काशीरामदास का स्थान बँगला महाभारत के अनुवादकर्ताओं में अत्यंत उच्च है। इनके पूर्व दो अन्य प्रसिद्ध महाभारत रचयिता हो चुके हैं, एक संजय और दूसरे श्रीकरनंदी। काशीरामदास के महाभारत का आदर पश्चिम बंगाल में बहुत है। कृत्तिवास के समान ही इनकी ख्याति बंगाल के जनकवि के रूप में है। इसमें संदेह नहीं कि काशीरामदास को अपने पूर्ववर्तियों की महाभारत संबंधी रचनाओं से बहुत सहायता मिली है परंतु उनकी मौलिकता में इतने पर भी अंतर नहीं आता। काशीरामदास का महाभारत व्यासरचित संस्कृत महाभारत का अविकल अनुवाद नहीं है। इसमें कुछ पुराणों के उपाख्यान और कुछ पूर्ववर्ती महाभारतों के उपाख्यान हैं। इन उपाख्यानों को इन्होंने अपनी मौलिक प्रतिभा एवं कल्पना द्वारा सुंदर काव्य रूप में उपस्थित किया है। अलंकारों का प्रयोग, भाषा एवं भावों का माधुर्य, इन सबने मिलकर काशीरामदास के महाभारत को अत्यंत लोकप्रिय बना दिया है।
काशीरामदास का जन्म १६वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। अपने महाभारत के प्रारंभ में कवि ने अपना कुछ परिचय दिया है। इसके अनुसार इंद्राणी नामक देश के सिंगि ग्राम में इनका पैतृक निवास था। इंद्राणी बर्दवान जिले के उत्तरांश में स्थित परगना है। काशीराम के प्रपितामह का नाम कमलाकांत, पितामह का सुधाकर एवं पिता का प्रियंकर था। इनके बड़े भाई का नाम श्रीकृष्णदास अथवा श्रीकृष्णकिंकर था। इनके एक छोटे भाई भी थे जिनका नाम गदाधर था। काशीराम के दोनों भाई भी कवि थे। श्रीकृष्णदास अथवा श्रीकृष्णकिंकर की एक रचना 'श्रीकृष्णविलास' नाम से प्राप्त है। इनके छोटे भाई गदाधर के नाम से 'जगन्नाथमंगल' या 'जगतमंगल' नामक एक रचना मिलती है। इसमें कवि ने कई पीढ़ियों तक अपने पूर्वपुरुषों की नामावली दी है। प्रपितामह, पितामह, पिता के नाम काशीरामदास ने भी दिए हैं। इस परिचय में इस बात का उल्लेख मिलता है कि इन लोगों के प्रपितामह उड़ीसा में रहने लगे थे। काशीरामदास ने 'भारतपुराण' पांचाली छंद में रचा, इस बात का भी उल्लेख इसमें है।
काशीराम संपूर्ण पर्वों का अनुवाद नहीं कर पाए थे, ऐसा कहा जाता है; वे केवल आदि पर्व, सभा पर्व एवं विराट् पर्व का अधिकांश लिख पाए थे कि उनकी मृत्यु हो गई। इसका समर्थन उनके भाई के पुत्र नंदरामदास की उक्ति से होता है, जो इनके नाम से प्राप्त महाभारत के उद्योग पर्व के प्रारंभ में है। इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि मेरे 'खुल्ल तात' काव्य संपूर्ण न कर पाए। मृत्यु के समय उन्हें इसका अत्यंत दु:ख था और मेरे यह आश्वासन देने पर कि मैं उसे समाप्त करूँगा, वे मुझे आशीर्वाद देकर स्वर्ग चले गए। उन्हीं के प्रसाद से मैंने यह पुराण रचा है। (र.कु.)