कृष्ण (वासुदेव) यादव राजा वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवीं संतान। इनका जन्म मथुरा में वहाँ के अत्याचारी नरेश कंस के कारागार में हुआ था। देवकी कंस की चचेरी बहन थी। वसुदेव से विवाह होने के पश्चात् कंस अपनी बहन को रथ में बिठाकर जब ससुराल पहुँचाने जा रहा था तब आकाशवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान के हाथों उसका अंत होगा। कंस भयभीत हुआ और उसने देवकी को मार डालना चाहा। वसुदेव के अनुनय विनय और इस आश्वासन पर कि देवकी से जो भी संतान होगी वह उसे कंस को दे देगें, कंस ने देवकी की हत्या का विचार छोड़ दिया किंतु दोनों को कारागार में बंद कर दिया। कारागार में देवकी के सात पुत्र हुए और उन सबको कंस ने मार डाला।

आठवाँ बच्चा होने पर वसुदेव ने उसे बचाने का प्रयत्न किया। वे बच्चे को टोकरी में छिपाकर जेल से बाहर ले निकले और यमुना पारकर गोकुल पहुँचे। वहाँ उनके मित्र नंद गोप के घर उसी रात उनकी पत्नी यशौदा को लड़की प्राप्त हुई थी। यशौदा प्रगाढ़ निद्रा में सोई हुई थी। वसुदेव ने चुपचाप लड़की की जगह कृष्ण को रख दिया और लड़की को लेकर वापस आ गये। आठवाँ बच्चा होने का समाचार पाकर कंस जेल में पहुँचा और उस कन्या को शिला पर पटक दिया। एक अनुश्रुति के अनुसार वह बालिका शिला पर पटकते ही आकाश में उड़ गई और विंध्याचल पर्वत पर विंध्यवासिनी के रूप में प्रकट हुई। दूसरी अनुश्रुति के अनुसार कन्या पटकने पर मरी नहीं। उसे वृष्णि लोगों ने, जिनसे वसुदेव का संबंध था, बचा दिया और पालनपोषण किया। कृष्ण की रक्षिका होने के कारण उन लोगों ने उसे सम्मानित किया और आगे चलकर एकानंशा के नाम से पूजित हुई उसे बलराम एवं कृष्ण के साथ स्थान प्राप्त मिला।

आरंभ से ही कृष्ण में असाधारण प्रतिभा, सौंदर्य और शारिरिक शक्ति के चिन्ह प्रकट होने लगे थे। वह नटखट भी खूब थे। गोकुल के गोपाल, उनकी स्त्रियाँ और बच्चे कृष्ण की अद्भुत लीलाओं को देखकर चमत्कृत और मुग्ध होने लगे। कृष्ण का वर्ण श्याम था।

थोड़े ही वर्षों में कृष्ण के पराक्रम और तीव्र बुद्धि की ख्याति चारों ओर फैल गई। कंस को किसी प्रकार से आभास हो गया कि नंदकुल में कृष्ण वसुदेव और देवकी के पुत्र हैं। अत उसने अपनी रक्षा के लिये कृष्ण को मारना आवश्यक समझा। उसने पहले पूतना नाम्नी राक्षसी को भेजा। उसने अपना विषाक्त स्तनपान कराकर कृष्ण को मारने की चेष्ठा की, पर सफल न हो सकी। एक दिन यशोदा गृह कार्यों में व्यस्त थीं; उन्होंने उन्हें एक शकट के निकट लिटा दिया। वे शिशुओं की तरह लेटे लेटे हाथ पैर फैंकते रहे। उनके पैर के धक्के से शकट उलट गया पर वे बच गए, उन्हें तनिक भी चोट नहीं आई।

कृष्ण जब बड़े हुए तो बड़ा उपद्रव करने लगे। एक दिन उनके उपद्रव से तंग आकर यशोदा ने उन्हें रस्सी से बाँधकर ऊखल से बाँध दिया। वे ऊखल को घसीटते फिरे और ऊखल दो पेड़ों के बीच अटक गया। तदनंतर उन्होंने जोर लगाया तो दोनों पेड़ उखड़ गए। इस बार भी वे साफ बच गए। उधर कंस उन्हें मारने के लिये बराबर यत्नशील था। उसने वत्सासुर, धेनुकासुर, प्रलंबासुर, अघासुर, बकासुर, केशी आदि अनेक दैत्यों को एक के बाद एक कृष्ण को मारने के लिये भेजा, किंतु कृष्ण ने उन सबको मार डाला।

आए दिन इस प्रकार की विपत्तियों से तंग आकर नंद गोकुल छोड़कर वृंदावन चले आए। उस समय कृष्ण सात वर्ष के थे। वहाँ यमुना नदी में कालिय नामक नाग रहता था जिसके कारण यमुना का जल दूषित हो रहा था। कृष्ण ने उसका दमन किया। एक बार गोकुल में दावानल लगा। कृष्ण ने उसका शमन किया। गोकुल की स्त्रियाँ कात्यायनी व्रत करती थी और उस अवसर पर विवस्त्र होकर यमुना में स्नान करती थी। कृष्ण ने एक बार इस प्रकार विवस्त्र स्नान करती हुई स्त्रियों का वस्त्र हरण कर लिया, बहुत प्रार्थनाएँ करने पर लौटाया। गोकुल के गोप वर्षा की समाप्ति पर शरदागमन के समय इंद्र को प्रसन्न करने के लिये इंद्रयज्ञ किया करते थे। यह कृष्ण को पसंद न था। उन्होंने उसे बंदकर प्रकृति अर्थात गोवर्धन पर्वत की पूजा की सलाह दी जिस समय गोप लोग इस नई पूजा को कर रहे थे उसी समय अतिवृष्टि हुई। यह वृष्टि निरंतर सात दिनों तक होती रही। उस समय कृष्ण ने गोकुलवासियों और उनकी गायों की रक्षा के सात दिनों तक लिये गोवर्धन पर्वत को कनिष्ठा उँगली पर उठाए रखा।

पुराणों में इस बात का उल्लेख है कि शरद् पूर्णिमा की सुहावनी रात को कृष्ण के साथ गोपियों ने रास नृत्य किया। कदाचित् यह यादवों के बीच युवक-युवतियों के परस्पर मिलकर नाचने गाने और उत्सव मनाने की किसी प्रथा का उल्लेख है। कृष्ण के महारास का वैष्णवों में बहुत आध्यात्मिक महत्व है।

कृष्ण ने इन अलोकिक पराक्रमों से कंस बहुत दुखी हुआ और उसने कृष्ण और उनके भाई बलराम को मथुरा बुलाकर मारने की योजना बनाई। उसने एक धनुर्यज्ञ का आयोजन किया और धनुर्यज्ञ मे भाग लेने के लिये कृष्ण को बुलाने के लिये अक्रूर को भेजा। नंद और अन्य गोकुलवासी कंस की दुष्टता से परिचित थे। वे कृष्ण को मथुरा भेजना नहीं चाहते थे ; किंतु कृष्ण ने निर्भयता से मथुरा जाना स्वीकार कर लिया। अगले दिन वृजवासियों को सांत्वना देकर दोनों भाई अक्रूर के साथ मथुरा आए।

मथुरा में कंस ने कृष्ण को मारने की पूरी तैयारी कर रखी थी। दोनों भाइयों को एक विशल रंगमंच पर आमंत्रित किया गया। द्वार पर कंस का कुवलयापीड़ नाम का मरखना हाथी उपस्थित था। बलराम और कृष्ण के वहाँ पहुँचने पर महावत ने उसे उन दोनों पर आक्रमण करने की प्रेरणा दी। कृष्ण ने उसका आषय समझकर हाथी के दाँतों को इस जोर से खींचा कि वे निकल गए। बलराम ने पीछे से आक्रमण किया। दोनों ओर से मार खाकर हाथी गिरकर मर गया। दोनों भाई जब रंगमंच पर पहुँचे तब उन्हें चारण आदि कई भीमकाय पहलवानों से लड़ने के लिये कहा गया। कृष्ण ने चारण को भूमि पर गिराकर इस जोर से लात लगाई कि उसके आँख ,कान, और नाक से रक्त की धारा बहने लगी। शेष पहलवान हलके से प्रयत्न से ही धराशायी हो गये। कंस थरथर काँपने लगा। कृष्ण ने सिंहासन पर बैठे हुए कंस को पकड़कर ऐसा झटका दिया कि वह लाश की तरह लुड़ककर नीचे आ गया। कृष्ण ने केसों से घसीटते हुए उसे अखाड़े के कई चक्कर दिए और वह ठंडा पड़ गया तब उसे अखाड़े के बीच फें क दिया इस महान पराक्रमी कार्य के कारण कृष्ण का नाम कंसनिषूदन पड़ा।

कृष्ण द्वारा कंस के वध की ख्याति शीघ्र ही देश भर में फैल गई। कंस के दाहकर्म के पश्चात जब कंस के पिता उग्रसेन ने सारा राज्य कृष्ण को अर्पित करते हुए सिंहासन पर बैठने की प्रार्थना की तब कृष्ण ने उत्तर दिया--मैंने राज्य की इच्छा से कंस को नहीं मारा। मैंने उसे लोकहित के लिये मारा है। कंस कुल का कलंक था। यादवों का राज्य आप ही लीजिए। मैं तो पहले की ही तरह गोपालों के साथ गौओं से घिरा हुआ जंगलों में सुख से विहार करूँगा।

इसके बाद कृष्ण का उपनयन संस्कार हुआ और अध्ययन के निमित्त सांदीपनी ऋषि के पास अवंति भेजा गया। वहाँ उनकी सुदामा से मित्रता हुई। गुरू आश्रम में वे केवल चौसठ दिन रहे और इतने दिनों में उन्होंने धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की। गुरूदक्षिणास्वरूप शंखासुर के द्वारा बंदी किये गये गुरूपुत्र को प्रभासपट्टन जाकर मुक्त किया। पुन मथुरा लौट आए।

अंधक और वृष्णि यादवों की दो शाखाएँ थी और दोनों का एक ही शासन गणराज्यात्मक था। अंधकों का मथुरा में राज्य था और उसके गणाध्यक्ष उग्रसेन थे। अंधकों के राज्य के निकट ही वृष्णियों का राज्य था। वृष्णियों में शूर नामक एक विख्यात पुरुष थे। उन्हीं के पुत्र वसुदेव और पौत्र कृष्ण थे अंधक कुल की देवकी और वृष्णि कुल के वसुदेव के विवाहिक संबंध से कंस की मृत्यु के पश्चात दोनों गणराज्य एक संघ के रूप में संघटित हो गए और इस संघ राज्य के प्रमुख कृष्ण मनोनीत हुए।

कंस की मृत्यु की सूचना को पाकर उनका श्वसुर मगधनरेश जरासंध बहुत क्षुब्ध हुआ और विशाल सेना लेकर उसने मथुरा को घेर लिया। कृष्ण ने इस अप्रत्याशित आक्रमण का धैर्यपूर्वक सामना किया । जरासंध की खाद्य सामाग्री समाप्त हो जाने के कारण मगध वापस लौटना पड़ा। जरासंध ने नई सेना के साथ पुन आक्रमण किया । इस प्रकार उसने मथुरा पर सत्रह बार चढ़ाई की पर हर बार असफल रहा। तब अठारहवीं बार उसने कालयवन नामक एक शासक को आक्रमण करने के लिये प्रेरित किया। किंतु उसका यह अभियान भी असफल रहा।

कृष्ण ने बार बार आक्रमण से तंग आकर मथुरा प्रदेश छोड़ देने का निश्चय किया और अंधक और वृष्णियों को लेकर सौराष्ट्र प्रदेश में द्वारावती (द्वारिका) चले गये। द्वारिका पश्चिमी सागर मे एक द्वीप था जो उस समय तक निर्जन था। कृष्ण ने उसे बसाया और दुर्ग का रूप देकर धनधान्य से समृद्ध किया।

द्वारिका दुर्ग में रहते हुए समय समय पर कृष्ण ने लोकरक्षा और पराक्रम के अनेक अद्भुत और चमत्कारी कार्य किए उनके कारण ही उन्हें वह लोकातिशायी का महत्व प्राप्त हुआ। देश के जिस कोने से भी दुखी की पुकार आती थी, वही कभी सेना के साथ और कभी अपना प्रसिद्ध धनुष शाङर्ग और सुदर्शन चक्र लेकर अकेले ही जा पहुँचते थे और शत्रु का संहार कर योग्य उत्तराधिकारी को राज्य सौंप देते। कृष्ण ने सैकड़ों असुरों और दुष्ट राजाओं का संहार किया। उनमें कुछ नाम हैं--श्रृगाल, कालयवन, नरक, निकुंभ, वज्रनाभ, मधु, कैटभ, बाणासुर। अत्याचारियों के दमन के कारण ही उनके दैत्यारि, मधुरिपु, कैटभजित् आदि नाम पड़े।

कृष्ण के शौर्य और पराक्रम की कहानियाँ विदर्भ नरेश भीष्मक की पुत्री रुक्मणी के कानों तक पहुँची तो उसने कृष्ण को अपना पति बनाने का निश्चय किया। रुक्मिणी के भाई ने उसका विवाह चेदिनरेश शिशुपाल के साथ करना स्वीकार कर लिया था। जब रुक्मिणी को यह बात मालूम हुई तो उसने कृष्ण को पत्र लिखा और शीघ्र आकर उसे ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण पत्र पाते ही कुंडिनपुर जाकर रुक्मिणी का अपहरण कर लाए और उससे विवाह किया । यह कृष्ण का प्रथम विवाह था इसके बाद उन्होंने अन्य कई स्त्रियों से विवाह किया।

तदनंतर पंचालकुमारी द्रौपदी के स्वयंवर में कृष्ण सम्मिलित हुए। वहीं उनकी पांडवों से पहली बार भेंट हुई। कृष्ण का कौरव वंश से बहुत निकट संबंध था। पांडवों की माता कुंती (पृथा) यदुवंशी राजा सूरसेन की पुत्री थी । इस प्रकार कृष्ण पांडवों के ममेरे भाई थे। यह संबंध तो था ही कृष्ण की बहन सुभद्रा से तीसरे पांडव अर्जुन का गंधर्व विवाह हो जाने पर वह और भी दृढ़ हो गया। कृष्ण पांडवों के आरंभ से ही सहायक थे। वे पांडवों के पास बराबर हस्तिनापुर आते रहते थे। पांडव जब इंद्रप्रस्थ में रहने लगे तो वे वहाँ भी आए। खांडव वन दहन में कृष्ण ने अर्जुन की सहायता की। युधिष्ठिर ने जब राजसूय यज्ञ करने का निश्चय किया तब कृष्ण ने सलाह दी कि पहले जरासंध को पराजित करना चाहिए। तदनुसार पथप्रदर्शक बनकर भीमसेन द्वारा जरासंघ को मल्लयुद्ध में मरवा दिया। यज्ञ प्रारंभ होने पर भीष्मपितामह के प्रस्ताव पर कृष्ण को ब्रह्मा बनाया गया। यह बात चेदि के राजा शिशुपाल को अच्छी नहीं लगी। उसने कृष्ण की बहुत निंदा की और यज्ञ में विघ्न डालने का यत्न किया। जब तक शिशुपाल ने सौ तक गालियाँ दीं तब तक तो कृष्ण सहन करते रहे, परंतु जब वह उससे आगे बढ़ा तब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

राजसूय यज्ञ और पांडवों के वैभव को देखकर कौरवों में द्वेष जागा। कृष्ण के द्वारिका वापस जाते ही, उन्होंने द्यूत का आयोजन किया। कौरव-पांडवों के बीच द्यूत में युधिष्ठिर के द्रोपदी को दाँव पर लगाने और हार जाने के बाद जब दु:शासन भरी सभा में द्रौपदी को निवस्र करने लगा तो उस समय कृष्ण ने उसकी लज्जा की रक्षा की। पांडवों द्वारा वनवास और अज्ञातकाल समाप्त होने के बाद जब पांडवों को आधा राज्य देने की बात उठी तो दुर्योधन मुकर गया और दोनों पक्षों के बीच युद्ध की संभावना आसन्न दिखाई पड़ने लगी। दोनों ही पक्ष के लोग पड़ोसी राजाओं से सहायता प्राप्त करने की चेष्टा करने लगे। युधिष्ठिर अब भी चाहते थे कि कौरवों के साथ शांतिपूर्वक झगड़ा निपट जाए। अत: उनके अनुरोध पर कृष्ण हस्तिनापुर गए। उन्होंने धृतराष्ट्र को बहुत समझाया। पर दुर्योधन के दुराग्रह के सम्मुख धृताराष्ट्र के सम्मुख धृतराष्ट्र की कुछ भी न चली। निदान युद्ध ठन गया।

इस युद्ध में कृष्ण ने स्वयं अस्र धारण करना स्वीकार नहीं किया, किंतु अर्जुन के सारथी बने। युद्धक्षेत्र में पहुँच कर अर्जुन अपने सामने बुजुर्गों, मित्रों और भाई भतीजों को खड़े देखकर घबरा गए और युद्ध से विरत होने लगे। उस समय अर्जुन के उत्साह और विक्रम को जगाने के लिये कृष्ण ने जो उपदेश दिए वह भगवद्गीता में सन्निहित है। वह मनुष्य को उत्साह देनेवाले और कर्म में प्रवृत्त करनेवाले हैं। भगवद्गीता एक प्रकार से प्राचीन भारतीय वाड;मय के आध्यात्मिक तत्वों का निचोड़ है।

महाभारत युद्ध में पांडव विजयी हुए। हस्तिनापुर आकर युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया किंतु युद्ध में असंख्य प्राणियों के मारे जाने के कारण युधिष्ठिर का मन खिन्न थ। कृष्ण ने उस समय अनेक कथाओं द्वारा उन्हें शांत किया। पश्चात् वे द्वारिका लौट गए।

एक दिन कृष्ण और बलराम के साथ समस्त यादव प्रभास क्षेत्र गए। वहाँ सबने यथेच्छ मदिरापान किया। मद्योन्मत्त होने पर यादवों में कलह वृत्ति जाग्रत हो उठी और वे परस्पर मारकाट करने लगे। उसमें यादवों का एक प्रकार से विनाश हो गया। कृष्ण इससे खिन्न हुए और यादवी स्त्री-बच्चों को अर्जुन को सौंपकर वन चले गए। एक दिन जब वे एक अश्वत्थ वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे उस समय जरा नामक व्याध ने उन्हें मृग समझ कर बाण चलाया जिससे उनकी मृत्यु हुई। कहा जाता है कि मृत्यु के समय वह १२५ वर्ष के थे। ऐसा भागवत में उल्लेख है। कतिपय अन्य गणना के अनुसार उनकी आयु १०१ अथवा ११९ वर्ष आँकी जाती है।

कृष्ण के जीवनवृत्त के संबंध में यह बात कुछ विचित्र सी है कि वह अपने समग्र रूप में कहीं एक स्थान पर उपलब्ध नहीं हैं। पुराणों में उनके वृत्त की चर्चा केवल युवाकाल अर्थात् मथुरा आने तक ही है। उसके बाद का वृत्त महाभारत में मिलता है। उसमें उनके शैशव और किशोरावस्था की चर्चा नहीं है। इस प्रकार पुराण और महाभारत दोनों मिलकर कृष्ण-चरित्र प्रस्तुत करते हैं। इस संबंध में यह बात भी उल्लेखनीय है कि जैन साहित्य में भी बाल कृष्ण के गोपालक जीवन की चर्चा नहीं है। उसमें उनके संबंध में जो कु छ भी कहा गया है वह द्वारिका और रैवतक पर्वत से संबद्ध है। मथुरा से संबंधित उनकी किसी घटना का उल्लेख उनमें नहीं है। (इं. वि.; प. ला. गु.)

उपासना स्वरूप----कृष्ण, अपने चरित्र के विशिष्ट गुणों के कारण अपने समाज---सात्वतों और वृष्णियों के बीच शीघ्र ही वीर के रूप में पूजे जाने लगे। आरंभ में वे अपने वासुदेव नाम से ही पूजित हुए। वासुदेव रूप में पूजित होने का प्राचीनतम उल्लेख पाणिनि (छठीं शती ई. पू. का मध्य) के अष्टाध्यायी में प्राप्त होता है। उसमें उनके उपासकों को वासुदेवक कहा गया है। ईसा पूर्व चौथी शती तक वासुदेव की उपासना मथुरा और उसके आसपास के प्रदेश तक ही सीमित थी, ऐसा यवन राजदूत मेगस्थने के विवरण से प्रकट होता है। वासुदेव के समान ही उनके बड़े भाई संकर्षण बलराम भी पूजित थे। उनकी उपासना आरंभ में वासुदेव की उपासना से स्वतंत्र थी, ऐसा कौटिल्य के अर्थशास्र से ज्ञात होता है। उसमें उनके उपासकों की चर्चा है। किंतु ईसा पूर्व की दूसरी शती आते आते दोनों भाइयों को देवत्व का पद प्राप्त हो गया और उनके उपासनाक्षेत्र का भी काफी विस्तार हुआ।

वक्षुनद के तटवर्ती अइखानुम नामक प्राचीन नगर के उत्खनन में प्राप्त कुछ सिक्कों से ज्ञात होता है कि उपासना सुदूर उत्तर में वक्षु प्रदेश तक होती थी। ये सिक्के अगाथक्लेय नामक भारतीय-यवन राजा के हैं। उनपर एक ओर चक्रधारी वासुदेव और दूसरी ओर हलधर बलराम की आकृति का अंकन है। कदाचित् यह सिक्का इस बात का भी द्योतक है कि इस समय तक दोनों भाई की पूजा साथ साथ होने लगी थी। दोनों भाइयों के एक साथ पूजित होने का स्पष्ट प्रमाण प्रथम शती ई. पू. के मध्य घोसुंडी (राजस्थान) से प्राप्त एक अभिलेख से होता है। इसमें सर्वतात नामक राजा द्वारा संकर्षण वासुदेव के सम्मान में पूजा शिला-प्राकार (मंदिर) बनाने का उल्लेख है। यह मंदिर नारायणवाटक में स्थापित किया गया था। इस लेख में इन दोनों भाइयों को भगवत्, अनिहत, सर्वेश्वर कहा गया है। इस लेख से ऐसा भी प्रतीत होता है कि वासुदेव और संकर्षण की उपासना नारायण की उपासना में समाहित हो गई थी।

नारायण मूलत: एक अवैदिक देव थे जिनका कालक्रम में वैदिक देवों के बीच प्रवेश हो गया और शतपथ ब्राह्मण के काल तक उन्होंने वैदिक देवों में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया था। उनकी कल्पना आदिपुरुष के रूप में की गई थी और उन्हें भगवत की संज्ञा दी गई थी। इसी नाम पर उनका संप्रदाय भागवत कहलाता था। भागवत धर्म में ही नारायण के साथ पीछे किसी समय विष्णु नामक एक दूसरे देव समाविष्ट हुए। विष्णु का उल्लेख यद्यपि ऋग्वेद में मिलता है पर उनका उस समय विशेष महत्व न था। वे इंद्र के सहायक मात्र समझे जाते थे और देवों में उनका स्थान बहुत नीचे था।

नारायण-विष्णु के उपासकों के लिये पूर्ववर्ती साहित्य और अभिलेखों में भागवत, पंचरात्र, एकांतिन और सात्वत नामों का उल्लेख मिलता है। इससे अनुमान होता है कि नारायण-विष्णु-वासुदेव के एकाकार होने के बावजूद लोकमानस में प्रचलित आस्थाओं के अनुसार उपासकों के बीच भेद बना हुआ था। सात्वत वृष्णियों के उस समाज का नाम था जिसमें कृष्ण वासुदेव उत्पन्न हुए थे और जिनमें मूल रूप से उनकी उपासना प्रचलित थी। इस कारण वासुदेव के उपासक सात्वत कहलाते थे। एकांतिक शब्द का प्रयोग नारायण भक्तों ने वासुदेव उपासकों से अपनी भिन्नता प्रकट करने के लिये किया। पंचरात्र और भागवत नामों का संबंध भी नारायण के माननेवालों से था और वे इस बात के द्योतक हैं कि नारायण के उपासकों के दो वर्ग थे। पहले का संबंध उनके पंचरात्र और दूसरे का संबंध उनके भागवत रूप में था। कालांतर में नारायण के उपासक पांचरात्र और वासुदेव के उपासक भागवत माने जाने लगे अर्थात् नारायण और वासुदेव का भक्तिप्रधान रूप समन्वित हो गया।

संकर्षण और वासुदेव के साथ एक देवी की संयुक्त उपासना भी कुषाण-काल अथवा उससे कुछ पूर्व प्रचलित हो गई थी। ये अनेक कुषाण-कालीन प्रतिमाओं और गुप्तकालीन विष्णुधर्मोत्तर पुराण और बराह-मिहिर कृत बृहत्संहिता से ज्ञात होता है। इस देवी का नाम एकानंशा था और वे वासुदेव (कृष्ण) की धातृमाता यशोदा की पुत्री कही जाती हैं, जिन्हें वसुदेव कृष्ण के बदले ले गए थे। उनकी उपासना वृष्णियों में कृष्ण की रक्षिका होने के कारण होती रही। इसी उपासना क्रम में आज जगन्नाथ पुरी में बलराम, कृष्ण और सुभद्रा की पूजा होती है। एकानंशा ने वहाँ अब सुभद्रा का रूप ले लिया है।

भाई-भगिनी त्रयी की इस उपासना के अतिरिक्त वृष्णियों के पंचवीरों----संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, सांब और अनिरुद्ध की भी एक सामूहिक उपासना प्रचलित थी। मथुरा में प्रथम शती ई. में तोषा नाम्नी एक उपासिका ने पंच वीरों की प्रतिमा स्थापित की थी। जब वासुदेव नारायण-विष्णु धर्म में समाहित हुए तो वीरों के रूप में पूजित उनके इन संबंधियों का भी इस धर्म में समावेश हुआ और एक व्यूह रूप की कल्पना की गई। व्यूहवाद के अनुसार भागवत वासुदेव ने अपने पररूप में अपने में से व्यूह संकर्षण और प्रकृति की सर्जना की। संकर्षण और प्रकृति के संयोग से व्यूह प्रद्युम्न और मानस उत्पन्न हुए। और उन दोनों के संयोग से व्यूह अनिरुद्ध और अहंकार की उत्पत्ति हुई। व्यूह अनिरुद्ध और अहंकार से महाभूत और ब्रह्म की उत्पत्ति हुई जिसने पृथ्वी और उसके अंतर्गत सारी वस्तुओं की रचना की।

गुप्तकाल तक अर्थात् चौथी शताब्दी ई. तक विष्णु और उनके उपासकों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इस काल की जो मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं वे सब वासुदेव की ही हैं। उनमें वे केवल तीन ही आयुध-----शंख, चक्र और गदा धारण किए अंकित हैं। पद्मयुक्त चार आयुधों वाली विष्णु मूर्तियाँ गुप्तकाल और उसके बाद की ही मिलती हैं।

गुप्तकाल के आसपास नारायण-विष्णु-वासुदेव समन्वित धर्म में एक नए तत्व-अवतारवाद का प्रवेश हुआ, जो कदाचित् बौद्ध धर्म के बोधिसत्व के सिद्धांत का प्रभाव था। अब माना जाने लगा कि समय समय पर जब धर्म का ्ह्रास होता है और अधर्म बढ़ता है तब भगवान् विष्णु धर्म की पुन:स्थापना के लिये अवतार लेते हैं। अवतारवाद की इस कल्पना में आरंभ में इस बात का प्रयत्न परिलक्षित होता है कि उस समय तक लोकआस्था में जो अन्य देवता प्रमुख रूप से पूजित होते थे, उन सबको इस धर्म के अंतर्गत समेट लिया जाय। पीछे अवतारों के रूप में विशिष्ट पुरुषों की भी गणना की जाने लगीं। अवतारों की जो प्राचीनतम सूची महाभारत के नारायणी उपपर्व में उपलब्ध है उसमें केवल चार अवतारों का उल्लेख है----वराह, वामन, नृसिंह और वासुदेव कृष्ण। दस और चौबीस अवतारों की सूची बहुत बाद में बनी और उनमें कृष्ण का स्थान आठवाँ है और उन्हें पूर्ण अवतार कहा गया है।

धीरे धीरे अवतारवाद के हेतुसंबंधी दृष्टिकोण में भी परिवर्तन हुआ और भागवत पुराण में एक नया सिद्धांत (दर्शन) प्रतिपादित किया गया। कहा गया कि ईश्वर बैकुंठ आदि धामों में तीन रूपों में रहते हैं----स्वयं रूप, तदेकात्म रूप और आवेश रूप। स्वयं रूप तो स्वयं कृष्ण हैं। तदेकात्म रूप उनके अवतार हैं जो तत्वत: भगवत् रूप होकर भी रूप और आकार में भिन्न होते हैं। आवेश रूप वह है जिसमें भगवान ज्ञान आदि शक्तियों द्वारा उत्तम जीवों में अवशिष्ट होकर रहते हैं। अब यह विश्वास किया जाने लगा है कि भगवान् के अवतार का मुख्य प्रयोजन भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये लीला का विस्तार करना है। ईश्वर के चरित्र का अनुकरण भक्त भक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से करते हैं।

इस नई भावना का उद्भव दक्षिण के अलवार संतों द्वारा हुआ जिनका समय ५०० से ८५० ई. के बीच आँका जाता है। अलवारों के साथ कृष्णभक्ति का सांप्रदायिक रूप मुखर हुआ। दसवीं शती के आसपास आचार्यों ने उसे बौद्धिक अर्थात् दार्शनिक रूप प्रदान किया। दार्शनिक धारणाओं के अनुसार कृष्ण भक्ति ने अनेक संप्रदायों का रूप धारण किया जिनमें श्री (रामानुज), सनक (निंबार्क), ब्रह्म (माध्वाचार्य) और विष्णु संप्रदाय मुख्य हैं। देश के विभिन्न भागों में कृष्ण की उपासना के अपने अलग अलग रूप और संप्रदाय हैं। (परमेश्वरीलाल गुप्त.)