कार्यालय किसी व्यवसाय, व्यवस्था, शासन या कार्यविशेष के संबंध में अधिकारी व्यक्ति के निर्देशन में आवश्यक लिखापढ़ी, लेखाजोखा, लेनदेन, आयातनिर्यात आदि के लिखित विवरण प्रस्तुत करने के कार्य जहाँ होते हैं उसे कार्यालय कहते हैं। २०वीं शताब्दी में 'कार्यालय' संस्था का अमित विस्तार हुआ है।
सरकारी, अर्धसरकारी, व्यावसायिक, शैक्षणिक, साहित्यिक आदि कार्यभेद से कार्यालय भी भिन्न-भिन्न प्रकार के हाते हैं और उनके संघटन एवं कार्यों में कार्यविशेष के अनुसार यद्यपि थोड़ा बहुत अंतर होता है, तथापि कार्यों के मूलभूत उद्देश्य प्राय: समान होते हैं जिन्हें संक्षेप में निम्नांकित रूप में समाहित किया जा सकता है :
१. व्यवसाय या कार्यविशेष की भिन्न-भिन्न शाखा प्रशाखाओं और उनके सब विभागों के समस्त कार्य ठीक ढंग के होते रहने के लिए उनमें परस्पर जो सहयोग और सहायता आवश्यक हो उनके लिए वांछित निर्देशों का ब्योरेवार नियमन।
२. निर्देशों की सम्यक् पूर्ति के उद्देश्य से आवश्यकतानुसार भिन्न-भिन्न आँकड़ो, सूचनाओं, तथ्यों, संदर्भों आदि का संकलन।
३. उपर्युक्त सामग्री का यथोचित विश्लेषण विभाजन करके ऐसी योजनाओं का निर्धारण जिनके अनुसार न्यूनतम श्रम, समय और वित्त का उपयोग करके अधिकतम प्रतिफल की प्राप्ति हो सके।
४. अभिलेखों (रेकार्ड्स) को प्रस्तुत करना, आगत कागजपत्रों को उपर्युक्त ढंग से यथोचित नत्थियों (फ़ाइलों) में संरक्षित करना और प्रेषणार्थ प्रस्तुत सामग्री को यथोचित रीति से शीघ्रतापूर्वक भेजना।
सभी प्रकार के कार्यालयों के कर्तव्य और अधिकार उपर्युक्त चतु:सूत्री योजना में सम्माहित हैं। कार्यसंचालन, लेखाजोखा, हानिलाभ, चिंतन परामर्श आदि इन्हीं के विस्तार हैं। कार्यालयों की स्थापना, संघटन, कर्मचारियों, उपकरणों आदि के संबंध में ज्ञातव्य बातें संक्षेप में नीचे दी जा रही हैं :
संघटन—कार्यालयों की स्थापना का श्रीगणेश उनके संघटन से होता है। सर्तकता और सावधानी से संघटित कार्यालय की न्यूनतम श्रम, समय और पूँजी द्वारा अधिकतम प्रतिफल की व्यवस्घा कर सकता है। अतएव व्यवसाय व कार्यविशेष के स्वामी अथवा आयोजन को चाहिए कि कर्मचारीमंडल का चयन करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखें कि उनमें अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने की अधिकतम क्षमता है। तदनंतर दूसरी सर्वाधिक आवश्यकता इस बात की है भिन्न-भिन्न कार्याधिकारियों और उनके सहयोगियों एवं निम्नस्थ कर्मचारियों के अधिकारों एवं कर्तव्यों को बहुत स्पष्ट रूप से और पर्याप्त विस्तार के साथ परिभाषित कर दिया जाए।
कर्मचारीमंडल—कार्यालय का समस्त कार्य उसके कर्मचारी ही करते अत: प्रत्येक कर्मचारी यदि अपनी संपूर्ण योग्यता और शक्ति का पूरा-पूरा उपयोग नहीं करता तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। कर्मचारी का जब तक हार्दिक और मानसिक योग काम के प्रति नहीं होता, काम भी ठीक ढंग से नहीं होता। अत: आयोजकों को चाहिए कि उनकी नियुक्ति, पदोन्नति, स्थानांतरण आदि में पूरी सावधानी बरतें जिनमें कर्मचारी अपने को उपेक्षित न समझें।
स्थान एवं साजसज्जा—कार्यालयों का स्थान प्रशस्त होना चाहिए। टेढ़े तिरछे न बैठकर यदि कर्मचारी क्रमानुसार सीधी पंक्ति में बैठ सकें तो और अच्छा है। प्रकाश और वायु का भी यथोचित प्रबंध होना चाहिए।
उपयोगी सामग्री—मेज, कुरसी, आलमारी, फ़ाइलिंग केबिनेट, यांत्रिक उपकरण (टंकणायंत्र, विभिन्न कैलक्युलेटिंग यंत्र, डाकव्यय के यंत्र, डुप्लिकेटर आदि) कार्य और आवश्यकता के अनुसार अवश्य रहने चाहिए अन्यथा योग्यतम कर्मचारी भी अपने कर्तव्य का निर्वाह सफलतापूर्वक नहीं कर सकता।
यांत्रिक उपकरण—प्रत्येक प्रकार के कार्यालयों में आजकल सर्वाधिक प्रयुक्त उपकरण टंकणयंत्र (टाइपराइटर) और डुप्लिकेटर हैं। इनके अतिरिक्त बड़े-बड़े कार्योलयों में हिसाब किताब करनेवाली भिन्न-भिन्न प्रकार की मशीनें भी रहती हैं। डाक टिकट छापने की मशीनें भी बड़े कार्यालयों में रहती हैं जिनसे पत्र व्यवहार करने और डाकव्यय का लेखा-जोखा रखने में बड़ी सुविधा रहती है। सरकारी टेलिफोन के अतिरिक्त ऐसे कार्यालयों में निजी आंतरिक टेलिफोन भी रहते हैं जिनसे कार्यालय के एक विभाग का व्यक्ति दूसरे विभाग के व्यक्ति से, अपने स्थान से हटे बिना, वार्तालाप और परामर्श कर सकता है जिससे श्रम समय की बड़ी बचत होती है।
इन समस्त उपकरणों के संचालन और उपयोग का प्रशिक्षण संबद्ध कर्मचारियों को भली भाँति करा देना अत्यावश्यक है अन्यथा यंत्रों में दोष आने या उनके टूट फूट जाने पर काम में विलंब और असुविधा तो होती ही है, व्यय भी होता है। इन उपकरणों के रखरखाव की समुचित व्यस्था प्रय: निर्माताओं द्वारा अल्प व्यय में की जाती है। उनकी सेवा का भी उपयोग आवश्यक है। इस संबंध में एक विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि ऐसे भिन्न-भिन्न उपकरण, जहाँ तक हो सके, एक ही कंपनी के बने, एक मेल के रखे जाएँ तो अच्छा है।
पंजिकाएँ (रजिस्टर), नत्थियाँ आदि—आधुनिक प्रवृत्ति पुस्तकाकार बँधी हुई, पंजिकाओं, बहियों आदि के स्थान पर खुले हुए फार्मों या कार्डों का उपयोग करने की होती जा रही है। इनमें विशेष सुविधा होती है। फिर भी, पुस्तकाकार बँधी पंजिकाओं का सर्वथा लोप नहीं किया जा सकता। इनमें ध्यान देने योग्य बातें ये हैं कि एक तो पंजिकाओं और मुद्रित फार्मों की संख्या कार्य की आवश्यकता के अनुसार ही रहे—न कम, न अधिक; दूसरे, प्रयोग में आनेवाली समस्त पंजिकाओं तथा फार्मों में आवश्यक प्रविष्टियाँ (एंट्रीज़) नियमित रूप से दिनोंदन होती रहनी चाहिए। इसी प्रकार पत्राचार में भी अनावश्यक विलंब न होना चाहिए। पत्राचार का आधुनिक सूत्र है—संक्षेप, स्पष्टता और समयबद्धता। नत्थियाँ अद्यतन और क्रमबद्ध होनी चाहिए। बहुत मोटी हो जाने पर उनका उपयोग असुविधाजनक हो जाता है। जिन नत्थियों का कार्य शेष हो चुके या जिनकी आवश्यकता कभी-कभी ही पड़े, उन्हें दैनंदिन चालू नत्थियों से पृथक करते चलना भी अत्यंत आवश्यक है।
सरकारी विभागों से संबंध—प्रत्येक कार्यालय का थोड़ा बहुत संबंध विभिन्न सरकारी विभागों में अवश्य रहता है। डाक-तार-विभाग और रेलवे का संबध इनमें सर्वोपति है। अत: उपयुक्त कर्मचारियों को अपने कार्य से संबद्ध इन विभागों के नियमादि की अद्यतन सूचना रहनी चाहिए। इसी प्रकार श्रम संबंधी केंद्रीय कानूनों और उनके आधार पर प्रादेशिक सरकारों द्वारा निर्मित नियमों की जानकारी भी कार्याधिकारियों को रहनी चाहिए, अन्यथा कर्मचारियों की नियुक्ति, वियुक्ति, पदोन्नति, वेतन आदि के संबंध में पग-पग पर कठिनाइयाँ आ सकती हैं। कर्मचारियों की नियुक्ति और वियुक्ति के संबंध के एंप्लायमेंट एक्सचेंज (सरकार की ओर से संघटित कामदिलाऊ कार्यालय, जिसकी स्थापना स्थानीय शाखा प्राय: प्रत्यक बड़े नगर में रहती है) द्वारा प्राप्त सुविधाओं से ही लाभ उठाया जा सकता है।
कार्याधिक्य चक्र—प्राय: प्रत्येक कार्यालय को वर्ष में कुछ अवसरों पर कार्याधिक्य का सामना करना पड़ता है। ऐसे अवसरों पर 'अतिरिक्त कार्य और अतिरिक्त भुगतान' का सिद्धांत सर्वाधिक उपादेय होता है। पर कार्यविस्तार अत्यधिक होने की अवस्था के अतिरिक्त कर्मचारियों की पूर्वव्यवस्था नितांत आवश्यक होती है।
भंडार—भिन्न-भिन्न ढंग के कार्यालयों से संबद्ध एक भंडार अनिवार्यत: उपेक्षित होता है जिसे व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप में रखना परम आवश्यक है जिससे वांछित सामग्री तत्काल प्राप्त की जा सके।
वेतन, बोनस, संचित कोश आदि—यद्यपि वेतन का कार्यालय के दैनंदिन कामों से कोई सीधा संबंध नहीं है, तथापि कार्यालयों की कार्यपटुता पर उसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ता है। अपर्याप्त वेतन पानेवाला कर्मचारी सर्वदा असंतुष्ट रहता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या तो वह दूसरा कोई उपाय भी करता है या अवांछित उपायों की शरण लेता है। इसी प्रकार पर्याप्त से बहुत अधिक वेतन पानेवाला कर्मचारी समान सहकर्मियों की ईर्ष्या का पात्र होता है। दोनों ही स्थितियाँ कर्मचारीमंडल के कतिपय सदस्यों के मन पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया करती हैं जिसका प्रभाव उसके कर्तव्यगत कार्यों पर पड़ना अनिवार्य है। अत: नियोक्ता मालिकों या आयोजकों को इस दिशा में भेदभाव और पक्षपात छोड़कर उचित वेतन की व्यवस्था करनी चाहिए। परंतु साथ ही कर्मचारी की विशिष्ट योग्यता का समादर करने में भी उन्हें पश्चात्पद नहीं होना चाहिए। बोनस, संचित कोश (प्राविडेंट फ़ंड), ग्रैचुइटी, पेंशन आदि की व्यवस्था भी कतिपय कार्यालयों की ओर से रहती है। इनके भुगतान में यथासंभव कटुता से बचना चाहिए। (शं.ना.वा.)