कुरबानी इस्लाम धर्म माननेवाले लोगों द्वारा धार्मिक दृष्टि से किया गया पशुवध। यह प्राय: दो अवसरों पर किया जाता है-(१)ईद-ए-अजहा (जो जिलहिज्जाह मास में दसवें दिन पड़ता हैं)। तथा उसके बाद के तीन दिन (जिसे अय्याम-ए-तशीरक कहते हैं)। ईद-ए-अजहा को फ़ारस में ईद-ए-कुरबान (बलिदान का भोज), तुर्की में कुरबान-बैराम और भारत में बकर-ईद कहते हैं। यह त्यौहार पैगंबर अब्राहम तथा ईश्वर की इच्छा में उनकी निष्ठा और बलि देने की प्रवृत्ति की स्मृति में मनाया जाता हैं। ऐसा कहा गया है कि ईश्वर ने उनसे उनकी अपनी प्रिय वस्तु भेंट में माँगी। अब्राहम अपने पुत्र इस्माइल का सबसे अधिक चाहते थे इसीलिए वे उसका बलिदान करने को तैयार हो गए। ईश्वर की इच्छा का पालन करने के निमित्त किए गए मानवीय प्रयत्नों में इसें श्रेष्ठ तक माना गया, इसीलिए इस्लाम के पैगंबर ने इस घटना की स्मृति में तथा मानवहृदय में त्याग की श्रेष्ठतम भावना और निष्ठा उत्पन्न करने के उद्देश्य से इस त्यौहार की स्थापना की।
(२) प्रत्येक मुसलमान का कर्त्तव्य है कि अपने बच्चे के जन्म पर (कन्या के जन्म पर एक तथा पुत्र के जन्म पर दो) बकरों की बलि दे। इसे अक़ीका उत्सव कहते हैं और यह बहुधा जन्म के ७वें, १४वें, २१वें, २५वें या ३५वें दिन मनाया जाता है।
सं. ग्रं.-दुर्र-उल-मुख्तर (ख़र्रम अली द्वारा उर्दू में अनूदित), चौथा भाग, पृ. १८१ (नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ); सय्यद सुलेमान नदवी : सिरात-उन-नबी, पाँचवाँ भाग, आजमगढ़, १९५३,पृ. ३३४-३८९; टी. पी. ह्यूज: डिक्शनरी ऑव इस्लाम, लंदन, १९३५, पृ. ५५१-५५३; जी. ई. वान गूनेबाम: मुहमडन फ़ेस्टिवल्य।
(ख़लीक अहमद निजामी)