कृष्ण (द्वैपायन) महर्षि पराशर के पुत्र जो व्यास के नाम से अधिक प्रख्यात थे। इनकी माता का नाम सत्यवती (मत्स्यगंधा) था। वे एक धीवरकन्या थी और उनका एक नाम काली भी था। अनुश्रुति है कि महर्षि पराशर जब यमुना पार कर रहे थे तब उनकी दृष्टि मत्स्यगंधा पर पड़ी और उस पर मोहित हो गए। फलस्वरूप व्यास का जन्म हुआ। यमुना के एक द्वीप पर जन्म होने के कारण इन्हें द्वैपायन कहा गया। भागवत पुराण के अनुसार कृष्ण वर्ण के होने के कारण इन्हें कृष्ण द्वैपायन कहा गया। अन्य अनुश्रुतियों में इनके कृष्ण नाम का संबंध इनकी माता काली से है।

सत्यवती (मत्स्यगंधा) का विवाह हस्तिनापुर नरेश, भीष्मपितामह के पिता शांतनु से हुआ। इस विवाह के संबंध से चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुए। चित्रांगद की एक युद्धभूमि में मृत्यु हो गई; विचित्रवीर्य राजा हुए। उनका विवाह काशीराज की कन्या अंबिका और अंबालिका से हुआ। असमयपूर्ण जीवन के कारण विचित्रवीर्य को राजयक्ष्मा का रोग हुआ। उनके अल्पवय में ही संतानहीन मरने के कारण नियोग प्रथा के अनुसार कृष्णद्वैपायन (व्यास) ने विचित्रवीर्य की पत्नियों से संबंध स्थापित किया और उनसे धृतराष्ट्र और पांडु नामक पुत्र हुए जो महाभारत के ख्यात कौरव और पांडवों के जनक थे। कृष्णद्वैपायन के ही पुत्र विदुर थे। उनका जन्म अंबिका की एक दासी से हुआ था।

कौरव और पांडवों के पितामह होने के कारण महाभारत के वृत में इनका अपना महत्व है । उसमें इनका उल्लेख स्थान स्थान पर पांडवों के हितचिंतक के रूप में हुआ है। उन्होने ही पांडवो से द्रोपदी के स्वयंवर की बात कही थी। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय उन्होंने ब्रह्मा का कार्य किया और भीम, अर्जुन, सहदेव और नकुल को क्रमश: उत्तर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम दिशाओं में जाने का सुझाव दिया और युधिष्ठिर को क्षत्रीय संसार का भविष्य बताया था। पांडवो के वनवास काल में उन्हें धैर्य बँधाते रहे। वनवास के प्रारंभिक दिनों में पांडव जब अत्यंत हताश हो रहे थे उस समय इन्होंने उन्हें प्रतिस्मृति विद्या प्रदान की। इस विद्या के कारण अर्जुन ने रूद्र और इंद्र से अनेक प्रकार के अस्त्र प्राप्त किये।

कृष्णद्वैपायन ने तप के द्वारा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। दूरश्रवण और दूरदर्शन आदि अनेक विद्याओं का उन्हें ज्ञान था और उन्होंने अपने इस ज्ञान से महाभारत युद्ध के समय धृतराष्ट्र को दृष्टि प्रदानकर युद्ध देखने में समर्थ बनाना चाहा पर उन्होंने युद्ध का रौद्र रूप देखना अस्वीकार कर दिया। तब द्वैपायन ने संजय को दिव्यदृष्टि प्रदान की ताकि वे धृतराष्ट्र को युद्ध का हाल बता सके। युद्ध के पश्चात् उन्होंने युधिष्ठिर को राजधर्म और राजदंड का उपदेश किया। सेनजित् राजा का उदाहरण देकर निराशावादी न बनने और जनक की बात बताकर प्रारब्ध की प्रबलता और विश्वास करने और मनशान्ति के लिये अश्वमेघ यज्ञ करने की सलाह दी। यज्ञ के पश्चात युधिष्ठिर ने अपना सारा राज्य दान में दे दिया। उसे लेकर पुन युधिष्ठिर को लौटा दिया। और समस्त धन ब्राह्मणों को बाँट देने को कहा।

तदुपरांत जनमेजय ने जब सर्पसत्र के समय कृष्णद्वैपायन से महाभारत का वृत जानने की जिज्ञासा की तो उन्होंने अपने शिष्य वैशंपायन से स्वरचित महाभारत की कथा सुनवाई।

इस प्रकार अनुश्रुति के अनुसार कृष्ण द्वैपायन का जीवन आठ पीढ़ियों से--शाँतनु, विचित्रवीर्य, धृतराष्ट्र, कौरव, पाँडव, अभिमन्यु, परिक्षित, जनमेजय, और, शतानीक से संबद्ध रहा है जिसिसे ज्ञात होता है कि वे दीर्घकाल तक जीवित रहे ।

द्वैपायन की ख्याति वेदरक्षार्थ वेद विभाजन, पौराणिक साहित्य के निर्माण और महाभारत की रचना के लिये है द्वापर युग के अंत में जब वेदों के संरक्षक ब्राह्मणों का ्ह्रास होने लगा तब इस बात की आशंका होने लगी कि समस्त वैदिक वांङमय नष्ट हो जायेगा। तब द्वैपायन ने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद के रूप में चार संहिताओं में विभाजित कर वेद के विभिन्न शाखाओं की स्थापना की। इस कार्य के कारण वह वेदव्यास भी कहे गए और उनका नाम अधिक ख्यात है। लोग उन्हैं द्वैपायनकृण्ण की अपेक्षा व्यास नाम से ही जानते है।

वैदिक साहित्य के पुनस्संकलन के साथ साथ इन्होंने तत्कालीन समाज में प्रचलित आख्यायिकाओं और गाथाओं को संकलित कर पुराण, ग्रंथों की रचना की। प्राचीन भारत के राज्यवंश एवं मन्वंतरों की परंपरा का वर्णन पुराणों का आदि उद्देश्य है। किंतु इसके साथ ही उसमें धर्म और नीति की शिक्षा समन्वित है। पुराणों की रचना के साथ ही उन्होंने पांडवों की विजयगाथा के वर्णन के लिये जय नामक महाकाव्य लिखा और उसमें पांडवों के पराक्रम की चर्चा के साथ साथ तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक, तात्विक बातों को भी समाविष्ट किया। इस ग्रंथ में मूलत २५००० श्लोक थे। इसे उनके शिष्य वैशंपायन ने कंठस्थ किया। पीछे इसका एक परिवर्धित रूप भारत नाम से प्रस्तुत हुआ। इसका पुनस्संस्कार रोमहर्षण सौति ने किया। वही संस्करण आज महाभारत के नाम से उपलब्ध है। अनुश्रुति है कि मूल रूप में गणपति को उन्होंने बोलकर लिखाया था।

अंतिम दिनों में व्यास बदरी वन में रहे। इस कारण इन्हें बादरायण भी कहते है। इस नाम के कारण कुछ लोगों की धारणा है कि ब्रह्मसूत्रों के रचियता बादरायण, कृष्ण द्वैपायन व्यास ही हैं। किंतु यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। सामविधान ब्राह्मण में आचार्यों की जो तालिका है उसमें बादरायण और व्यास का स्वतंत्र उल्लेख है। और दोनों में चार पीढ़ियों का अंतर बताया गया है। (परमेश्वरीलाल गुप्त)