कोंकणी भारत के पश्चिमी तट स्थित कोंकण प्रदेश में प्रचलित बोलियों को सामान्यत: कोंकणी कहते है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों के परिणामस्वरूव इस प्रदेश में बोली जानेवाली भाषा के तीन रूप हैं----(१) मराठीभाषी क्षेत्र से संलग्न मालवण-रत्नगिरि क्षेत्र की भाषा; (२) मंगलूर से संलग्न दक्षिण कोंकणी क्षेत्र की भाषा जिसका कन्नड़ से संपर्क है तथा (३) मध्य कोंकण अथवा गोमांतक (गोवा) कारवार में प्रचलित भाषा। गोवावाला प्रदेश अनेक शती तक पुर्तगाल के अधीन था। वहाँ पुर्तगालियों ने जोर जबर्दस्ती के बल पर लोगें से धर्मपरिवर्तन कराया और उनके मूल सांस्कृतिक रूप को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया। इन सब के बावजूद लोगों ने अपनी मातृभाषा का परित्याग नहीं किया। उल्टे अपने धर्मोपदेश के निमित्त ईसाई पादरियों ने वहाँ की बोली में अपने गंथ रचे। धर्मांतरित हुए नए ईसाई प्राय: अशिक्षित लोग थे। उन्हें ईसाई धर्म का तत्व समझाने के लिये पुर्तगाली पादरियों ने कोंकणी का आश्रय लिया।

प्राचीन काल में गोवा से साष्टी तक के भूभाग में जो बोली बोली जाती थी उसे ही लोग विशुद्ध कोंकणी मानते थे और उसे गोमांतकी नाम से पुकारते थे तथापि सोलहवीं शती तक उसके लिये कोई विशिष्ट नाम रूढ़ नहीं था। पुर्तगालियों को जैसा समझ में आया, वैसा ही नाम उसे दिया और पुकारा। १५५३ ई. के जेसुइट पादरियों के आलेखों में उसे कानारी नाम दिया गया है। १७वीं शती में पादरी स्टीफेंस ने दौत्रीन क्रिश्तां नामक पुस्तक लिखी। उसमें उनका कहना था कि उसे उन्होंने कानारी में लिखा है और गोमांतकी बोली का जो व्याकरण उन्होंने तैयार किया उसे उन्होंने कानारी भाषा का व्याकरण नाम दिया। इस कानारी शब्द का संबंध कन्नड़ से तनिक भी नहीं है। वरन् समझा जाता है कि समुद्र के किनारे की भाषा होने के कारण ही उसे कानारी कहा गया।

टॉम पीरिश नामक यात्री ने अपनी पुस्तक सूम ऑरिएंताल में, जो १५१५ ई. में लिखी गई थी, गोवा की बोली का नाम कोंकोनी दिया है। १६५८ में जेसुइट पादरी मिगलेद आल्मैद ने भी गोमंतकी के लिये कोंकणी शब्द का प्रयोग किया है। अब यह शब्द प्राय: पूरे कोंकण प्रदेश की भाषा के लिये प्रयुक्त होता है। कुछ लोग इसे मराठी की उपभाषा मानते हैं तो कुछ कन्नड़ की। कुछ अन्य भाषावैज्ञानिक इसे आर्यवंशोद्भूत स्वतंत्र समृद्ध भाषा बताते है।

सत्रहवीं शती से पूर्व इस भाषा का कोई लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है। इस भाषा के साहित्यिक प्रयोग का श्रेय ईसाई मिशनरियों को है। पादरी स्टिफेस की पुस्तक दौत्रीन क्रिश्तां इस भाषा की प्रथम पुस्तक है जो १६२२ ई० में लिखी गई थी। उसके बाद १६४० ई. में उन्होंने पुर्तगाली भाषा में इसका व्याकरण आर्ति द लिंग्व कानारी नाम से लिखा। इससे पूर्व १५६३ ई. के आसपास किसी स्थानीय धर्मांतरित निवासी ने इस भाषा का कोश तैयार हुआ और ईसाई धर्म के अनेक ग्रंथ लिखे गए। पुर्तगाली शासन के परिणामस्वरूप साहित्य निर्माण की गति अत्यंत मंद रही किंतु अब इस भाषा ने एक समृद्ध साहित्य की भाषा का रूप धारण कर लिया है। लोककथा, लोकगीत, लोकनाट्य तो संगृहित हुए ही हैं, आधुनिक नाटक---सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक---और एकांकी की रचना भी हुई है। अन्य विधाओं में भी रचनाएँ की जाने लगी है। (चंद्रकांत केणी; परमेश्वरीलाल गुप्त)