान में भेजी गई जिसने १८ मई, १६४३ ई० को स्पेन पर विजय प्राप्त की। स्वयं तथा सेनानायक तुरेन के साथ यह फ्राईबुर्ग (Freiburgh) तथा नार्डलिंगन के युद्ध में सफल हुआ और डंकर्क पर अधिकार किया। लेरीडा (Leride) के घेरे में यह असफल हुआ परंतु लेंस में इसकी विजय का परिणाम १६४८ ई० में वेस्टफालिया की संधि में हुआ। फ्रोंद की क्रांति में इसने सर्वप्रथम राजदरबार का साथ दिया और पेरसि पर घेरा डाल दिया। परंतु इसकी उत्कट महत्वाकांक्षा तथा अभियान ने राजमाता आस्ट्रिया ऐन को, जो लुई १४ वें की अल्पवयस्कता के कारण उस समय प्रतिशासक (रीजेंट) थी, रुष्ट कर दिया। परिणामस्वरूप एक वर्ष तक ल हाव्र (Le Havre) में बंदी रहा। मुक्त होने के बाद उसने गृहयुद्ध छेड़ दिया। शाही सेनाओं ने इसे बोर्नो से खदेड़ दिया, तुरेन ने इसे पराजित किया और फाबूर्ग सैंतॉत्वान (Faubourg Saint Antoine) के युद्ध में मरते मरते बचा। तब वह स्पेन भाग गया जहाँ उन लोगों से मिलकर उनकी ओर से युद्ध करने लगा (१६५३-५९)। राजद्रोह का दोष इसपर लगाया गया, पिरेनीज की संधि के उपरांत उसने ऐखे प्रोवेस (Aixen Provance) के प्रधान गिरजाघर में आत्मसमर्पण कर दिया (१६६०) और राजभक्त बन गया। १६६८ में उसने फ्रांस कोंत (Franche Counte) की विजय की, १६७२ में हौलेंड पर आक्रमण किया। ओरॉज के विलियम को सेनेफ़ (Seneffe) में १६७४ में पराजित किया। तुरेन की मृत्यु के पश्चात् १६७५ में राजकीय सेनाओं के विरुद्ध आल्सेस की रक्षा की। ११ नवंबर, १६८६ को फूंतैंब्लो में इसकी मृत्यु हो गई।

लुई द्वितीय के पश्चात् कोंदे के वंशक्रम में तीन चार राजकुमार और हुए जिनमें अंतिम लुई हेनरी जोजेफ था। क्रांति के समय लीज में उसने युद्ध में भाग लिया और एल्बा से नैपोलियन के लौटने तथा वाटरलू के युद्ध के बीच उसने लावेंडी के विद्रोहियों का नेतृत्व किया। फलस्वरूप १८३० ई. के २७ अगस्त को उसे फाँसी दे दी गई। (परमश्वेरीलाल गुप्त; सैयद अतहर अब्बास रिज़वी)