काली (क) हिंदुओं की एक देवी। इनकी उत्पत्ति के विषय में अनेक कथाएँ प्राप्त हैं। मार्कडेय पुराण के अनुसार भगवती चंडिका के ललाट से इनकी उत्पत्ति हुई थी। चंडवध के समय असुरों से युद्ध करते करते भगवती का वर्ण कृष्ण हो गया था। उसी समय उनके ललाट देश से करालवदना काली देवी का आविर्भाव असि, पाश आदि शस्त्रों से युक्त हुआ (मार्कंडेय पुराण ८७।५) अस्त्रशस्त्रों से सुसज्जित देवी के अविर्भाव की कल्पना यूरोप में भी पाई जाती हैं। यूनानी देवी मिनर्वा का आविर्भाव भी इस प्रकार हुआ था। बृहन्नीलतंत्र में काली की उत्पत्ति की दूसरी कथा दी गई है। असुरों द्वारा पराजित होने पर देवताओं ने ब्रह्मा, विष्णु, और महेश की शरण ली किंतु इन तीनों ने अपने को असमर्थ पाकर महाकाली से प्रार्थना की। महाकाली ने तारिणी की सहायता से द्वादश देवियों की उत्त्पत्ति की जिनमें काली का नाम सर्वप्रथम आया है (बृहन्नीलतंत्र, द्वादश पटल)। स्पष्टत यहाँ काली को महाकाली का ही एक रूप माना गया है। कालीपूजा का इतिहास शक्तिपूजा के इतिहास से अधिक प्राचीन नहीं है। द्वितीय शताब्दी ई.पू. से पहले कालीपूजा के अस्तित्व का प्रमाण नहीं प्राप्त होता। प्रथम तो संभवत: शक्तिपूजा की समन्वयात्मक प्रवृत्ति में कालीपूजा को भी सम्मिलित कर लिया गया होगा; बाद में इनकी तांत्रिक पूजा, तथा इनके दर्शन का विकास हुआ होगा।

(ख) काली के प्रकार और मूर्तियाँपुराणों तथा आगम ग्रंथों में काली के विभिन्न रूप प्राप्त होते हैं। महाकाली, दक्षिणकाली, भद्रकाली, श्मशानकाली, गुह्यकाली, रक्षाकाली इत्यादि। ये रूप काली के ही हैं किंतु उपासनाभाव के अनुसार इनके स्वरूप तथा नाम में भेद कर लिया गया है।

महाकाली

मेघांगी विगताम्बरां शवशिवारूढां त्रिनेत्रां परां,

कर्णालम्बितबालयुग्मशुभदां मुण्डस्रजामालिनीम्।

वामेऽधोर्ध्व कराम्बुजे रश्शिर: खंगं च सव्येतरे,

दानाभीति विमुक्तकेशनिचयां वन्दे महासुन्दरीम्।

(बृहन्नीलतंत्र, त्रयोदश पटल)

दक्षिणाकाली

ब्रह्मोपेन्द्र शिवास्थिमुण्ड रशनां ताम्बूल रक्ताधरा

वर्षामेघनिभा त्रिशूलमुसले पद्मासिपाशाड्.कशान्।

शंखं साहियुगं वरं दशभुजै: संविभ्रतीं प्रेतगां

देवीं दक्षिणकालिकां भगवतीं रक्ताम्बरां तांस्मरे।

(देवीरहस्य, परिशिष्ट ७)

भद्रकाली

मुण्डं विश्वस्य कर्तु: करकमलतले धारयन्ती हसन्तीं,

नाहं तृप्ता वदन्ती सकल जनमिदं भक्षयन्तीं सदैव।

श्यामां विष्णुं गिरीशं भूजनिवह बलाच्छूल प्रोतं वहन्तीं,

ध्यायेऽहं भद्रकालीं नवजलदनिभां प्रेतमध्यासनस्थाम्।

(देवीरहस्य, परिशिष्ट ७।२३)

इनको विश्वकर्ता (ब्रह्मा) का मुंड हाथ में लिए हुए प्रेतसंस्थित बताया गया है। किंतु इससे इनकी मूर्ति का स्पष्टीकरण नहीं होता। प्रतिमालक्षण में उनके अष्टादश भुजा होने का वर्णन है (प्र.ता.,पृ. २२४)

गुह्यकालिकायह नेपाल में अधिक पूजी जानेवाली देवी हैं। शक्तिसंगम तंत्र के कालीखंड में गुह्यकाली शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। विश्वसार तंत्र में इनकी उपासना की कथा, दीक्षाप्रणाली, मंत्र तथा पूजापद्वति का वर्णन प्रप्त होता है।

श्मशानकालिकाशक्तिसंगम तंत्र में इन्हें एकादश गुणों से युक्त बताया गया है। यदा रुद्र गुणा जाता श्मशानकालिका भवेत् (कालीखंड, प्रथम पटल ६१)

वशीकरणकालिकाचतुर्दश गुणों से युक्त काली के स्वरूप को वशीकरणकालिका कहा गया है : चतुर्दश गुणा जाता वशीकरणकालिका, (वही ६२)

सिद्धिकालिका–षड्गुणों युक्त देवी का नाम सिद्धिकाली बताया गया है (यदा षड्गुणिता शक्ति: सिद्धिकाली प्रकीर्तिता, वही ५८)। इसके अतिरिक्त शक्ति के जितने भी स्वरूप प्राप्त होते हैं, ग्रंथों में उन्हें भी काली का ही भेद गिनाया गया है।

पूजा और दर्शनकाली की पूजा का वर्णन अनेक तंत्रों, पुराणों में प्राप्त होता है। कालीतंत्रम्, श्यामारहस्य बृहन्नीलतंत्र, देवीभागवतम्, कालिकापुराण, मार्कंडेय पुराण इत्यादि इनमें प्रमुख हैं। बृहन्नीलतंत्र में कालीपूजा के संबंध में प्रत्येक दिन में षड्ऋतुओं का अवसान माना गया है। इनमें तांत्रिक षट्कर्म करने का आदेश दिया गया है। सुरा को मंत्र से शुद्ध करके सेवन करने का विधान भी आदिष्ट है। कालीपूजा में सुरापान अत्यंत आवश्यक बताया गया है। इस स्थल पर काली को चतुर्भुज कहा गया है। इन चारों हाथों को विशेष आयुधमुद्राएँ होती हैं। दो हाथों से वर तथा अभय मुद्राएँ प्रदर्शित होती हैं। अन्य दो हाथों में खड्ग तथा मुंडमाला होती है, गले में मुंडमाला सुशोभित होती है (बहन्नीलतंत्र, षष्ठ पटल)। काली की पूजा कार्तिक के कृष्णपक्ष में, विशेषकर रात्रि में, अधिक फलप्रद बताई गई है। (वही, सप्तदश पटल)। पूजा में कालीस्तोत्र, कवच, शतनाम (वही, त्रयोविंश पटल),सहस्रनाम (वही, द्वाविंश पटल)का भी विधान है।

कालीतत्व की मीमांसा करने पर इस पूजापद्धति का एक दर्शन भी परिलक्षित होता है जिसका विकास पुराणों तथा पुराणोत्तर साहित्य में किया गया है। इसके अनुसार अखिल ब्रह्मांड का प्रत्येक कण इस शक्ति के बिना शव स्वरूप है (शक्तिसंगम तंत्र, काली खंड १।२८)। उसका बिंब ही माया है तथा शिव उसका मन है (वही, १।३०)। सृष्टि के उत्पादनार्थ उस परम शक्ति ने शिव की भर्तृरूप से कल्पना कर ली (वही, १।३३)।

चित्र १.

कई युगों तक विपरीत रति करने के पश्चात् एक विंदु की सृष्टि हुई, जिससे महालावण्यमयी एक सुंदरी उत्पन्न हुई। उसका नाम महाकाली हुआ। महाकाल अथवा कालतत्व जिसके द्वारा मोहित किया गया है, वही काली मोहवशं यात: श्रीकाली मायया शिवे (वही, १।४३)। ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता उसी से उत्पन्न हैं : ब्रह्म विष्णवादयो देवि तत्रोत्पन्ना महेश्वरि। (वही, १।९६)।

कालीयंत्रकालीयंत्र का वर्णन अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है। कालीतंत्र में इसका वर्णन इस प्रकार दिया गया है :

आदौ यंत्रं प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमरतां व्रजेत।

आदौ त्रिकोणं विन्यस्य त्रिकोणं तबहिर्न्यसेत्।

ततौ वै विलिखेन्मंत्रो त्रिकोणत्रयमुत्तमम्।

वित्तं लिख्य विधिवल्लिखेत् पद्मं खुलक्षणम्।

ततो वृत्तं विलिख्यैव लिखेद् म्पूरमेककम्।

चतुरस्रं चतुर्द्वारमेवं मण्डलमालिखेत् । (कालीतंत्रम्, १, ४०-४३)

इसके अनुसार यंत्र चित्र १ की तरह बनेगा। इस यंत्र का कालीपूजा में विशेष स्थान है।

सं.ग्रं.कालीतंत्रम्; कालीविलासतंत्र, संपादक पार्वतीचरण तर्कतीर्थ; देवीरहस्य; बृहन्नीलतंत्रम्; शक्तिसंगमतंत्रम् (कालीखंड); द्विजेंद्रनाथ शुक्ल : हिंदू कैनन्स ऑव आइकोनोग्राफ़ी।