कालियनाग काद्रवेय कुल की पन्नग जाति का सर्प। इसके पाँच मुख थे और यह बड़े ऐश्वर्य से रमणक द्वीप में रहता था। गरुड़ को प्रसन्न रखने के लिए हर पूर्णिमा को उसका भक्ष्य उसके पास पहुँचा देता था। एक बार गरुड़ का भक्ष्य यह स्वयं खा गया। इससे क्रुद्ध हो गरुड़ ने इसपर आक्रमण किया। जान बचाने के लिए यह नंदगाँव के समीप यमुना में वहाँ जा छिपा जहाँ सौभरि के शाप के कारण गरुड़ न जा सकता था। कालिय के कारण उस स्थान का पानी विषमय हो गया और अनेक गाएँ तथा गोप उस पानी को पीकर मर गए। अत: कालिय के निवासस्थान को 'कालीदह' नाम से पुकारा जाने लगा। पश्चात् कंदुकक्रीड़ा के समय कृष्ण ने एक वृक्ष पर चढ़कर कालीदह में छलाँग लगाई और कालिय को नाथकर उसके फन पर खड़े होकर नृत्य किया। लोकप्रसिद्धि है कि कृष्ण के उस समय के अंकित पदचिह्न आज भी काले नागों के फनों पर देखे जा सकते हैं। कृष्ण ने कालिय को पुन: रमणक द्वीप पर रहने की आज्ञा दी और यह प्रबंध भी कर दिया कि गरुड़ इसे सता न सके। कालियनाग को 'कालीनाग' नाम से भी जाना जाता है। (कै.चं.श.)