काव्य (व्युत्पत्ति) ''कवि की कृति या भाषामयी सृष्टि को 'काव्य' (लोकोत्तरवर्णना निपुणस्य कवेरिदं कर्म भावो वा काव्यम् ) कहते हैं।''

लौकिक साहित्य की परंपरा में वाल्मीकि आदिकवि हैं, रामायण आदिकाव्य है, व्यास पुराणकवि हैं, एवं महाभारत पुराणकाव्य है। अर्थवैशिष्टयपूर्ण, प्रतिभा से उद्भासित, कल्पना से आकलित, भाव से उन्मिषित् शब्दमयी सृष्टि का सर्जक 'कवि है। इस वाणीमयी सृष्टि केकाव्यत्व के आविर्भावार्थ, उसका (काव्य का) प्रतिभाप्रेरित होना, कल्पना और भावना से अनुप्राणित होना, वर्णन और अभिव्यंजन की निपुणता से चारुतासंपन्न होना तथा देश, काल और समाज का अनुसरण करनेवाले लोकशास्त्र के कलाशिल्पी द्वारा निर्मित होना आवश्यक है, क्योंकि कवि ही अपने काव्यलोक की सर्जना का स्वच्छंद प्रजापति है। वह द्रष्टा भी है और स्रष्टा भी।

'कवि'शब्द सापेक्ष्य परंपरालब्ध उक्त अर्थ के अतिरिक्त भी, भारत और पश्चिम के आचार्यो ने काव्य के परिचेय लक्षणों का आख्यान किया है। अधिकांश भारतीय आचार्यो ने, ऐसा लगता है, विशिष्ट प्रकार के शब्द और अर्थ को काव्य का दृश्य कलेवर माना है। विशिष्ट प्रकार के शब्द और अर्थ को काव्य का दृश्य कलेवर माना है। मुख्य और आत्मस्थानी तत्व इससे कुछ अन्य है। काव्य की आत्मा वही तत्व है जिसका निर्धारण और निरूपण करते हुए भारतीय आचार्यो के मतानुसारी शास्त्रीय संप्रदाय ही चल पड़े।

इन संप्रदायों के लक्षण सूचित करते हैं कि कुछ आचार्यो ने बाह्म उपादानों (गुण, रीति, शब्दार्थालंकारों) को काव्य में प्रमुख माना तो दूसरों ने रस, ध्वनि आदि आभ्यंतर तत्वों को। इन लक्षणों के अलावा साहित्य शास्त्रियों ने अपने आलोचनाग्रंथों में 'काव्य' का परिचायक अभिज्ञानलक्षण भी बताया है। उनके प्रतिपाद्य का विश्लेषण करने पर निष्कर्ष निकलता है कि कुद ने विशिष्ट प्रकार के 'शब्द' को और कुछ ने विशिष्ट प्रकार के 'शब्द और अर्थ के युगल' को 'काव्य' माना है। 'विशिष्ट शब्द अर्थ के युगल' को काव्य माननेवालों में प्रथम भरत मुनि हैं। दृश्य काव्य के संदर्भ में उन्होंने शुभ (श्रव्य या पाठय) काव्य की विशिष्टता बताई है। वहीं अलंकार और रस के मूल तत्वों का संकेत मिलता है। भरत के अनंतर भामह, रुद्रट, और उद्भट ने 'शब्दार्थो सहितौ काव्यम्' के सिद्धांत को मानकर शब्द और अर्थ के साहित्य मात्र को काव्य बताया एवं गुणसंपन्न शब्दार्थयुगल को ही वे 'काव्य' मानते हैं। वक्रतापूर्ण कविव्यापार से संपन्न एवं काव्यरसिकों को प्रसन्न करनेवाले शब्दार्थ के साहित्य की सर्जना को 'कुंतक' ने भी काव्य माना है। 'मम्मट' का मत मानते हुए 'हेमचंद्र' ने भी दोषरहित, गुणसहित, कहीं सालंकार और कहीं, अनलंकृत शब्द-अर्थ-युगल को ही 'काव्य' स्वीकार किया है। 'प्रतापरुद्रीय' और 'अलंकारचंद्रिका' नामक ग्रंथों में भी प्राय: यही मत अंगीकृत है। इस धारा का विश्लेषण करने पर दो आचार्यो के लक्षणों की प्रधानता लक्षित है। प्रथम हैं भामह, जिन्होंने निर्विशेष रूप से शब्द और अर्थ के सहभाव में काव्यत्वनिर्देश किया (यद्यपि उनके ग्रंथ में, भेदक वैशिष्टय का निरूपण किया गया है), अन्य भेदक गुणधर्मो का नहीं। रुद्रट, उद्भट आदि ने उसी का अनुसरण किया। वामन ने आगे बढ़कर, शब्दार्थ में गुणालंकार के परिष्करण को काव्यत्व के लिए स्पष्टत: अपेक्षित माना। उनके मत में 'अलंकार' का व्यापक अर्थ यहाँ गृहणीय है, न कि संकुचित अर्थ। गुण भी केवल शब्द के ही नहीं, रीतिवादी वामन ने यहाँ अर्थ के भी माने गए हैं। द्वितीय प्रमुखता 'मम्मट' के लक्षण की है, जिसे थोड़े हेरफेर के साथ, हेमचंद्र आदि ने ग्रहण कर लिया। काव्यसामान्य के लक्षण में समानता दिखाई देने पर भी इनके ग्रंथों का अध्ययन सूचित करता है। कि काव्यचित्र की इनकी धारणाओं (कंसेप्शंस) में प्राय: अंतर है। वामन रीति को आत्मा और शब्द-अर्थ को शरीर, मानते हैं तो 'ध्वनिकार' के मत से 'ध्वनि' और उसमें भी 'रसध्वनि' काव्य की आत्मा है तथा शब्दार्थ उसके प्रत्यायक उपकरण हैं। मम्मट भी रस को अंगी या आत्मस्थानीय तत्व मानते हैं और गुणों को उसके धर्म। निष्कर्ष यह कि इन आचार्यो के अपने-अपने विषयविस्तार में विविधता है। कोई बाह्य अंग का मुख्यत: परिचायक है और आंतर तत्व का संक्षेपत: जैसे–दंडी, वामन, रुद्रट आदि; तो दूसरे–आनंदवर्धन, अभिनवगुप्त, मम्मट आदि–आभ्यंतर तत्व का गंभीर अध्ययन प्रस्तुत करते हैं। विशिष्ट शब्दमात्र के काव्यत्वसमर्थकों में दंडी प्रथम हैं। इन्होंने इष्ट-अर्थ-युक्त पदावली को 'काव्य' (काव्यं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली) कहा है। 'अग्निपुराण' भी इसे ही मानता है, पर मम्मट के समान काव्य का गुणसहित, दोषरहित और स्फुटालंकारयुक्त होना वहाँ आवश्यक है। काव्य में रस की महत्ता माननेवाले शौद्धोदनि और केशव मिश्र ने 'रसादि से युक्त सुखविशेषकारक भणिति' को काव्य माना है। जयदेव के 'चंद्रालोक' में–'निर्दोष, लक्षणवाली, रीतिगुणभूषिता और वृत्तियोंवाली वाणी, को ही 'काव्य' बताया गया है। यहाँ 'काव्य' के बाह्यांगों के साथ-साथ वृत्तियों और रसादि की भी महनीयता स्वीकृत है। 'साहित्यदर्पण' में विश्वनाथ ने 'रसात्मक काव्य को ही काव्य माना है। रस के अंतर्गत रस, रसाभास, भाव, भावाभास आदि भी अंतर्भुक्त हैं। काव्यलक्षण में दोषराहित्य एवं गुणसाहित्य को विशेषण न मानकर उन्होंने गुणदोषों को काव्य के उत्कर्षक-अपर्षक रूप में ग्रहण किया है। पंडितराज जगन्नाथ ने 'रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द' को ही काव्य का पद दिया है। 'रमणीय' से यहाँ 'लोकोत्तर आनंद' का अर्थ अभिप्रेत है। इस रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द काव्य है। 'विशिष्ट शब्दवादी' धारा में शब्दप्रतिपाद्य अर्थ को कहीं 'इष्टार्थरूप' माना है तो कहीं 'अलंकाररूप' में, कहीं उसे 'रसात्मक' कहा है तो कहीं 'रमणीय'। भोजराज के लक्षण में दोषहीनता, गुणयुक्तता, सालंकृतता के साथ रसयोग तो आवश्यक है, पर यह स्पष्ट नहीं होता कि वे शब्दवादी हैं या शब्दार्थवादी। संभवत: वे शब्दार्थवादी ही हैं। कुंतक ने केवल 'विशिष्ट अर्थ' को काव्य माननेवाले तीसरे वाद का भी संकेत किया है। सारांश यह कि विभिन्न आचार्यो के विविध मतों में रीति, गुण, अलंकार, रस, भाव आदि प्राय: सभी तत्वउपादान और उपकरण तो हैं पर एक ने यदि किसी तत्व को सर्वप्रथम और अन्य को सहायक माना तो दूसरे ने इतर को प्रधान और अन्य को सहायक। मम्मट ने कविभारती के (काव्य की अभिनंदना के संदर्भ में) काव्य का कुछ व्यापक स्वरूप उपस्थित करते हुए कहा है–'कवि की सर्जना, नियतिकार स्रष्टा की सृष्टि से सर्वथा स्वतंत्र है, सृष्टिनियम के बंधनों से मुक्त। वह सौंदयनिंद एवं कलात्मक सुखानुभूति से अंतर्बहि: ओतप्रोत है, नव-नव रसभावों की मनोहारिता से पूर्ण।' सामान्यत: कारयित्री प्रतिभा से संपन्न कवि के रचनाविशेष को भारतीय आलोचकों ने काव्य माना है। वहाँ गद्य-पद्य का भेद नहीं है। स्थूलत: उसके दो भेद हैं, (१) श्रव्य काव्य और (२) दृश्य काव्य। प्रथम के पुन: तीन भेद हैं–(क) गद्यकाव्य (कथा, आख्यायिका आदि), (ख) पद्यकाव्य (महाकाव्य, खंडकाव्य)जो दोनों एक प्रकार से प्रबंध काव्य के ही भेद हैं(मुक्तक आदि), (ग) चंपू (गद्य-पद्य-उभयात्मक)। द्वितीय के अंतर्गत रंगमंच पर अभिनेय संवादात्मक समस्त नाट्यविधाओं का समावेश है। यहाँ यह स्मरणीय है कि छंदोबद्ध पद्यमात्र काव्य नहीं है। आवश्यक और उपकारक उपादानों के योग से ही पद्य को काव्य की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यह भी स्मरणीय है कि संस्कृत में केवल पद्यात्मक कविकृति को ही 'काव्य' नहीं मानते अपितु 'कादंबरी' जैसी गद्यात्मक रचना भी 'काव्य' कही गई है। आधुनिक हिंदी में 'गद्यकाव्य' नामक विधा भी गद्य में ही निर्मित होती है। मात्राओं और वर्णो पर आधारित छंदों के न रहने पर भी लयपूर्ण साहित्योक्ति को कविता कहते हैं। वर्ण-मात्राबंधन-रहित पर लय (यति-बंध-रहित) पर लय (रिद्म) और आरोहावरोहमयी भाषा में स्वच्छंद छंद या निर्बध छंद की कविता आज प्रचलित है जो पद्यात्मक नहीं–गद्याभास होती है। अत: 'स्वच्छंद छंद' और 'निर्बध' गद्याभास रचना भी उपर्युक्त वैशिष्टयसंपन्न होने से कविता मानी जाती है। कोटिस्तर की दृष्टि से मम्मट ने (तथा साहित्यदर्पण में भी) काव्य के तीन भेद कहे हैं(१) उत्तम (ध्वनिकाव्य), जहाँ वाच्य और लक्ष्य अर्थो की अपेक्षा व्यंग्यार्थ प्रधान और चारुतर हो, (२) मध्यम, जहाँ व्यंग्यार्थ का गौण स्थान हो और वाच्य अलंकारादि मुख्य और रम्यतर हों, तथा (३) अवर (या अधम, चित्रकाव्य), जहाँ मुख्यत: शब्द और अर्थ के अलंकार या अलंकारों का ही प्राधान्य और चमत्कार हो, व्यंग्यार्थ का नहीं। ये ही भेद विभेद प्राय: आगे भी मान्य रहे। 'पंडितराज ने एक और भेद जोड़कर कमबेश उसे ही स्वीकार कर लिया है। वस्तुत: देख जाए तो 'ध्वन्यालोक' का 'रसवाद', मम्मट का समर्थन पाकर, प्रमुख रूप से चलता रहा। भोज ने 'शृंगार' को रसमूल मानकर रस सिद्धांत में एक नई कड़ी जोड़ी पर वह मत चला नहीं। काव्यनिर्माण के उद्भावक हेतु का विचार करते हुए (१) 'शक्ति' (काव्यकल्पना की क्षमतायुक्त प्रज्ञा या प्रतिभा), (२) 'निपुणता' (व्युत्पत्ति,शास्त्रज्ञानजन्य योग्यता) और (३) 'अभ्यास'–इन तीनों को समुचित रूप से उद्भव कारण बताया गया है। पर किसी-किसी आचार्य ने इस समन्वित तत्व को ही 'प्रतिभा' सिद्ध करते हुए उसे ही उद्भवहेतु माना है। 'कारयित्री प्रतिभा' से काव्यसर्जना और 'भावयित्री प्रतिभा' से समीक्षाक्षमता प्राप्त होती है। मम्मट द्वारा निर्दिष्ट काव्यप्रयोजन की सीमा व्यापक तथा व्यावहारिक है। उनके अनुसार काव्य का निर्माण यश के लिए, धन के लिए, अशिव की निवृत्ति और शिव की साधना के लिए, व्यवहारज्ञान के निमित्त, कांतासम्मित मधुर-मनोहर उपदेश और शिक्षा के लिए तथा ब्रह्मास्वादसहोदर काव्यानंद का आस्वादन करने के लिए होता है।

पाश्चात्य आलोचना की दृष्टि से काव्यकला पाँच ललित कलाओं में सर्वप्रमुख है। माध्यम की स्थूलता एवं इंद्रियमूलकता के कारण 'वास्तु' और 'मूर्ति' कलाओं की प्रभावव्याप्ति में गत्वरता कम है। 'चित्र' और 'संगीत' कलाओं की वर्णयोजना और स्वरयोजना में स्थूलता, है। परंतु काव्यकला (या साहित्यकला) शब्दमाध्यम से जिन अर्थचित्रों या भावचित्रों की उद्भावना करती है उनमें सबसे अधिक गत्वरता है, अतएव प्रभावव्याप्ति भी व्यापकतर तथा अधिक सशक्त है। काव्य का संबंध भाव और अनुभूति, चेतना और संवेदना, प्रतिभा और कल्पना से होने के कारण वह मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण शास्त्र की निरूपणसीमा से आश्लिष्ट है तथा कलाविद्या होने से सौंदर्यशास्त्र की विवेचनपरिधि भी उसका संस्पर्श करती है। साहित्य का एक रूप होने से साहित्य-शास्त्रीय आलोचना और मानव-समाज-संपृक्त होने से सामाजिक शास्त्र भी उसके विनियोग-उपयोग का विचार करते हैं। फलत: पश्चिम के दार्शनिकों, सौंदर्यशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, साहित्यालोचकों और सामाजिकशास्त्रज्ञों ने नाना दृष्टिबिंदुओं से, बड़ी गहराई के साथ काव्य का अनुशीलन किया है। उन्होंने काव्य के बाह्य-आभ्यंतर उपकरणों और निर्माणप्रेरणाओं के साथ-साथ रचनाशिल्प, अभिव्यक्तिशैली, प्रभाव की प्रक्रिया एवं सीमा आदि का विश्लेषणात्मक दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत किया है। इसी संदर्भ से उन विचारकों ने काव्य के लक्षण और उसकी परिभाषाएँ भी अनेक रूपों में दी हैं। (ललित) कला को, काव्य को प्लेटो ने 'वस्तु की अनुकृति की अनुकृति' कहते हुए उसे अमूर्त शाश्वत सत्ता के अवास्तविक, पर गोचर आकृति का अनुकरण बताया है तथा धार्मिकता और नैतिकता से विरुद्ध एवं असत्य का प्रचारक तथा अशिव मानकर उसे समाज के लिए निषिद्ध घोषित किया है। अरस्तू ने काव्य को वस्तुसत्ता की अनुकृति मानते हुए भी उसे 'सुदंर' तथा 'सुखद' माना। उन्होंने प्लेटो के अर्थ से भिन्न 'अनुकृति' का तात्पर्य ग्रहण करते हुए 'अनुकृति' को पुन:सर्जना (रिक्रियेशन) का रूप प्रदान किया। नृत्य, गान और चित्रकला के समान अनुकृतिमूलक होकर भी, काव्यकला अपने साधन, प्रयोजन और अनुकरणप्रक्रिया की भिन्नता के कारण, उनसे भिन्न है। 'अनुकृति' का 'काव्य' माननेवाले इन दार्शनिकों के मत से काव्य का स्वरूप सत्तात्मक न होकर असत्तात्मक (या अभावात्मक) आधार पर स्थित है। अत: असत्य या भ्रांति भी उसे कह सकते हैं। सिडनी का कथन है कि 'काव्य तो अनुकरण की ही कला हैं; या अलंकृत भाषा में कह सकते हैं कि वह ऐसा बोलता हुआ चित्र है जो शिक्षा और आनंद देता है।' इसी ढंग की बात कालरिज ने भी कही है–'काव्य-सत्यान्वेषी, सत्यशोधी विज्ञान का उलटा है। उसका उद्देश्य आनंद देना है, सत्य नहीं।' उन्होंने यह भी बताया कि 'सुष्ठुतम शब्दों की उत्कृष्टतम या चारुतम योजना ही काव्य है।' मेकाले ने भी काव्य में अलीकचित्र (इल्यूज़न) को महत्व देते हुए कहा है–'काव्य उस कला को कहते हैं जिसें शब्दों का विनियोजन इस ढंग से किया जाए कि वे कल्पना में अलीकचित्र की सर्जना करें।' चित्रकार रंगों से जो प्रभाव उत्पन्न करता है, वही काव्यकार शब्दों से करता है। इन मतों के अनुसार काव्य प्राय: असत्य या अलीकचित्र उत्पन्न करता है जिनसे कभी शिक्षा मिलती है, कभी आनंद और कभी दोनों। दूसरी ओर बान नाफ़ काव्य को 'सत्य की संवदेना का मुखर प्रयास' मानते हैं। कैंपबेल भी उसे 'सत्य का मुख्य स्वरूप' स्वीकार करते हैं। ओ.डब्ल्यू. हेल्म के अनुसार 'काव्य का लक्ष्य सत्य की उज्जवल ज्योति का प्रकाशन है, पर उसे प्रभावशाली बनाने के लिए उसमें इंद्रधुनष की सी मोहक रंगीनी भी आवश्यक है।' इस परिचय में साध्यनिर्देश के साथ-साथ साधनशिल्प का भी संकेत है। जानसन का कहना है कि 'काव्य छंदोमयी निर्मिति है। उसमें कल्पनासहकृत विवेक द्वारा सत्य का, आनंद के साथ संयोजन स्थापित होता है'। इन लक्षणों से काव्य में 'सत्य' का संपर्क सूचित होता है। मिल ने बताया है–'काव्य उन विचारों और शब्दों (शब्दों अर्थों) को कहते हैं जिनमें सहज और आयासहीन ढंग से भाव (और आवेग) घुले मिले हो'। यहाँ काव्य में भावतत्व का स्पष्टत: समावेश लक्षित है। हेज़लिट भावना के साथ कल्पना को भी आवश्यक बताते हैं। उनके मत से 'कल्पना' और भावावेश की भाषा ही काव्य है।' ले हंट का कथन है–'सत्य, सौंदर्य और शक्ति के वेगमय भावों का अभिव्यंजन ही काव्य है और इस अभिव्यक्ति में विचारों को आत्मसात् करके कल्पना और भावना द्वारा उन्हें स्पष्ट किया जाता है'। यहाँ सत्य, सुंदर, शक्ति, कल्पना, भावना–इन सभी तत्वों के समन्वय से 'काव्य' का सर्जन माना गया है। कारलाइल के मत से भी, 'मनोवेगयुक्त संगीतमय भाषा में मानव के अंतस्तल की साकार एवं कलामय अभिव्यक्ति काव्य है'। मैथ्यू आर्नल्ड यद्यपि काव्य को 'जीवन की समीक्षा' मानते है तथापि वे कहते हैं कि 'काव्य, मानवप्राणी की उस अभिव्यक्ति का सर्वाधिक पूर्णतम रूप है जिसे प्रकट करने की क्षमता मनुष्य के शब्दों को ही हो सकती है।'

एडगर ऐलेन पो ने 'सौंदर्य की लयपूर्ण सर्जना' को ही काव्य माना है। 'भावना के अतिभार से मुक्त वाङमयप्रवाह' को काव्य कहते हुए कैबेल ने काव्य में भावतत्व की सर्वाधिक महत्ता प्रतिष्ठित की है। रस्किन कहते हैं कि 'कल्पना द्वारा उदात्त भावों के लिए उदात्त भूमिका को जा संकेत मिलता है, वही काव्य है।' इस लक्षण में कल्पना और भावना का सहकृत महत्व प्रतिपादित है। कोर्टहोप के मत से 'छंदोमयी भाषा में कल्पनाप्रवण विचारों और अनुभूतियों' की समुचित अभिव्यक्ति द्वारा आनंदसर्जना की कला ही काव्य है।' वाट डैटन भी मानते हैं कि 'भावुकतामयी और लयपूर्ण भाषा मे मानव अंत:करण की मूर्त और कलात्मक अभिव्यक्ति ही काव्य है।' अनेक परिभाषाओं और लक्षणों की चर्चा करने के अनंतर हडसन ने 'साहित्य को जीवन की व्याख्या' मानते हुए इस साहित्यविधा के विषय में कहा है'इसमें (काव्य में) जीवन के तथ्या, अनुभूतियों और समस्याओं की ऐसी विवृत्ति होती है जिसमें भावनाओं और कल्पनाओं की सर्वाधिक प्रमुखता रहती है। इन आचार्यो के अलावा कवियों ने भी काव्य के रूपपरिचय को लेकर अपने मत व्यक्त किए हैं। 'मिडसमर नाइट्स ड्रीम' में शेक्सपियर ने कहा है'कल्पनालोक में विहार करती हुई कविदृष्टि भूतल से स्वर्ग तक का साक्षात्कार करती रहती है। कवि को कल्पना अज्ञात वस्तुओं को आकार देती है तथा उसकी लेखनी अस्तित्वहीन वायवी वस्तुओं को मूर्त बनाकर उसे नाम और ग्राम प्रदान करती है।' इस कथन में कवि की प्रतिभाजुष्ट कल्पना को प्रमुखता दी गई है। पर उनके परवर्ती कवि मिल्टन ने कहा है कि 'काव्य को सरल, सहज, इंद्रियानुभूतियों का महत्व स्वीकार किया है। वर्ड् स्वर्थ ने कल्पना नहीं, भावना को ही महत्व देते हुए कहा है'प्रबलतर अनुभूतियाँ का स्वच्छंद और सवेग प्रवाह ही काव्य है।' इसके स्रोत हैं, शांतिमय क्षणों में स्मृतिपथागत भावावेग।' रोमैंटिक कवि 'शेली' कल्पना को ही मुख्य तत्व मानकर कहते हैं'कल्पना की अभिव्यक्ति को काव्य की सामान्य परिभाषा कह सकते हैं।' पर उन्होंने उक्त अभिव्यक्ति को सदा 'आनंदसंपृक्त' माना है। कला, सौंदर्य और तज्जन्य निरपेक्ष आनंद का निषेध करके, समाजदृष्टि के समर्थक तोल्स्तोइ ने, काव्य का एक निर्दिष्ट लक्ष्य मानते हुए कहा है'काव्य (कला), मानव एकता का वह साधन है जो मानव-मानव को रागत्मक सहअनुभूति द्वारा परस्पर संबद्ध करता है।' पर इस लोक-प्रेम-प्रचारक अतिवाद से पूर्णत: भिन्न और विपरीत वेनेदेत्तो क्रोचे का अतिवाद है जब वे केवल अभिव्यंजना को कला या काव्य कहते हैं। अभिव्यंजना को वे 'सहजानुभूतिरूप' मात्र मानते हैं, न उससे कम, न अधिक। उनके यहाँ प्रातिभज्ञान (इंटयूशन) और कल्पना का अतिआग्रहपूर्ण महत्व है। इसी प्रकार मन:शास्त्र की दृष्टि से मानवशास्त्री फ्रायड 'सामाजिक प्रतिबंधों के कारण, मानव मन की दमित, स्वप्नसंकाश वासनाओं की विशिष्ट अभिव्यक्ति को काव्य' मानते हैं। काव्य में समाजवादी धारा के समर्थक 'प्रगतिवादी' समीक्षकों के अनुसार'सतत गतिशील समाज के सामाजिक यथार्थ को पहचानकर, स्वस्थ एवं प्रगतिशील तत्वों की, जनवर्ग के उत्थान एव कल्याण के लिए, जनबोध्य भाषा में विशेष प्रकार की अभिव्यक्ति ही काव्य है।' हिंदी के प्रमुख आधुनिक एवं पाश्चात्य पद्धति के आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने काव्य के परिचय के संदर्भ में कहा है'जैसे आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा है, वैसे ही हैदय की मुक्तावस्था रसदशा है। हृदय की उस मुक्तिसाधना के लिए वाणी जो शब्दविधान करती आई है उसे कविता (काव्य) कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का समकक्ष मानते हैं।' इस प्रकार शुक्ल जी के अनुसार भावयोग की साधना के शब्दविधान के विधाविशेष को काव्य कहना चाहिए जिसका तात्पर्य होगा 'ब्रह्मास्वादसहोदर रस का आस्वादन कराना'।

काव्य की इन विभिन्न परिभाषाओं और लक्षणों के मतसार का परिशीलन करने से कई बातें सामने आती हैं। काव्य की आरंभिक अवस्था में छंद की प्राय: अनिवार्यता थी। सभी साहित्य के आरंभिक काव्य (प्राय: भारत का ही नहीं, वरन् विश्व के आद्यतम उपलब्ध साहित्य, ऋग्वेदसंहिता की ऋचाएँ छंदों में ही हैं) छंदोबद्ध ही मिलते हैं। देवों की स्तुति, ऋक्सामगान, जादू-टोने के मंत्र-तंत्र से संबद्ध साहित्य के आदिम रूप में पद्यों और पद्यात्मक काव्यों का ही आविर्भाव हुआ। चमत्कार, विस्मय, कुतूहल, भय, श्रद्धाधिक्य आदि उसके प्रेरक थे। भारतीयों के वैदिक मंत्र, मिस्रवासियों के मृत्युसंबंधी मंत्र, चीनियों के प्राण और शक्तिदाता गेय मंत्रसभी देशें में सर्वप्रथम गिरा पद्यमय ही थी, वह अपनी आदिम अवस्था में संगीतसहजात थी। यूनान की आरंभिक कविता भी पद्ममय ही रही, यद्यपि काव्यभेद का निर्देश करते हुए नाटक को भी उसका ही एक भेद बताया गया है। अत: छंद, आरंभ में ही काव्य का अनिवार्य अंग था, यद्यपि आज उसका रूप, काव्य के 'स्वच्छंद' और 'निर्बध छंद' की उद्भावना के कारण 'लय' या 'लयात्मक गतिमयी भाषा' ने ले लिया है। हिंदी, बँगला, आदि आधुनिक भाषाओं में 'गद्यकाव्य' नामक एक काव्यविधा का अस्तित्व देखते हुए कहा जा सकता है कि अब छंद या लय काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं रहा। आरंभ में सर्वत्र काव्य की सत्ता मौखिक (लिखित नहीं) ही थी, अत: वह निश्चित रूप से कंठस्थ करने की सुविधा गेए और छंदोबद्ध था।

काव्य के तत्वकल्पना और संकल्प, भावना और रागात्मक अनुभूति, विवेक और बुद्धि, काव्य के अंतरतत्व हैं। प्रतिभा और भावुकता से उनका उद्भावन और परिकलन होता है। देश, काल, समाज और प्रचलित काव्यविधान-शैली के स्वर काव्य में प्रतिध्वनित होते रहते हैं। रचनाविधान और शैलीशिल्प, अभिव्यक्तिकौशल और भाषाप्रवाह उसके बाह्य उपकरण एवं साधन हैं। कल्पनाप्रवण सामाजिक के चित्तपट पर अर्थचित्रों और भावचित्रों का प्रतिबिंबन करने के कारण काव्यकला जहाँ एक ओर चित्रकला की सीमा से संपृक्त है, वहीं दूसरी और ध्वन्यात्मक लययोजना के कारण संगीतकला की परिधि का भी स्पर्श करती है। पर काव्यकला उन दोनों से अत्यंत दूरगामी भी है। भावचित्रों की सतत गतिमत्ता तथा मूर्त अमूर्त उभय प्रतिभाओं के उपस्थापन में सर्वाधिक समर्थ है।

काव्य के उद्देश्यप्रारंभिक काल में यूनान के काव्यगायकों द्वारा प्रसारित मौखिक काव्य का उद्देश्य आनंदसर्जना थी, शिक्षा नहीं। पर आगे चलकर उसका उद्देश्य होमर और हीसियद तक आते आते, शिक्षण और उपदेशन ही हो गया, विशेषत: धार्मिक उपदेश और नीतिशिक्षा। अरस्तू ने पुन: काव्य को 'सुदंर' और 'आनंदप्रद' माना। प्रेरणादायकता भी उद्देश्यों में थी। लोंगिनुस के मत से काव्य का लक्ष्य है 'अहंता' से मुक्त मानवात्मा का उदात्तीकरण या उन्नयन'। रसवादियों की साधारणीकरण अवस्था से या शुक्ल जी की भावयोग की दशा से उसका कुछ-कुछ साम्य है। यह उन्नयन या उदात्तीकरण काव्य में कल्पनाभावित सौंदर्य के माध्यम से साध्य है। इसीलिए डी.क्विंसी ने, शास्त्रविज्ञान के वाङमय को 'ज्ञानात्मक' कहकर पृथक् करते हुए काव्य को 'शक्तिमय साहित्य' कहा है। इसी प्रकार स्वांत:सुख, लोकमंगल की साधना, सत्य का प्रकाशन, शिवत्व का संपादन और सौंदर्य के उद्बोधन द्वारा आनंदनिष्पादन आदि काव्य के उद्देश्य रहेकभी पृथक-पृथक कभी समुदित। हृदयपरिष्कार, आत्माभिव्यक्ति, व्यष्टिगत मनोरंजन, कलात्मक सौंदर्यास्वादन में से एक या अनेक को भी समय-समय पर काव्यसाध्य कहा गया है। 'कला कला मात्र के लिए' कहकर उसका लक्ष्य अन्यनिरपेक्ष कलासुखास्वादन मात्र भी घोषित किया गया। अंत:करण में, वासनारूप से मुद्रित अथवा अचेतन मन में दमित होकर सुषुप्त और विकारजनक वासनाओं का अभिव्यंजन या विवेचन भी उसका प्रयोजन बताया गया। शोषित, पीड़ित सर्वहारा वर्ग में क्रांतिभाव और यथार्थशक्ति के उद्बोधन को भी एक वर्ग उसका लक्ष्य मानता है। सारांश यह कि 'सत्यं, शिवं, सुंदरं, (आनंद)' अथवा स्वांत:सुख, लोकहित और सत्यदर्शनइस त्रिबिंदुचक्र की परिधिरेखा के आसपास, काव्य के प्रमुख प्रयोजन का निर्देश होता रहा। कभी उद्देश्यकथन के शब्द साधारण होते और कभी वही बात कुछ घुमाफिराकर कही जाती थी।

काव्यभेदपाश्चात्य आलोचकों ने आरंभ में (प्लेटो और अरस्तू के काल से ही) काव्य के तीन भेदों का उल्लेख किया है(१) एपिक (प्रबंध महाकाव्य), (२) लिरिक (गीति काव्य) तथा (३) ड्रैमेटिक नाटय काव्य(अ) ट्रैजेडी, (आ) कामेडी। आगे चलकर नाटक के अलग हो जाने पर काव्य के दो रूपों की कल्पना की गई: (१) वर्णनात्मक ('आब्जेक्टिव' या 'नैरेटिव' अर्थात् वस्तुप्रधान वा विषयप्रधान, इतिवृत्तात्मक अथवा विषयनिष्ठ) और (२) अनुभूतिप्रधान ('सब्जेकटिव' या 'लिरिक' अर्थात् आत्मानुभूतिप्रधान, या विषयिप्रधान अथवा विषयनिष्ठ)। प्रथम काव्यप्रभेद में बाह्य एवं गोचर वस्तुजगत् की वर्णनदृष्टि प्रमुख रही है। काव्य के वर्णन में कवि की व्यक्तिगत अनुभूति, भावना और विचारसरणि का अभिव्यंजन न होकर बाह्म एवं दृश्य जगत् के वर्णन को और उन्हीं के माध्यम से व्यक्त अनुभूतियों और विचारों को प्रधानता दी जाती है। इसे हम 'प्रबंध' काव्य कह सकते हैं। इसका प्रथम भेद 'एपिक' या महाकाव्य है। इसके भी दो उपभेद हैं: (क) एपिक ऑव ग्रोथ अर्थात् परंपराविकसित महाकाव्य जैसे महाभारत, श्रीमद्भागवत (कुछ अंशों में वाल्मीकि रामायण), आल्हखंड, पृथ्वीराजरासो, आदि; (ख) एपिक ऑव आर्ट्स स: कवि की प्रतिभामयी कला से उद्भावितजैसे, शिशुपालवध, नैषधचरित, रामचरितमानस, साकेत आदि। वर्णनात्मक काव्य का दूसरा उपभेद 'बैलड' है जिसे 'पद्यात्मक कहानी' नाम दिया जा सकता है। प्रबंधात्मक खंडकाव्य भी इसे कह सकते हैं। इसमें वीरता या प्रेम की गाथा रहती है, जिसमें युद्ध, साहसिक कार्य, शौर्य आदि का मनोहर चित्रण होता है। इनके अतिरिक्त छंदात्मक प्रेमगाथा (मेट्रिकल रोमांस) आदि भेद भी हैं, पर उनका महत्व सामान्य ही रहा। काव्य का दूसरा प्रभेद 'लिरिक' काव्य हैजिसे हिंदी में प्रगीत काव्य या गीतिकाव्य कहते हैं। (जिसका यह नाम 'लीरे' नामक वाद्यविशेष के साथ गाए जाने के कारण पड़ा)। इस काव्यविधा में कवि की अंतर्मुखीनता का प्राधान्य होने से, प्रेरणा का स्रोत कवि की आत्मानुभूति, वैयक्तिक चिंतन और स्वभावना होती है और उसकी अभिव्यक्ति में भी उन्हीं की प्रधानता रहती है। उसका वर्णन बाह्य दृश्य जगत् की अपेक्षा अंतर्जगत् और बहिर्जगत् के पति आत्मसंवेदनात्मक अधिक होता है। पश्चिम में इस विधा के अनेक उपभेद हैं (क) 'ओड'संबोधगीत, (ख) 'सानेट'चतुर्दशपदी, (ग) 'एलेजी'करुणवेदनागीत (शोकगीत), (घ) 'सटायर'व्यंग्यगीत। 'रिफ़्लेक्टिव'विचारात्मक, तथा 'डायेडेक्टिक'नीत्युपदेशात्मक, आदि भेद विशेष महत्व के नहीं हैं। प्रगीतकाव्यों तथा वर्णनात्मक काव्यों के बीच पूर्णत: स्पष्ट विभाजनरेखा संभव नहीं है, क्योंकि दोनों प्रकर के तत्व अंशत: दोनों विधाओं में मिलते ही हैं। विभाजक कारण केवल तत्वविशेष की मुख्यता है। इनके अतिरिक्त 'नाटयकाव्य' को भी तृतीय भेद माना जाता हैजो 'अभिनेय' न होने के कारण 'पाठय नाटक' या 'संवादात्मक काव्य' कहा जा सकता है।

सं.ग्रं.बूचर : एरिस्टाटल्स थियरी ऑव पोएट्री ऐंड फ़ाइन आर्ट्सय; एबरक्रांबी : थियरी ऑव पोएट्री; एल्डेन : इंग्लिश वर्स, इंट्रोडक्शन टु पोएट्री; आइ.सी. ऐंडर्सन : लॉ ऑव वर्स; एस. डानियल: पोएट्स ऐंड डिफ़ेंस ऑव राइम; ए.ई.डॉड्स। रोमैंटिक थियरी ऑव पोएट्री; सी. ल्यूड्स : द प्रिंसिपुल्स ऑव इंग्लिश पोएट्री; एच. मोरे : पोएट्स ऐंड देयर आर्ट; एम.लांग : पोएट्री ऐंड इट्स फॉर्मस; डब्ल्यू.एच. हडसन : ऐन इंट्रोडक्शन टु द स्टडी ऑव लिटरेचर; आर.ए.स्कॉट जेम्स: मेकिंग ऑव लिटरेचर; टी.जिल्बी : पोएटिक एक्सपीरिएंस; ए.आर.ऐटिवसल : द स्टडी ऑव पोएट्री; टी. एस. इलियट : द यूस ऑव पोएट्री; सी. काडवेल : इल्यूज़न ऐंड रियलिटी; आइ.ए.रिचर्ड्स : प्रिंसिपुल्स ऑव लिटरेरी क्रिटिसिज्म़; लोंगिनुस : ऑन द सब्लाइम; सेंट्सबरी : हिस्ट्री ऑव इंग्लिश क्रिटिसिज्म; काणे : इंट्रोडक्शन टु साहित्यदर्पण; बलदेव उपाध्याय : भारतीय साहित्यशास्त्र; मम्मट : काव्यप्रकाश; विश्वनाथ : साहित्यदर्पण।

(क.प.त्रि.)