केला उष्णदेशीय फल। जनसाधारण द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले फलों में यह सबसे महत्वपूर्ण है। कहीं कहीं पर तो इसका उपयोग मुख्य भोजन के रूप में होता है।

इसका फल कोमल, मधुर, सुस्वाद एवं पौष्टिक पदार्थों से युक्त होता है और प्राय: वर्ष के सभी महीनों में उपलब्ध होता है। यह संसार की प्रति एकड़ सबसे अधिक फल देनेवाली फसलों में है। इसका पेड़ अधिक भूमि नहीं घेरता। भूमि की छोटी छोटी टुकड़ियों में तथा जहाँ अन्य फल सरलता से नहीं होते वहाँ भी सुविधापूर्वक लगाया जा सकता है।

यद्यपि इसकी जन्मभूमि के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, तथापि अनुमान है कि तरकारी और खाने की, दोनों ही, जातियाँ एशिया के उष्ण भाग अर्थात् मलाया, थाइलैंड, भारत अथवा इंडोचीन से निकली हैं।

केले की पेटी विषुवतरेखा से अक्षांश 30 के अंदर फैली हुई है। इसकी खेती विशेष रूप से कैरीबियन द्वीपसमूह, मध्य अमरीका, ब्राज़ील, कोलंबिया, मलाया, इंडोचीन, थाइलैंड तथा भारत में होती है।

एशिया में इसकी खेती विशेष रूप से भारत में होती है। दक्षिण भारत तथा बंगाल और बिहार की जलवायु इसकी खेती के लिये बहुत उपयुक्त है। भारत में केले की उपज का क्षेत्रफल लगभग ४ लाख एकड़ है, जो एशिया भर के केला उत्पन्न करनेवाले क्षेत्रों में सबसे अधिक है।

केला प्राकृतिक क्रम में प्लैंटाजिनेसियी (Plantaginaceae) और जीनस म्यूसा (Musa) से संबंधित है। जीनस म्यूसा में तीन जातियाँ होती हैं : १. पैराडिसिआका (M. Paradisiaca) २. सैपिएंटम (M.Sapientum) तथा ३. कैवेंडिशी (M. Cavendishi)

पहली जाति पैराडिसिआका के अंतर्गत सब्जीवाले केले अथवा प्लैटेन (Plantain) आते हैं।

खानेवाली जातियों में जो ऊँची बढ़नेवाली किस्में होती हैं, उन्हें म्यूसा सैपिएंटस और नाटी किस्मों को म्यूसा कैवेंडिशी कहते हैं।

सब्जीवाले केलों (प्लैंटेन) में स्टार्च बहुत अधिक मात्रा में होता है। इसकी कुछ जातियों में बीज भी होता है। हमारे देश में खाने तथा सब्जीवाले केलों में विशेष अंतर नहीं समझा जाता। सब्जीवाले केलों की निम्नलिखित किस्में हैं :

  1. बौथा, (२) हजारा, (३) राय केला, (४) भोस, (५) मुठिया, (६) नंदरन तथा (७) टाइगर प्लैंटेन।

खानेवाले भारतीय केलों की बहुत सी किस्में हैं जिनमें निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं :

दक्षिणा भारत-हरीछाल, बसराई, लालछाल, मथैली तथा पूवन।

बंगाल तथा बिहार-मालभोग, मर्तबान, चंपा, चीनी चंपा और मोहनभोग।

उत्तर प्रदेश-हरीछाल, मर्तबान, चंपा और स्थानीय देशी।

अन्य देशों में केले की दो किस्में मुख्य हैं : ग्रो मीशेल (Gros Michel) तथा कैवेंडिशी।

जलवायु तथा मिट्टी-साधारण्त: केला किसी भी प्रकार की मिट्टी में लगाया जा सकता है, परंतु इसकी खेती के लिये भूमि पर्याप्त उपजाऊ होनी चाहिए अन्यथा खाद अधिक मात्रा में देने की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही पानी का निकास भी अच्छा होना चाहिए जिससे जड़ों में पानी न ठहर सके। इसके लिये अधिक तापके साथ नम जलवायु आवश्यक है। ७०-८० तक की वर्षा में यह अच्छी तरह होता है। कम ताप एवं तेज हवाएँ इसके लिये हानिकारक हैं। पाला पड़नेवाले स्थान इसकी खेती के लिये अनुपयुक्त हैं।

केले का प्रसारण उसकी भूस्तारियों (suckers) द्वारा होता हैं। भूस्तारियाँ जड़ से अलग करके निकाली जाती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं :

  1. सँकरी पत्तीवाली भूस्तारी (sword sucker), चित्र १ (क),
  2. चौड़ी पत्तीवाली भूस्तारी (water sucker), चित्र १ (ख),

यों तो दोनों प्रकार की भूस्तारियाँ लगाई जाती हैं, परंतु सँकरी और लंबी पत्तीवाली भूस्तारियाँ, बलशाली पौधे पैदा करने के साथ ही अधिक तथा शीघ्र फल देनेवाली होती हैं। केले का प्रसारण उसकी जड़वाली गाँठ के टुकड़े करके उसके द्वारा भी होता है, परंतु उसमें एक या दो आँखें अवश्य होनी चाहिए।

बरसात का मौसम केला लगाने के लिये उपयक्त है। इससे साधारणतया गड्ढे बनाकर, या नालियाँ बनाकर लगाया जाता है। जब कम पेड़ लगाने हों तो गड्ढेवाली विधि अपनाई जाती है। गड्ढे २-३ फुट व्यास के होने चाहिए। आदर्श गड्ढा ३ x x ३ का माना जाता है। यह भूस्तारियों के फैलाव के लिये पर्याप्त होता हे। नालियाँ लगभग दो तीन फुट चौड़ी और ९ इंच गहरी होनी चाहिए। यह दूरी निकाई, गोड़ाई इत्यादि के लिये पर्याप्त होती है। १० x१० की दूरी पर ४३६ और ८ x ८ पर ६८० भूस्तारियों की आवश्यकता एक एकड़ के लिये होती है। भलीभाँति निकाई तथा गोड़ाई होने पर केला प्राय: एक वर्ष के उपरांत फल दे देता है।

केले के लिये खाद और पानी दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इसे खूब खाद और पानी देना चाहिए। भारतीय परिस्थितियों में केले के लिये नाइट्रोजनन अत्यंत आवश्यक है। वर्ष में दो बार, सितंबर और फरवरी में, २० सेर गोबर की खाद, आधा सेर ऐमोनियम सल्फेट और १/२ सेर हड्डी की खाद तने से लगभग एक फुट की दूरी पर थोड़ा गोलाई में खोदकर दे दी जाय तो फल शीघ्र और अच्छा आता है।

केले के लिये पानी भी उतना भी आवश्यक है जितना खाद; इस कारण कुछ लोगों का कथन है कि केला लगी हुई भूमि सूखनी नहीं चाहिए।

भूस्तारियों को समय समय पर पेड़ों के पास से हटाते रहना चाहिए, नहीं तो उनका झुंड बन जाता है और पूरी तरह भोजन का विभाजन नहीं हो पाता। परिणमस्वरूप फलन भी ठीक नहीं होता। इसलिये एक समय पर अधिक से अधिक तीन भूस्तारियाँ रखनी चाहिए। किंतु उन भूस्तारियों की आयु में कम से कम ४-६ महीने का अंतर होना अनिवार्य है जिससे नियमित फल मिलता रहे। एक बार फल दे चुकने पर केले का पेड़ काट देना चाहिए, क्योंकि एक पेड़ पर एक ही बार फल आता है।

लगभग ४ महीने में फलियाँ पकाने के योग्य हो जाती हैं, परंतु ग्रे पेड़ पर नही पकतीं। घौद को पौध काटकर पकाया जाता है। इस क्रिया से उनमें पूर्ण मिठास आती है।

कुछ स्थानों पर केले के घौद एक दूसरे पर रखकर गड्ढे में इकट्ठा कर दिए जाते हैं और इनको भूसा और गीली मिट्टी से ढककर धुंआ देते हैं। हरे फल इस प्रकार ताप बढ़ने से रंग बदल देते हैं। अंडी की पत्तियाँ भी इसको पकाने के लिये उपयोग में लाई जाती हैं। केले की घौद में चूना लगाकर अँधेरी जगह में लटाकार भी पकाया जा सकता है। कुछ देशों में इसे पकाने के लिये एथिलीन गैस का उपयोग करते हैं। साधारण क्रिया घौद को पुआल या सूखी पत्तियों में रखकर बंद कमरे में पकाने की है। लगभग २० से. ताप पर फल भली प्रकार पक जाते हैं। घौद के सिरे पर मोम या वैसलीन लगाने से संग्रह और परिवहन में फल सड़ने की संभावना कम रहती हैं।

केला आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण फल है। हर भूस्तारी से एक घौद मिलता है। इसलिये एक एकड़ भूमि से लगभग ५००-७०० घौद तक सफलतापूर्वक लिए जा सकते हैं। एक घौद में प्राय: ५०-१०० फलियाँ लगती हैं। एक एकड़ में मध्यम तौर पर १८० से २०० मन तक फलियाँ मिल सकती हैं। दक्षिण भारत तथा बंगाल में २०० मन प्रति एकड़ की पैदावार सुगमता से हो जाती है।

बीमारियाँ तथा कीड़े-पनामा (रोग) या केले का उक्ठा (Wilt) नामक बीमारी अत्यंत हानिकारक है, परंतु भाग्यवश भारत में यह कम होती हैं। इसमें पत्तियाँ और पेड़ सूखने लगते हैं। रोगग्रस्त पेड़ों में फल नहीं आते, और यदि आते हैं तो गिर जाते हैं। यह बीमारी पानी लगनेवाले स्थानों में अधिक होती है, इसलिये पानी के निकास का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। ऐसी किस्में लगाई जाएँ जिनपर इस रोग का प्रभाव न हो।

केले की कलंकिका (Scab) बीमारी में केले की फली के छिलके पर भूरे और काले धब्बे पड़ जाते हैं। छिलका भूरा होकर बाद में सूखने और सड़ने लगता है। इसके बचाव के लिये बरगंडी मिक्सचर ४ : ५ : ५०, (४ पौंड नीला तूतिया, ५ पौंड सोडा, ५० गैलन पानी में घुलाकर) छिड़क देना चाहिए।

तना छिद्रक (Stem borer) या वीविल एक छोटा कीड़ा होता है और तने में घुसकर सड़न पैदा कर देता है। इससे पेड़ गिर जाते हैं। ऐसे तनों को काटकर जला देना चाहिए।

फलछिद्रक (Fruit boring caterpillar) फूल की दशा में ही आक्रमण करता है और फल में छेद बनाकर घुस जाता है। इसका मल फली पर दिखाई देता है। अंत में फली सड़ जाती है और बेक ार हो जाती हैं। रोगग्रस्त पौधों को जला देना चाहिए और ऐसे पौधों से निकली भूस्तारियों को भी नही लगाना चाहिए।

पक जाने पर केला फल के रूप में खाया जाता है। साथ ही इसके फू ल, फल तथा तने के मुलायन भाग से सब्जी बनती है। इसके अतिरिक्त इससे अन्य लाभदायक पदार्थ भी बनाए जाते हैं।

ाके तथा कच्चे दोनों ही प्रकार के केले का आटा बनाया जाता है। इसका रेशा (fibre) कपड़ा बनाने के काम में आता है। केले की पत्तियाँ त्योहारों तथा विशेष अवसरों पर घर सजाने तथा भोजन परोसने के काम में आती हैं। पशुओं के लिये चारे के रूप में भी इसका उपयोग किया जाता हैं। (राजेंद्र प्रसाद सिंह)