कृष्ण (तृतीय) मान्यखेट के राष्ट्रकूट वंश का नरेश जो ९३९-४० ई० में शासक हुआ । वह धार्मिक प्रवृतिवाले पिता अमोघवर्ष तृतीय के समय ही शासनप्रबंध से संबद्ध रहा। युवराज अवस्था में ही उसने अपने बहनोई बुतुग के गंग राजगद्दी पर बैठाया; चेदि देश पर अभियान कर उसकी सेनाओं को हराया तथा चंदेलों की राज्यसीमा में स्थित कालंजर और चित्रकूट के किलों पर अधिकार कर लिया। शासक होने के बाद उसने अकलवर्ष, परमेश्वर, परमभट्टारक और महाराजाधिराज आदि विरुद धारण किए। और चोल शासक परांतक के प्रदेशो पर अधिकार कर आक्रमण किया तथा अपने बहनोई गंगवाड़ी के शासक बुतुग की सहायता से कांची और तंजौर आदि प्रसिद्ध चोल प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। तोंडैमंडलम् के प्रदेश--आर्काट, चिंगलीपुत्त और वेल्लौर जिले--राष्ट्रकूट शासन में मिला लिये गये। चोलों ने अपने खोए हुए क्षेत्रों से हटाने की ९४९ ई० में चेष्ठा की पर वे तक्कोलम् की लड़ाई में पराजित हुए। इस विजय से उत्साहित होकर कृष्ण (तृतीय) ने सुदूर दक्षिण के पांड्यों और केरलों को हराया तथा सिंहल शासक से कर वसूल किया। अपनी विजयों के उपलक्ष्य में उसने रामेश्वरम् के निकट एक विजयस्तंभ तथा कृष्णेश्वर और गंडमैंर्तंडादित्य नामक मंदिरों की स्थापना भी की।

दक्षिण भारत के युद्धों में व्यस्त रहने के कारण वह उत्तर में अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने की ओर समुचित ध्यान न दे सका। चंदेल नरेश यशोवर्मा और धंग ने उससे कालंजर और चित्रकूट छीन लिया। कान्यकुब्ज के गुर्जर प्रतिहारों के विरुद्ध भी वह कुछ विशेष नही कर सका। हाँ, गुर्जरों के विरुद्ध उसे कुछ सफलता अवश्य मिली । कृष्ण (तृतीय) अपने वंश का अंतिम योग्य शासक, सेनापति और राजनीतिज्ञ था; वह आजीवन दक्षिणी प्रायद्वीप की राजनीति को पूर्णतया प्रभावित करता रहा । ९६८ ई में उसकी मृत्यु हुई। (वि. पा.)