कुरुक्षेत्र हिंदुओं का अत्यंत प्रसिद्ध धार्मिक तथा ऐतिहासिक स्थान। पौराणिक विश्वास है कि कुरु नामक राजर्षि ने इस क्षेत्र का कर्षण किया था जिससे इसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा :

पुरा च राजर्षिवरेण धीमता बहूनि वर्षाण्यमितेन तेजसा।

प्रकृष्टमेतत् कुरुणा महात्मना तत: कुरुक्षेत्रमितीह पप्रथे। (महा., शल्य. ५३।२।)

ऐतरेय ब्राह्मण (७।३०), शतपथ ब्राह्मण (११।५।१।४), शांख्यान ब्राह्मण (१५।१६।१२), तैत्तिरीय आरण्यक (५।१) एवं कात्यायन श्रौतसूत्र में इसका वर्णन प्राप्त होता है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार यह देवाताओं की यज्ञभूमि था। जाबलोपनिषद् में भी इसे देवताओं की यज्ञभूमि बताया गया है। कुरुक्षेत्र का एक अन्य नाम महाभारत में समंतपंचक भी दिया है, और समंतपंचक को उत्तरवेदी के नाम से भी अभिहित किया है।

ब्रह्मा की यज्ञवेदी होने के कारण इसे ब्रह्मदेवी भी कहा गया है। इसकी स्थिति सरस्वती के दक्षिण तथा दृषद्वती के उत्तर है। (वनवर्ष ८३।२०५-२०८)।

गीता में इसे धर्मक्षेत्र कहा गया है: धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रे। हेमचंद ने भी इसे धर्मक्षेत्र कहा है : (धर्मक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं द्वाद्वशयोजनावधि-हेमचंद ४।१३)।

इसी क्षेत्र में कौरव-पांडव युद्ध हुआ था। ऐतिहासिक काल में नंद के समय यह मगध के साम्राज्य के अंतर्गत आया। मौर्यों के शासनकाल मे वह मौयेवंशी राजाओं के राज्य में रहा। मौर्यों के पतन के पश्चात् गुप्तों के काल तक कुरुक्षेत्र का इतिहास पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं है। गुप्तों के बाद थानेश्वर के पुष्यभूतिवंशीय राजाओं ने कुरुक्षेत्र पर राज किया। उनके बाद यह गुर्जर प्रतिहारों और गाहड़वालों के आधिपत्य में रहा। महमूद गज़नवी ने थानेश्वर पर आक्रमण कर कुरुक्षेत्र की चक्रस्वामी नामक विष्णुमूर्ति का ध्वंस कर दिया। उसके बाद दिल्ली के नरेश पृथ्वीराज ने उसे मुसलमानों से मुक्त कर दिया था। पृथ्वीराज तृतीय चाहमान के बाद इसका धार्मिक महत्व कम हो गया। कुरुक्षेत्र की सीमा में ही इतिहास-प्रसिद्ध पानीपत का मैदान है जहाँ भारत के भाग्यपरिवर्तक तीन महायुद्ध हुए। (चंद्रभान पांडें.)