काव्यप्रकाश संस्कृत में अलंकारशास्त्र या आलोचनाशास्त्र का एक नितांत प्रौढ़ पांडित्यपूर्ण ग्रंथ। इसके लेखक राजानक मम्मट हैं। ये काश्मीर के निवासी थे। इनके पूर्वजों के विषय में हम विशेष नहीं जानते, परंतु किंवदंती है कि इनके दो अनुज थे जिनमें महावैयाकरण कय्यट ने पातंजल महाभाष्य की व्याख्या के लिए 'प्रदीप' का प्रणयन किया तथा वेदभाष्यकार उव्वट ने शुक्लयजुर्वेद की माध्यंदिन संहिता का प्रसिद्ध भाष्य लिखा जो इन्हीं के नाम पर 'उव्वटभाष्य' कहलाता है। मम्मट के समय का निर्णय अंतरंग तथा बहिरंग प्रमाणों के आधार पर हम भली भाँति कर सकते हैं। माणिक्यचंद्र का 'काव्यप्रकाशसंकेत' इस ग्रंथ का सर्वप्रथम व्याख्याग्रंथ माना जाता है और इसकी रचना व्याख्याकार के लेखानुसार १२१६ विक्रमी (११५९ ईस्वी) में हुई। मम्मट ने 'उदात्त' अलंकार के उदाहरण में महाराजा भोज (११वीं शती का पूर्वार्ध) की दानशीलता का वर्णनपरक एक पद्य दिया है जिससे निश्चित है कि वे भोजराज से अर्वाचीन तथा माणिकयचंद्र से प्राचीन थे। फलत: उनका समय ११वीं सदी का अंत तथा १२ वीं का आरंभ (लगभग १०७५-११२५ ई.) मानना उचित है।
ग्रंथ का रूप–काव्यप्रकाश के तीन अंश हैं–कारिका (१४२ कारिकाएँ), वृत्ति (गद्यात्मक) तथा उदाहरण। इनमें उदाहरण तो निश्चित रूप से प्राचीन नाना ग्रंथों से संगृहीत हैं। कारिका तथा वृत्ति के रचयिता के विषय में विद्वानों में मतभेद है। बंगाल के पंडितों में यह प्रवाद है कि मम्मट ने केवल वृत्तिग्रंथ का प्रणयन किया था; 'कारिका' तो भरतमुनि की रचना है। परंतु इस प्रवाद में तथ्य नहीं, कुछ कारिकाएँ भरत के नाटयशास्त्र से अवश्य ली गई हैं, परंतु उनकी संख्या छह या सात से अधिक नहीं है। फलत: मम्मट दोनों अंशों के प्रणेता हैं–कारिकाओं के भी तथा वृत्ति ग्रंथ के भी। दोनों के समानकृत्तत्व होने का अंत:प्रमाण ग्रंथ के दशम उल्लास में स्वत:उपलब्ध होता है। मम्मट की एक कारिका है जिसमें कहा गया है कि 'मालारूपक' मालोपमा के सदृश ही होता है (सांगनेतत् निरंगंतु शुद्धं माला तु पूर्ववत् काव्यप्रकाश, दशम उल्लास, कारिका ९४) परंतु मालोपमा का वर्णन कारिका में है ही नहीं। वह तो वृत्ति में ही किया गया है। ऐसी दशा में 'मालातु पूर्ववत् का क्या तात्पर्य है? इससे यह प्रतीत होता है कि एक ही व्यक्ति कारिका तथा वृत्ति के प्रणयन का कर्ता है जो साथ-साथ लिखता गया है। इसलिए अवांतर कारिका में पूर्ववर्ती वृत्ति का उल्लेख किसी प्रकार भी अनुचित या असमंजस नहीं माना जा सकता।
काव्यप्रकाश के दशम उल्लास में 'परिकर' अलंकार तक ही मम्मट की रचना है। शेष ग्रंथ को (अर्थात् ग्रंथ की अंतिम २४।। कारिकाओं को) अल्लट (या अलक) नामक कश्मीरी विद्वान् ने लिखकर पूरा किया; इस काश्मीरी पंडित परंपरा का उल्लेख राजानक आनंद ने काव्यप्रकाश की 'सारसमुच्चय' नामक अपनी टीका में किया है। इसका अनुसरण अवांतर टीकाकारों ने भी किया है। अर्जनवर्गदेव ने अपनी 'अमरुकशतक टीका' में एक पत्ते की बात लिखी है कि अलक (अल्लट) ने सप्तम उल्लास के प्रणयन में भी मम्मट का हाथ बटाया था और काव्यप्रकाश के दोनों रचयिताओं को वे दोषदृष्टिवाला बतलाते हैं (काव्यप्रकाशकारी प्रायेण दोष दृष्टी)। इन निर्देर्शो से यह निष्कर्ष निकालना असंभव नहीं है कि मम्मट को काव्यप्रकाश के सप्तम तथा दशम उल्लासों की रचना में अल्लट का सहयोग हुआ था।
टीकासंपत्ति–काव्यप्रकाश की टीकासंपत्ति अतुलनीय है। इतनी टीकाएँ किसी भी अलंकार ग्रंथ के ऊपर विरचित हुई थीं, इसका पत्ता नहीं चलता। टीकाओं की संख्या लगभग ७० के आ सकती है। ग्रंथ तो कारिकाबद्ध है, परंतु यह सूत्रग्रंथ के समान ही विपुलार्थमंडित, गंभीर तथा रहस्यमय है। इसलिए इसके गंभीर अर्थ की व्याख्या के लिए नवीन व्याख्याग्रंथों की रचना नितांत स्वाभाविक है। सच तो यह है कि प्राचीन काल में काव्यप्रकाश पर टीकाप्रणयन विद्वत्ता का मापदंड माना जाता था। तभी तो 'अलंकारसर्वस्व' जैसे नूतन अलंकार ग्रंथ के प्रणेता राजानक रुय्यक ने और 'साहितयदर्पण' जैसे सर्वागपूर्ण आलोचना ग्रंथ के निर्माता विश्वनाथ कविराज ने काव्यप्रकाश के ऊपर व्याख्या लिखे बिना अपने प्रखर पांडित्य को भी अधूरा समझा। प्रमुख टीकाकारों में हैं–माणिक्यचंद्र सूरि (संकेत टीका; रचनाकाल ११६० ई.), चंडीदास (१३वीं शती, दीपिका), गोविंद ठक्कुर (काव्यप्रदीप; १४वीं शती का अंतभाग), भीमसेन दीक्षित (सुधासागर या सुबोधिनी, रचनाकाल १७२३ ई.), जयंतभट्ट (दीपिका, र.का. १२९४ ई.), विश्वनाथ कविराज (काव्यप्रकाशदर्पण, १४वीं शती), कमलाकर भट्ट (१७वें शतक का पूर्वार्ध), परमानंद चक्रवर्ती (विस्तारिका, १४वीं शती)।
विषयविवेचन–काव्यप्रकाश में दस उल्लास (परिच्छेद) हैं जिनमें काव्य के स्वरूप, भेद, तथा काव्यांग (जैसे गुण, दोष, अलंकार, रस ध्वनि) का विशेष विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसके प्रथम उल्लास में काव्य के हेतु, लक्षण तथा प्रकार का वर्णन है। द्वितीय में शब्दशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने का आयोजन है। षष्ठ में चित्रकाव्य का सामान्य वर्णन है। सप्तम में काव्यदोषों का बड़ा सांगोपांग विवेचन है। अष्टम में काव्यगुण के लक्षण तथा प्रकार का वर्णन है। नवम तथा दशम में क्रमश: शब्दालंकार और अर्थालंकार का निरूपण उदाहरणों के साथ बड़ी व्यापकता से किया गया है। इस सामान्य विवरण से भी ग्रंथ की गंभीरता, व्यापकता तथा युक्तिमत्ता का किंचित् परिचय मिल जाता है।
वैशिष्टय–काव्यप्रकाश ध्वनिवाद के उत्थान के अनंतर लिखा गया ग्रंथ है। नवीन होने के कारण 'ध्वनि' के सिद्धांतों का आलोचकों ने बड़ी अंतरंगता के साथ खंडन प्रस्तुत किया। इन विरुद्ध मतों का तर्क तथा युक्ति के बल पर प्रबल खंडन करने का श्रेय आचार्य मम्मट को दिया जाता है और इसी कारण वे 'ध्वनिप्रस्थापन परमाचार्य' की महत्वपूर्ण उपाधि से मंडित किए गए हैं। काव्यप्रकाश में काव्यालोचना की विविध पद्धतियों का जो समन्वय है, वह अलंकार के इतिहास में एक नितांत महत्वपूर्ण घटना है। प्राचीन आचार्यो की आलोचना एकांगी है। कोई अलंकार के विवेचन में प्रस्तुत है, तो कोई रीति के; कोई रस का विवेचक है, तो कोई ध्वनि का। परंतु काव्य के व्यापक रूप को दृष्टि में रखकर पूर्ववर्ती समस्त आलोचना शैलियों का सामंजस्य उपस्थित करना काव्यप्रकाश का निजी वैशिष्टय है।
सं.ग्रं.–पी.वी. काणे, हिस्ट्री ऑव अलंकार शास्त्र, परिवर्धित सं.,बंबई, १९५५; एस.के.दे : संस्कृत पोएटिक्स, दो भाग, लंडन; बलदेव उपाध्याय : भारतीय साहित्य शास्त्र, प्रथम खंड, काशी, सं. २००७ तथा द्वितीय खंड, काशी, सं. २०१४; डा. सत्य्व्रातसिंह : हिंदी काव्यप्रकाश, काशी, १९६०। (ब.उ.)