काल भारतीय धर्म तथा दर्शन में काल अतुलनीय महिमा प्रतिपादित की गई है। इस विश्व का सर्वश्रेष्ठ मूल तत्व काल माना जाता है जिससे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय संपन्न होता है। काल की सर्वश्रेष्ठ तत्व के रूप में प्रतिष्ठा अर्थर्ववेद के दो सूक्तों (१९ कांड, ५४ तथा ६३ सूक्त) में प्रतिपादित की गई है :

काले मन: काले प्राण: काले नाम समाहितम्।

कालेन सर्वा नन्दनन्त्यागतेन प्रजा इमा: ।।

(अथर्व. १९।६३।७)

यथार्थवादी दर्शन काल की व्यावहारिक तथा पारमार्थिक उभयविध सत्ता मानते हैं, परंतु आदर्शवादी दर्शन काल की पारमार्थिक सत्ता का निषेध करते हैं। लोकव्यवहार में वर्तमान, भूत तथा भविष्य की कल्पना मान्य है। इस व्यवहार की प्रतीति का असाधारण कारण 'काल' ही है। ज्येष्ठत्व तथा कनिष्ठत्व की कल्पनासिद्धि काल के ऊपर आश्रित होती है। 'देवदत्त जेठा है' तथा 'उसका अनुज यज्ञदत्त कनिष्ठ है'इस प्रतीति की सत्यता काल की सिद्धि का हेतु है। काल की सत्ता का प्रमाण अनुमान है। भावकार्य होने से परत्व (ज्येष्ठत्व) तथा अपरत्व (कनिष्ठत्व) असमवायी कारणविशिष्ट होते हैं। दोनों का यह असमवायी कारण काल तथा पिंड का संयोग है और इस संयोग के आश्रय होने से न्यायमत में काल की अनुमानजन्य सिद्धि हाती है। जन्य अर्थात् उत्पन्न होनेवाले पदार्थों का काल जनक माना जाता है (जन्यानां जनक: काल:भाषापरिच्छेद)। काल वस्तुत: एक है, परंतु उपाधि के कारण वह अनेकविध प्रतीत होता है। यह उपाधि है सूर्य की क्रिया। इसी क्रिया के हेतु शीघ्रता, विलंबित, भूत, वर्तमान, भविष्य, क्षण, मुहूर्त, दिन, रात, पक्ष, मास, संवत्सर तथा युग आदि अवयवों की कल्पना की और मानी जाती है। काल एक, विभु तथा नित्य माना जाता है। न्यायमत में काल में पाँच गुण होते हैं : एकत्व संख्या, परम महत् परिमाण, पृथक्त्व, संयोग तथा विभाग। काल सब कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश का कारण होता है। न्याय मत में काल अतींद्रिय होता है अर्थात् उसका ज्ञान इंद्रियों से जन्य नहीं होता, परंतु मीमांसा के आचार्य प्रभाकर के मत काल षडिंद्रियवेद्य हैउसका ज्ञान छहों इंद्रियों से उत्पन्न होता है।

काल की स्वतंत्र सत्ता के विषय में दार्शनिकों में एकमत्य नहीं है। सांख्यदर्शन के आचार्य काल का अंतर्भाव आकाश में मानते हैं और इसलिए वे काल की स्वतंत्र सत्ता का निषेध करते हैं। रघुनाथ शिरोमणि, रघुदेव, रामभद्र आदि नव्य नैयायिकों की दृष्टि में दिक् और काल दोनों ही ईश्वर से अतिरिक्त नहीं होते। फलत: काल ईश्वरात्मक होता है। इस मत में काल ईश्वर से अतिरिक्त पदार्थ नहीं होता, परंतु क्षण ही ईश्वर से अतिरिक्त होता है जो आज, कल आदि लोकव्यवहार का विषय होता है। इस प्रकार प्राचीन नैयायिक तथा कतिपय नव्य नैयायिकों का काल के विषय में स्पष्ट मतभेद है। मायावादी वेदांती काल को साक्षी के प्रत्यय से भासित होनेवाला मानते हैं। वे उसकी पारमार्थिक सत्ता स्वीकार नहीं करते।

जैनमत की दृष्टि यथार्थवादी है। फलत: उसकी कालविषयक मान्यता न्याय और वैशेषिकों की मान्यता से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। जैनदर्शन में भी काल की सत्ता अनुमान जन्य मानी जाती है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्वये पाँचों काल के 'उपहार' माने जाते हैं। काल के बिना पदार्थों की स्थिति की कल्पना कथमपि नहीं की जा सकती। जगत् के समस्त पदार्थ परिणामशील होते हैं। इस परिणाम का साधारण कारण काल होता है। जैनमत में काल 'अनिस्तकाय' द्रव्य माना जाता है, क्योंकि वह जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों के समान विस्तार धारण नहीं करता। नैयायिकों के समान जैनदर्शन में भी काल के दो रूप स्वीकृत किए जाते हैंव्यावहारिक काल तथा पारमार्थिक काल। द्रव्यों के परिणाम ये अनुमित दंड, घटी, पल आदि अवयवों से संपन्न काल 'व्यावहारिक नाम से अभिहित किया जाता है; परंतु पारमार्थिक काल नित्य तथा निरवयव होता है। वर्तनापदार्थों की स्थितिइसका सामान्य लक्षण है। व्यावहारिक काल के ही अंगों की कल्पना की जाती है। अतएव वही सादि एवं सांत होता, परंतु पारमार्थिक काल अनवच्छिन्न रूप से सतत विद्यमान रहनेवाला द्रव्य है। यह समस्त कल्पना न्यायमत से स्पष्टत: मिलती है।

वैयाकरणों की दृष्टि में काल शब्द तन्मात्रा का परिणाम होता है (लघुमंजूषा)। पतंजलि ने अपने महाभाष्य (२।२।५ सूत्र पर) में काल के विषय में अपना विचार अभिव्यक्त किया है'जिससे मूर्तियों का उपचय और अपचय लक्षित हाता है, उसे काल कहते हैं। आदित्य की गति से युक्त होनेवाला वही काल दिन तथा रात्रि में संज्ञा पाता है। सूर्य की गति की अनेकश: आवृत्ति से संपन्न होने पर उसे ही मास तथा संवत्सर का अभिधान प्राप्त होता है'।

योगदर्शन के अनुसार काल वास्तव न होकर विकल्प मात्र हैशब्द-ज्ञानानुपाती वस्तु विकल्प:। अवास्तव पदार्थ का पद के द्वारा वास्तव में समान व्यवहार करना ही विकल्प कहलाता है। काल की यही स्थिति है। मुहूर्त, मिनट, घंटा, दिन, रात आदि समस्त कालसूचक व्यवहार अवास्तव हैं, क्योंकि दो क्षणों का समाहार कभी होता नहीं और बिना समाहार के यह व्यवहार संपन्न ही नहीं हो सकता। इसीलिए योगी लोग काल को वस्तु नहीं कहते, केवल क्षण का क्रम कहते हैं। देश के अत्यंत सूक्ष्मतम अवयव परमाणु के समान क्षण काल का सूक्ष्मतम अंश है। क्षण वस्तु के परिणामक्रम के द्वारा लक्षित किया जाता है। क्षण धारारूप से प्रवाहित होता है जिसे क्षण का कुन कहते हैं। क्रमावलंबी क्षण ही वास्तव पदार्थ है, उसी के क्रम को कालवेत्ता योगी काल मानते हैं (द्रष्टव्य योगसूत्र, विभूतिपाद के ५२वें सूत्र का व्यासभाष्य)। योग की दृष्टि में वर्तमान की ही सत्ता है, न भूत की और न भविष्य की। क्षण तथा उसके क्रम पर संयम करने से योगी को विवेकजन्य ज्ञान उत्पन्न होता है।

इस प्रकार भारतीय दर्शन की विविध धाराओं ने अपनी विशिष्ट दृष्टि से कालतत्व को समझाने का असामान्य उद्योग किया है।

आधुनिक विज्ञान काल को वस्तुओं के निर्माण में कारणस्वरूप मानता है। काल को वहाँ चतुर्थ विमा (फ़ोर्थ डाइमेंशन) मानते हैं। काल के इस रूप की खोज का श्रेय आइन्स्टाइन को है। इसका वैज्ञानिक निरूपण उन्होंने सापेक्षिता (रिलेटिविटी) सिद्धांत द्वारा किया है। सापेक्ष्यवाद का यह सिद्धांत अनुसंधान की दिशा में न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत से कुछ कम महत्व नहीं रखता।

सं.ग्रं.मुक्तावली (प्रत्यक्ष खंड); प्रशस्तपादभाष्य (द्रव्यप्रकरण); नागेश भट्ट : लघुमंजूषा (लकारार्थ प्रकरण); भर्तृहरि : वाक्यपदीय; उमास्वाति : तत्त्वार्थसूत्र (५।२२); नारायण भट्ट : मानमेयोदय (मेय प्रकरण)। (ब.उ.)