कालिदास संस्कृत का मूर्धन्य कवि और नाटककार।

निवास और कार्यकालकालिदास ने भी अन्य अनेक भारतीय कृतिकारों की ही भाँति अपने निवासस्थान अथवा कार्यकाल की ओर संकेत नहीं किया, जिससे इन दोनों विषयों पर किसी प्रकार की भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं। परंतु यह स्थिति महान् साहित्यकारों को देशकालातीत भी कर दिया करती है और महाकवि कालिदास भी देश और काल की सीमाओं का लाँघ गए हैं। उन्हें अनेक प्रदेशों ने अपना निवासी घोषित किया है।

कालिदास के स्थान और कार्यकाल के संबंध में अनेकानेक मत हैं जिनपर विस्तृत विचार यहाँ संभव नहीं। बंगाल, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और कश्मीर सभी को उनका निवासस्थान होने का श्रेय मिला है, यद्यपि उनका मध्य प्रदेश अथवा कश्मीर का होना ही अधिक संभव जान पड़ता है। 'ऋतुसंहार' में उन्होंने जिन षड्ऋतुओं के साथ अपने घनतम ज्ञान का परिचय दिया है वे विशेषकर मध्यप्रदेश की ही हैं। 'मेघदूत' के निर्वासित नायक का प्रवास जिस रामगिरि पर है, उसकी पहचान विद्वानों ने नागपुर के पास रामटेक से की है। मेघ को रामगिरि से उत्तरोत्तर भेजते हुए कवि ने मार्ग का जो सविस्तार परिचय दिया है उससे उसका मध्य प्रदेश के छोटे बड़े सभी स्थानों का घनिष्ठ ज्ञान प्रकट है। महत्व की बात यह है कि कवि जहाँ उत्तरापथ के स्थानों की ओर संकेत मात्र करता है, मध्यप्रदेशीय स्थलों के वर्णन में वह रागविभोर हो उठता है। जो स्थान सीधी राह में नहीं पड़ता वहाँ भी वह अपने दूत मेघ की खींच ले जाता है। ऐसी ही नगरी उज्जयिनी का वर्णन कवि बड़े स्नेह और श्रद्धा से करता है जहाँ पहुँचने का मार्ग वस्तुत: 'वक्र' है। इसी कारण अनेक विद्वानों ने उज्जयिनी को ही कालिदास का निवासस्थान माना है। कश्मीर को कालिदास की जन्मभूमि माननेवाले विद्वानों का अपने मत के प्रति विशेष आग्रह इस कारण है कि हिमालय के प्रति कवि का बड़ा आकर्षण है। 'कुमारसंभव' का समूचा कथानक और 'मेघदूत' का उत्तरार्ध हिमालय से संबंधित है। 'रघुवंश', 'शाकुंतल' और 'विक्रमोर्वर्शी' के भी अनेक स्थलों की भूमि वही पर्वत है। इस मत के माननेवालों का इसके अतिरिक्त यह भी कहना है कि रामगिरि 'मेघदूत' के नायक का आखिर प्रकृत आवास नहीं, निर्वासित यक्ष का प्रवासस्थल मात्र है, उसका जन्मजात आवास और कार्यस्थल तो हिमालय में था। कुछ आश्चर्य नहीं जो कालिदास कश्मीर अथवा किसी हिमालयवर्ती प्रदेश में जन्म लेकर मध्य प्रदेश की ओर स्वेच्छया अथवा मजबूरी से चले गए हों। परंपरया उनका विक्रमादित्य की राजसभा में उज्जयिनी में रहना स्वीकार किया जा सकता है जिसके लिए यह आवश्यक नहीं कि उन्हें उस नगरी का जन्म से नागरिक होना ही माना जाए। कालिदास रहे चाहे जहाँ के हों, मध्य प्रदेश में उनका निवास दीर्घ काल तक रहा होगा, इसमें संदेह नहीं।

कवि का कार्यकाल निश्चित करना आसान नहीं, यद्यपि साधारणत: वह काल पाँचवीं सदी ईसवी माना गया है। कवि इतना लोकप्रिय हो गया था कि अनेक पश्चात्कालीन कवियों ने उसका नाम अपना लिया और इस प्रकार संस्कृत में तीन-तीन कालिदासों के होने की संभावना प्रस्तुत कर दी। पर विशिष्ट विद्वानों का मत है कि चाहे अन्य कालिदास भी पिछले काल में हुए हों, प्रसिद्ध कालिदास पहले कालिदास थे चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के समकालीन, जो 'रघुवंश' आदि काव्यों और 'शांकुतल' आदि नाटकों के प्रणेता थे। विद्वानों द्वारा अनुमित उनका कालप्रसार ईसा पूर्व दूसरी सदी से सातवीं सदी ईसवी तक है। इन दोनों सदियों को कवि के कार्यकाल का बहिरंग मान काल के इस बड़े अंतर को छोटा कर सकना कठिन न होगा। प्राचीनतम सीमा कवि का नाटक 'मालविकाग्निमित्र' द्वितीय शताब्दी ई.पू. में इसलिए खींच देता है कि उसका नायक अग्निमित्र उस सेनापति पुष्यमित्र शुंग का पुत्र था जिसने मौर्यो के अंतिम राजा बृहद्रथ को १८० ई.पू. के लगभग मारकर शुंगवंश की प्रतिष्ठा की थी। इससे यदि कालिदास अग्निमित्र के समकालीन भी हुए तो उनका समय १५० ई.पू. के पहले नहीं हो सकता। इस काल की बाहरी सीमाएँ एहोल अभिलेख प्रस्तुत करता है जो ६३४ ई. का है और जिसमें कवि का नामोल्लेख हुआ है।

परंपरा के अनुसार कालिदास ५६ ई.पू. के किसी विक्रमादित्य के नवरत्नों में से थे पर ऐतिहासिक विवेचन से पता चलता है कि न तो प्रथम शती ई.पू. में कोई विक्रमादित्य ही हुए परस्पर समकालीन थे। इस संबंध में विशेषत: बौद्ध भिक्षु अश्वघोष के 'बुद्धचरित' में कालिदास के 'रघुवंश' और 'कुमारसंभव' के संभावित अवतरणों की ओर संकेत किया गया है। पर कालिदास ने अश्वघोष का अनुकरण किया या अश्वशेष ने कालिदास का, इसका भी स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में अभी निर्णय नहीं किया जा सकता। कालिदास की कृतियों के निम्नलिखित आंतरिक प्रमाणों से, इसके विपरीत, पाँचवीं सदी ई. में ही कवि को रखना अधिक युक्तियुक्त लगता है। गुप्तकाल में संपादित पौराणिक आख्यानों एवं परंपराओं और तभी अनंत संख्या में प्रसूत देवमूर्तियों का उल्लेख; भारतीय कला में प्राय: पहली बार कुषाण काल में निर्मित क्रमश: मकर तथा कच्छप पर खड़ी चमरधारिणी गंगा-यमुना की मूर्तियों का वर्णन; मात्र गुप्तकालीन मूर्तियों की उँगालियों की जालग्रथित (शाकुंतल, अंक ७जालग्रथितांगुलि: कर:, देखिए मानकुँवर बुद्धमूर्ति के अतिरिक्त अनेक और, लखनऊ संग्रहालय) स्थिति का उल्लेख; कुषाण-गुप्त-युगीन बुद्धमूर्तियों की अखंड समाधि से प्रभावित कवि द्वारा 'कुमारसंभव' में शिवसमाधि का वर्णन; गुप्त सम्राटों के अभिलेखों-मुद्रा-लेखों तथा कालिदास की भाषा में घनी समता; कवि की रचनाओं में वर्णित शांति और समृद्धि; प्राय: तीसरी सदी ईसवी के वात्स्यायन के कामसूत्रों का कवि पर अमिट प्रभाव; ग्रीक ज्योतिष के जामित्र आदि पारिभाषिक शब्दों का उपयोग; पाँचवीं सदी ईसवीं में वक्षुनद की घाटी में बसनेवाले हूणों की रघु द्वारा पराजय का उल्लेखसभी कालिदास की गुप्तकालीनता प्रमाणित करते हैं।

कुमारगुप्त प्रथम के शासन के अंत में पुष्यमित्रों और हूणों ने गुप्तकालीन शांति नष्ट कर दी। इससे कवि के कार्यकाल का अंत ४४९ ई. में (४५० ई. के पुष्यमित्रों तथा स्कंदगुप्त के युद्ध के पहले) रखा जा सकता है। परंतु यदि कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त दोनों की ओर कवि ने अप्रत्यक्ष रूप से संकेत किया है तब संभवत: वह स्कंदगुप्त के जन्म तक जीवित रहा। कालिदास ने बहुत लिखा है और स्वाभाविक ही उनका कृतित्व दीर्घकालिक रहा होगा। यदि वे ८० वर्ष तक जीवित रहे तब इस गणना के आधार पर उनकी मृत्यु ४४५ ई. के लगभग हुई होगी और तब उनका जन्म ३६५ ई. के लगभग मानना होगा। इस प्रकार समुद्रगुप्त के शासनकाल में जन्म लेकर उन्होंने चंद्रगुप्त द्वितीय के समूचे शासन और कुमारगुप्त के शासन के अधिकतर काल तक अपनी लेखनक्रिया जाग्रत रखी होगी। अत: उन्होंने स्कंदगुप्त का जन्म भी देख ही लिया होगा, क्योंकि पुष्यमित्रों की पराजय करते समय स्कंद की आयु कम से कम २० वर्ष की अवश्य रही होगी। इस प्रकार यदि कालिदास ने २५ वर्ष की अवस्था में अपना कविकार्य आरंभ किया होगा तो उनका पहला काव्य 'ऋतुसंहार' ३९० ई. के लगभग लिखा गया होगा और उनका रचनाकाल प्राय: उस अवधि के अधिकतर भाग पर निर्भर रहा होगा जिसे हम साधारणत: भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहते हैं।

कवि कार्यकालिदास की प्राय: सर्वसम्मत कृतियाँ सात हैं, तीन नाटक और चार काव्य। 'अभिज्ञान शाकुंतल', 'विक्रमोर्वशी' और 'मालविकाग्निमित्र' नाटक हैं, 'रघुवंश', 'कुमारसंभव', 'मेघदूत', तथा 'ऋतुसंहार' काव्य। 'अभिज्ञान शाकुंतल', संस्कृत नाटय साहित्य का चूड़ामणि है। नाटयसाहित्य के समीक्षकों ने इसे संसार के साहित्य की सुंदरतम कृतियों में गिना है। इसके सात अंकों में कवि ने महाभारत की कथा का नाटकीय नवनिर्माण किया है। राजा दुष्यंत कण्व के आश्रम में शकुंतला से गंधर्व विवाह करता और उसे अपनी अँगूठी भेंट करता है, पर ऋषि दुर्वासा के शाप से वह यह सब भूल जाता है जिससे वह उस पत्नी को पहचान नहीं पाता। अँगूठी द्वारा अभिज्ञान के पश्चात् उसकी स्मृति लौटती है और पुत्र भरत के माध्यम से कश्यप (मारीच) के आश्रम में पति पत्नी का संयोग होता है। रचना अत्यंत मार्मिक है, अभिव्यक्त भावनाएँ नितांत कोमल हैं। 'विक्रमोर्वशी' त्रोटक है और इसका कथानक ऋग्वेद से लिया गया है। इसके घटनाचक्र का प्रसार पृथ्वी से स्वर्ग तक है और उसका विकासशिल्प असाधारण एवं सुखांत है। प्रतिष्ठान का नृपति ऐल पुरुरवा उर्वशी की दैत्य केशी से रक्षा करता है और दोनों प्रणयसूत्र में बँध जाते हैं। विरह का अत्यंत हृदयस्पर्शी और करुण वर्णन चौथे अंक में हुआ है जब राजा तरुलताओं से प्रिया का पता पूछता है। घटनाओं का अनुक्रम अनुपम सहज है। ऋग्वेद के पुरुरवा उर्वशी का करुण विरह सहज सह्य हो जाता है जब कवि दोनों को पुत्र के साथ दीर्घकाल के लिए एकत्र कर देता है। 'मालविकाग्निमित्र', कवि की नाटकों की दिशा में, संभवत: पहली रचना है। इसमें कवि से प्राय: ६०० वर्ष पहले के पुष्यमित्र शुंग के पुत्र बहुपत्नीक राजा अग्निमित्र और उसकी प्रेयसी मालविका के प्रणय का विवरण है। विदर्भराज की भगिनी मालविका दस्युता के परिणामस्वरूप विदिशा के राजा अग्निमित्र के प्रासाद में अज्ञात रूप से शरण लेती है। नाटकीय विधि से रहस्य खुलता है और दोनों का प्रणय परिणय में परिणत होता है। नाटक में संगीत और अभिनय का शास्त्रीय कथोपकथन प्रस्तुत है।

'रघुवंश' १९ सर्गो का महाकाव्य है जिसमें कालिदास ने वाल्मीकि रामायण की पद्धति से काव्यरचना की है और रामायण तथा पुराणों की सूर्यवंशीय ख्यातों को अत्यंत कुशलता एवं सूक्ष्मता से सर्गबद्ध कर दिया है। राजा दिलीप से अग्निवर्ण तक का पौराणिक इतिहास इसमें काव्यबद्ध है। इसके प्रधान पुरुष राजा रघु हैं जिनके नाम पर इस प्रबंध का नाम पड़ा। महाकाव्य शैली की कृतियों में 'रघुवंश' पहली और आदर्श रचना है। स्थल-स्थल पर इसमें प्रसाद गुण और वैदर्भी वृत्ति के चमत्कार प्रकट हैं। 'कुमारसंभव' महाकाव्य है पर संवभत: कवि उसको पूरा नहीं कर सका था और इसी कारण विद्वान् केवल इसके पहले आठ सर्गो को ही प्रामाणिक मानते हैं। इसका कथानक हिमालय की उपत्यका में खुलता है और उमा तथा शिव के विवाह से संबंधित है। विवाह तारकासुर के वधार्थ कुमार कार्तिकेय के जन्म के लिए होता है। पर काव्य कुमार के जन्म से पहले ही, शिव पार्वती की सहवासक्रीड़ा के बाद ही, समाप्त हो जाता है। उमा के सौंदर्योल्लास का भंजन शिव के मदनदहन से होता है और जब कठिन तप से उमा का मानस पवित्र हो जाता है तब शिव स्वयं उनके प्रति आत्मनिवेदन कर उनका पणिग्रहण करते हैं। 'शाकुंतल' के गांधर्व पर 'कुमारसंभव' का यह प्राजापत्य आचार गार्हस्थ्य की चारुता की विजय प्रतिष्ठित करता है। काव्य प्राकृतिक सौंदर्य के वर्णनों से ओतप्रोत है। 'मेघदूत' की पाश्चात्य समीक्षकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अनेकानेक यूरोपीय भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। यह खंडकाव्य है, लिरिक, जो प्राय: १२० मंदाक्रांता छंदों में सपन्न हुआ है। संस्कृत में तो इस काव्य का बारंबार अनुकरण हुआ ही है, इसी की छाया में प्रसिद्ध जर्मन कवि शिलर ने अपनी 'मेरिया स्टुअर्ट' की रचना की है। 'ऋतुसंहार' कालिदास की संभवत: प्राथमिक कृति है। यह छह सर्गो में भारत की षड्ऋतुओं का क्रमिक वर्णन करता है, मधुर और जीवंत। ऋतुओं के प्राणवान् चित्र एक के बाद एक काव्यपट पर उतरते जाते हैं और निसर्ग अपने सभी रूपों में खुलता चला जाता है। काव्य का प्रमुख विषय प्रकृति ही है पर ऋतुओं का इतना मांसल एकत्र रूपायन कवि ने कभी नहीं किया।

कालिदास की रचनाओं में तत्कालीन ज्ञान का अनंत भंडार खुल पड़ा है। समसामर्यिक साहित्य, शासन और राजनीति, समाज तथा जनविश्वास, धर्म और राजनीति, ललित कला और वास्तुशिल्प, भूगोल तथा विज्ञान, सभी कवि की कृतियों में असामान्य रूप से प्रतिबिंबित हुए हैं जिससे स्वयं उसके असाधारण ज्ञान तथा सावधि समृद्धि पर प्रकाश पड़ता है। संसार के किसी कवि ने कभी अपने देश की वास्तविक तथा आदर्श स्थिति का इस मात्रा में अपनी कृतियों में उल्लेख नहीं किया।

कालिदास की अन्य संस्कृत कवियों से विशिष्टता उनकी सहज शैली तथा प्रसाद गुण में है। भाषा के ऊपर किसी संस्कृत कवि का इतना अधिकार नहीं। कवि की सारी रचनाएँ उस वैदर्भी शैली मे संपन्न हुई हैं जिसकी स्तुति दंडी ने अपने 'काव्यादर्श' में की है। कालिदास की उपमाएँ अपनी सूक्ष्मता और औचित्य के कारण जगत्प्रसिद्ध हैं। कल्पना उनकी अनन्यसाधारण और अद्भुत गतिमान् है। मानव हृदय के ज्ञान की सूक्ष्मता में यह कवि सर्वथा अनुपम है, भावों तेथा आवेगों के वर्णन में अद्वितीय। अपने नाटकों में कवि ने संस्कृत की परंपरा के अनुकूल ही संस्कृत और प्राकृतों का उपयोग किया है। गद्य के लिए वह शौरसेनी का उपयोग करता है, पद्य के लिए महाराष्ट्री का। 'अभिज्ञान शाकुंतल' में नागरिक और धीवर मागधी बोलते हैं पर श्याला शौरसेनी बोलता है।

अपनी रचनाओं में कवि ने अत्यंत कुशलता से निम्नलिखित छंदों का उपयोग किया है : आर्या, श्लोक, वसंततिलका, शार्दूलाविक्रीडित, उपजाति, प्रहर्षिणी, शलिनी, रुचिरा, स्रग्धरा, रथोद्धता, मंजुभाषिणी, अपरवक्त्रा, औपच्छंदसिका, वैतालिकी, द्रुतविलंबित, पुष्पिकाग्रिता, पृथ्वी, मंदाक्रांता, मालिनी, वंशस्थ, शिखरिणी, हारिणी, इंद्रवज्रा, मत्तमयूर, स्वाती, त्रोटक और महामालिका।

कृतियों की उत्तरोत्तर प्रौढ़ता के विचार से उनका क्रम संभवत: निम्नलिखित प्रकार से होगा; ऋतुसंहार, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशी, रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत, और अभिज्ञान शाकुंतल। उनकी एक और रचना 'कुंतलेश्वरदौत्य' का उल्लेख मिलता है पर उसकी कोई प्रति अभी उपलब्ध नहीं है।

कालिदास का स्थान भारतीय समीक्षकों ने तो संस्कृत साहित्य में सर्वोच्च माना ही है, विदेशी पारखियों की राय में भी उनका स्थान संसार के विशिष्टतम कवियों और नाटककारों में है। सर विलियम जोन्स ने कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुंतल' का जो अंग्रेजी अनुवाद पाश्चात्य संसार को भेंट किया तो उसका प्रभाव उस जगत् पर वैसे ही पड़ा जैसे वेधशाला के अन्वेषकों पर आकाश में नए नक्षत्र के दर्शन का पड़ता है। उस कृति का पश्चिम के महान् साहित्यकारों के कृतित्व पर भी अविलंब प्रभाव पड़ा। गेटे ने अपने 'फ़ाउस्ट' में शाकुंतल के शिल्प का और शिलर ने अपने 'मेरिया स्टुअर्ट' में मेघदूत के शिल्प का उपयोग किया। गेटे ने शाकुंतल के प्रभाव से वशीभूत हो जो रागात्मक उद्गार निकाला, वह अमर वाणी बन गया।

सं.ग्रं.वी.वी. मीराशी : कालिदास (मराठी और हिंदी); के.सी. चट्टोपाध्याय : द डेट ऑव कालिदास; मोनियर विलियम्स : शाकुंतल; एस.पी. पंडित : विक्रमोर्वशी; वेबर : मालविकाग्निमित्र; सी.एच.टानी : मालविकाग्निमित्र; एस.पी. पंडित : रघुवंश; टी.एच. ग्रिफ़िथ : कुमारसंभव; के.बी. पाठक : मेघदूत; हुल्श : मेघूदत; एम.आर. काले : ऋतुसंहार; बी.एस. उपाध्याय : इंडिया इन कालिदास। (भ.श.उ.)