कालविन, जान (१५०९-१५६४) धर्माचार्य और सुधारक। कालविन का जन्म फ्रांस के उत्तरी भाग में स्थित पिकार्दी प्रांत के नोयों नामक नगर में १० जुलाई, १५०९ को हुआ। छोटी उम्र में ही संयमित आचरण और धर्ममय जीवन को देखकर उसे पिता जरार शोविन ने अपने पुत्र को पौरोहित्य की शिक्षा दिलाना निश्चित किया। नगर के एक कुलीन मित्र परिवार में कालविन ने धर्मशास्त्र का अध्ययन आरंभ किया। अपनी अद्भुत योग्यता के कारण १२ वर्ष की अवस्था में ही नगर के गिरजाघर में उसने चैपलेन का पद प्राप्त किया। १५२३ में अगस्त मास में वह देश की राजधानी पेरिस गया और चैपलेन के पद से मिलनेवाली आय से लगभग पाँच वर्षों तक मार्श मोंतांध के महाविद्यालयों में उसने धर्मशास्त्र का नियमित रूप से अध्ययन किया। वहाँ साथियों से विचार विनिमय में उसने अपनी प्रखर बुद्धि और तर्कशक्ति का अच्छा परिचय दिया। सितंबर, १५२७ में नोयों के एक गिरजाघर में पुरोहित के सहायक के पद पर उसकी नियुक्ति हो गई।

पेरिस में अपने ही नगर के एक पुराने साथी पीटर राबर्ट से, जो आगे चलकर आलिवेतन के नाम से प्रसिद्ध हुआ, कालविन का घनिष्ठ संपर्क रहा। राबर्ट धर्म के मामले में सुधारवादी था। उसके विचारों का कालविन पर प्रभाव पड़ा। उसी प्ररेणा से कालविन ने बाइबिल का फ्ऱेंच भाषा में अनुवाद किया जिसने प्रचलित धर्मव्यवस्था के संबंध में उसके मन में शंकाएँ उत्पन्न कर दीं। शीघ्र ही कालविन ने रोम पूजापद्धति के बारे में प्रतिकूल विचार व्यक्त किए। नोयों के गिरजाघर का धर्माविकारी कालविन के धर्मविरोधी विचारों से सहमत नहीं हो सकता था। कालविन को अपने पद पर बने रहना कठिन प्रतीत हुआ। इन्हीं दिनों उसके पिता का यह विचार हुआ कि धर्मशास्त्र की अपेक्षा कानून का अध्ययन उसके लिए अधिक लाभदायक होगा। पिता के विचार का कालविन ने स्वागत किया। कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए मार्च, १५२८ में वह लौर्लेआँ के विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हो गया। कानून के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों, विशेषकर प्राचीन साहित्य, का उसने अध्ययन किया। थोड़े ही समय में अपने पांडित्य का उसने ऐसा परिचय दिया कि उससे कभी-कभी शिक्षक का भी कार्य लिया जाने लगा। और्लेआँ से कालविन बर्जे के विश्वविद्यालय में गया जहाँ उसने यूनानी भाषा और बाइबिल के नवीन टेस्टामेंट के मूल पाठ का अध्ययन किया। इस अध्ययन ने रोम की धर्मव्यवस्था के विरुद्ध उसके विचारों को और पुष्ट कर दिया। १५३१ में पिता की मृत्यु के कारण उसको बूर्जे छोड़ना पड़ा। वह कुछ समय पेरिस में रहा और इब्रानी भाषा का अध्ययन किया। घर की व्यवस्था के कार्य में उसको नोयों भी जाना पड़ा। १५३२ के अंत तक वह वहीं रहा। इस वर्ष ही प्राचीन रोम के एक प्रसिद्ध लेखक सेनेका की कृति क्लेमेंशिया की उसी विद्वत्तापूर्ण व्याख्या लातीनी में प्रकाशित हुई। १५३३ के आरंभ में कालविन दूसरी बार और्लेआँ गया। अगस्त में वह नोयों लौट आया और दो मास ही वहाँ रहा। अक्टूबर में वह पुन: पेरिस चला आया और वहीं रहने लगा। प्रचलित धर्मव्यवस्था के खंडन और

नई धर्मव्यवस्था के प्रतिपादन और व्यवहार के संबंध में उसके विचार अब तक काफी परिपक्व हो चुके थे। उसकी यह निश्चित धारणा हो गई कि उसको अपना संपूर्ण जीवन विशुद्ध ईसाई धर्म की शिक्षा और प्रसार में लगाना चाहिए। उसने इस पवित्र कार्य को दैवी प्रेरणा और आदेश माना। उसने कैथोलिक धर्म का परित्याग किया और प्रोटेस्टेंट मत ग्रहण कर लिया। अपने मत के धार्मिक प्रवचनों के रूप में उसने एक पुस्तक भी उसी वर्ष प्रकाशित की। इस बीच कालविन के एक मित्र विश्वविद्यालय के रेक्टर निकोलस कोप ने एक पवित्र दिवस पर पेरिस के एक गिरजाघर में सुधारवादी मत के समर्थन में व्याख्यान दिया। कालविन उसके विचारों से अत्यंत प्रभावित हुआ। रोम के चर्च और उसमें आस्था के विरुद्ध उसने प्रकाश्य रूप से अपने विचार पेरिस में कई स्थानों पर व्यक्त किए। कोप और कालविन दोनों पर धर्मविरोधी प्रचार का अपराध आरोपित हुआ। दोनों ही पेरिस से अन्यत्र चले गए। कालविन कुछ समय नोयों में रहा। अभियोग उठा लिए जाने की सूचना मिलने पर वह फिर पेरिस लौट आया। उसके कार्यो पर राज्य और धर्म विभाग के अधिकारियों की सजग दृष्टि लगी रही। पेरिस में रहना उसके लिए कठिन हो गया। १५३४ के आरंभ में छद्म नाम से वह अंगुलेम गया और वहाँ के गिरजाघर के पुस्तकालय में धर्मग्रंथों का मननपूर्वक अध्ययन किया। वह प्वातू और सेंटोन भी गया और सभी स्थानों पर उसने धर्म सुधार के विचारों का प्रचार किया। इस बीच फ्रांस के राजा फ्रांसिस की बहन नेवार की रानी मारगरेत ने कालविन को आश्रय दिया। सुधारवादी मत के प्रति उसकी सहानुभूति थी और उसका निवासस्थान सुधार के समर्थकों का आश्रयस्थल बना हुआ था। कालविन मई मास में फिर पेरिस आया। वह गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ समय तक उसे कारागार में भी रहना पड़ा। सुधारवादियों के प्रति फ्ऱांसिस के बढ़ते हुए अत्याचार को देखकर कालविन ने फ्ऱांस त्याग देना ही उचित समझा। उसने अपने सभी पदों को छोड़ दिया और २५ वर्ष की आयु में अपने पितृदेश फ्ऱांस से विदा लेकर वह १५३४ में स्विटज़रलैंड के बाल नगर चला गया। एक वर्ष पूर्व पेरिस से भाग कर उसका सुधारवादी मित्र कोप भी इस नगर में ही गया था।

फ्रांस में राजतंत्र द्वारा सुधारवादियों के दमन से कालविन बहुत क्षुब्ध था। उनके संबंध में राजा की इस धारणा से कि ये केवल धर्मसुधार नहीं चाहते, राज्य के विरोधी हैं, कानून और संपत्ति के शत्रु हैं, संघर्ष करानेवाले तथा पथभ्रष्ट हैंवह सहमत नहीं था। धर्मसुधार के समर्थक जर्मनी के कुछ मित्र राजाओं की इस शिकायत पर कि फ्रांस में सुधारवादियों पर अत्याचार होता है, फ्ऱांसिस ने उनके संबंध में यह मत व्यक्त किया था। उन्हें इस लांछन से मुक्त करने और धर्मसुधार के समर्थन में कालविन ने विशुद्ध ईसाई धर्म पर एक पांडित्यपूर्ण पुस्तक 'इंस्टीटयूट ऑव क्रिश्चियन रिलिजन' लातीनी भाषा में लिखी। पुस्तक का अधिकांश अंगुलेम के प्रवासकाल में १५३४ में लिखा गया था। १५३५ में यह पुस्तक बाल नगर से लेखक के नाम के बिना ही प्रकाशित हुई। अगले वर्ष कालविन ने अपने नाम से पुस्तक प्रकाशित कराई और उसमें एक प्रस्तावना भी जोड़ दी। १५४० में कालविन ने फ्ऱेंच भाषा में भी पुस्तक का संस्करण निकाला। उसने यह पुस्तक फ्रांस के राजा को समर्पित की। उसको आशा थी कि फ्ऱांसिस पुस्तक में व्यक्त विचारों से प्रभावित होगा और सुधारवादियों के मत को अपना लेगा। कालविन की यह आशा तो पूरी नहीं हुई पर उसकी पुस्तक का धर्मसुधार के कार्यो पर आशातीत प्रभाव पड़ा। यह पुस्तक इतनी लोकप्रिय हुई कि एक शताब्दी से ऊपर तक इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए। २५-२६ वर्ष की आयु में लिखी गई ऐतिहासिक तथ्यों और अकाटय तर्को से परिपूर्ण यह पुस्तक भाषा और साहित्य की दृष्टि से भी उत्कृष्ट, प्रोटेस्टैंट धर्म के प्रसार और स्थायित्व में अत्यंत सहायक हुई। इसने कालविन के विचारों को यूरोप के भिन्न-भिन्न देशों में पहुँचा दिया।

पुस्तक प्रकाशित होने के बाद कालविन इटली गया। वहाँ धर्म सुधार के कार्य में कुछ प्रगति हो चुकी थी। फ़ेरारा की डचेज़ रेनी ने उसका सम्मानपूर्ण सत्कार किया। इटली से वह पेरिस गया। वहाँ उसने अपनी पैतृक जायदाद बेच दी और स्विटज़रलैंड में बसने के विचार से वह शीघ्र ही पेरिस से चल दिया। उसको उस देश के प्रसिद्ध नगर जिनीवा होकर जाना पड़ा। फ्रांस के सुधारवादी विलियम फ़ैरेल और विरैट के प्रयत्नों से उस नगर ने प्रोटेस्टैंट धर्म अपना लिया था पर उसकी नींव पक्की नहीं हुई थी। विरैट जिनीवा से चला गया था। फ़ैरेल ने कालविन से विरैट का स्थान लेने और वहीं रहकर धर्मसुधार के पवित्र कार्य में उसकी सहायता करने का अनुरोध किया। जिनीवा को अपना कार्यक्षेत्र बनाने की कालविन की इच्छा न थी किंतु इस सुस्पष्ट कर्तव्य की उपेक्षा के कारण उसपर दैवी प्रकोप के आघात की बात जब फ़ैरेल ने कही तब कालविन ने अन्यत्र बसने का विचार त्याग दिया। वह कुछ दिनों के लिए बाल नगर गया, पर सितंबर, १५३६ में जिनीवा वापस आ गया और उस नगर को अपने कार्यो का केंद्र बना लिया। उस समय से वह फ्रांसीसी प्रोटेस्टैटों का प्रमुख पथप्रदर्शक और परामर्शदाता बन गया। उसका इतना अधिक प्रभाव उनपर पड़ा कि १६वीं शताब्दी के मध्य तक वे कालविनवादी कहे जाने लगे।

कालविन अब अपनी संपूर्ण शक्ति से परम उत्साहपूर्वक धर्मसुधार के अभीष्ट कार्य की पूर्ति में जुट गया। फैंरेल के सहयोग से उसने धार्मिक विश्वासों और सिद्धांतों का विवरण तैयार किया और उनको मानना तथा उनके अनुसार आचरण करना नगर के सभी निवासियों के लिए अनिवार्य कर दिया। जिनीवा के नागरिकों ने इस धर्मव्यवस्था तथा नगरशासन के नियमों के पक्ष में अपनी स्वीकृति दी। नियमों का बंधन सभी कार्यो, व्यक्तियों और संस्थाओं पर समान रूप से लागू था। नियमों के कड़ाई से पालन पर आरंभ से ही कालविन ने ध्यान दिया और नियमों में चूक करनेवालों के लिए उसने कठोर दंड की व्यवस्था की। उसका कड़ा अनुशासन जिनीवा वासियों को सह्य न हो सका, उन्होंने उसका संगठित विरोध किया और दो वर्ष के अंदर ही, १५३८ में, उसको और फ़ैरेल को नगर छोड़ने के लिए बाध्य किया। कालविन स्ट्रासबर्ग चला गया आर वहाँ के एक धर्मसमुदाय में धर्माचार्य का कार्य करने लगा, पर जिनीवा पर उसकी दृष्टि सदा लगी रही। वह पत्रों द्वारा वहाँ के निवासियों को निंरतर प्रोत्साहित करता रहा। कालविन के विरोधी नगर की स्थिति को न सँभाल सके। वहाँ अव्यवस्था बढ़ती गई। नगरवासियों ने यह अनुभव किया कि शासनहीनता की अपेक्षा कठोर शासन अधिक श्रेयस्कर है। उन्होंने कालविन को जिनीवा लौट आने और नेतृत्व सँभालने का निमंत्रण दिया। १५४१ के सितंबर में वह पुन: जिनीवा आ गया और शीघ्र ही नगर के आध्यात्मिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन में उसने प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया। स्ट्रासबर्ग में कालविन ने एक विधवा से विवाह किया। १५४२ में उसको एक पुत्र हुआ पर वह कुछ दिनों ही जीवित रहा। कालविन की पत्नी आदर्श गृहिणी थी। १५४९ में उसकी भी मृत्यु हो गई। जीवन के अंतिम क्षण तक वह जिनीवा में ही रहा।

कालविन के मत से आरंभ के ३०० वर्षो का पवित्र ईसाई धर्म ही सच्चा ईसाई धर्म था। उसकी पुन: प्रतिष्ठा और उसके अनुसार सबका आचरण उसको अभीष्ट था। वह चाहता था कि व्यक्ति का जीवन पूर्णत: संयमित, पवित्र और नैतिक आदर्शो से प्रभावित हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रोटेस्टैंट धर्मशास्त्र की रचना, उसके अनुसार जीवन की व्यवस्था और जिनीवा को अपनी उदात्त कल्पना के अनुकूल आदर्श नगर का रूप देने में उसने अपना जीवन अर्पित कर दिया। अपने सादे, पवित्र और अनुशासित जीवन, लेखों और उपदेशों द्वारा कालविन ने जनजीवन को प्रभावित किया। उसके अनुयायियों की संख्या बढ़ती गई। इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, फ्रांस, नेदरलैंड, पोलैंड आदि के सुधारवादियों से पत्रव्यवहार द्वारा उसका संपर्क था। धर्मोपदेशों की शिक्षा के लिए उसने जिनीवा में एक विद्यालय स्थापित किया और नगर में कई पाठशालाएँ खोलीं जहाँ प्रश्नोत्तर के रूप में सर्वसाधारण को धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। १५५९ में उसने जिनीवा में ही जिनीवा में ही विश्वविद्यालय की स्थापना की जो शीघ्र ही धर्मसुधार आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र बन गया। विदेशों से अनेक विद्यार्थी और जिज्ञासु शिक्षाप्राप्ति और शंकासमाधान के लिए विश्वविद्यालय में आते थे।

कालविन पवित्र धार्मिक जीवन का कट्टर समर्थक था। भ्रष्ट और अपवित्र आचरण को वह सदा दंडनीय मानता था। पतित व्यक्तियों के लिए उसने कठोर दंड की व्यवस्था की थी। उसने शासन की जो व्यवस्था की, वह धर्मतंत्रीय थी। वह सर्वोपरि और सर्वशक्तिमान थी। शासन की धर्मेतर व्यवस्था उसको कार्यान्वित करने का साधन मात्र थी। वह व्यवस्था न केवल उसके मत के माननेवालों पर लागू थी, वरन् समाज के अन्य सदस्यों के लिए भी वह अनिवार्य थी। मानव का व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन इस व्यवस्था से अनुशासित था। रहन सहन, खान पान, आमोद प्रमोद, भेंट उपहार, सामाजिक व्यवहार, धार्मिक कर्तव्य आदि सभी के संबंध में स्पष्ट नियम थे, जिनका अत्यंत सूक्ष्मता से पालन कराया जाता था। शासन के लिए कालविन ने १८ व्यक्तियों की एक समिति (कंसिस्ट्री) स्थापित की थी जिसमें छह धर्माधिकारी और १२ अन्य वयोवृद्ध अधिकारी थे। प्रति सप्ताह इस समिति की बैठक होती थी जिसमें नियमविरुद्ध आचरण करनेवालों का विचार होता था और उन्हें कठोर दंड दिया जाता था। समिति की जागरूक दृष्टि से ओझल रहना किसी के लिए संभव न था। अपने मत के प्रोटेस्टैंट विरोधियों के लिए भी उसकी व्यवस्था में कोई स्थान न था। रोमन धर्म के प्रोटेस्टैंट विरोधी सर्विटेस का, जो जिनीवा में आश्रय पाने के लिए आया था, जीवित ही जलाया जाना उसका प्रमाण है। यद्यपि कालविन ने उसके प्राणदंड का समर्थन नहीं किया था, तथापि उसको दंड दिलाने में उसने उत्साहपूर्वक भाग लिया था। कालविन ने जिनीवा नगर में अपनी इस व्यवस्था का सफलतापूर्वक प्रयोग किया। उसके जीवनकाल में ही जिनीवा प्रोटेस्टैंट धर्म का सुदृढ़ गढ़ बन गया। वहीं से यूरोप के अन्य देशों में कालविन के मत का प्रचार और प्रसार हुआ।

कालविन की धर्मव्यवस्था के अनुयायी कालविनवादी और उसकी धर्म-सिद्धांत-प्रणाली कालविनवाद के नाम से प्रसिद्ध है। कालविन जीवन के अंतिम क्षण तक निरंतर कार्य करता रहा। अपने स्वास्थ्य और सुख की उसने कभी चिंता न की। ज्वर, संधिवात, दमा आदि रोगों से जर्जर, क्षीणकाय कालविन ने ६ फरवरी, १५६४ को अत्यंत कठिनाई से अपना अंतिम धर्मोपदेश दिया। उसकी शारीरिक स्थिति उत्तरोत्तर खराब होती गई। २७ मई को ५५ वर्ष की आयु में अपने परमप्रिय विश्वस्त मित्र बैज़ा की गोद में उसकी मृत्यु हुई। ईसाई धर्म के सुधारकों में कालविन का विश्व के इतिहास में प्रमुख स्थान है। (त्रि.पं.)

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