कार्मेलीय (कार्मेलाइट) धर्मग्रंथ रोमन काथलिक गिरजे के महान् धर्मसंघों में से एक। इसके प्रवर्तक बेर्थोल्द क्रूसेद (क्रूसयुद्ध) में भाग लेने के बाद १२वीं शताब्दी में दस साथियों के साथ कार्मेल नामक पर्वत पर साधना करने लगे थे। येरुसलम के बिशप ने सन् १२१० ई. में इस संघ की नियमावली को औपचारिक अनुमोदन प्रदान किया था। मुसलमानी विजयों के कारण ये धर्मसंघी यूरोप में आकर बसने लगे। वहाँ वे फ्ऱांसिस्की, दोमिनिकी आदि भिक्षुक संघियों की तरह व्यक्तिगत साधना करने के अतिरिक्त उपदेश और धर्मशिक्षा देने का कार्य भी करने लगे। यह धर्मसंघ अत्यंत लोकप्रिय बनकर समस्त यूरोप में फैल गया। १५वीं सदी में स्त्रियों के लिए इस धर्मसंघ की एक शाखा की स्थापना हुई थी। दो महान् रहस्यवादियों अर्थात् अविला की संत तेरेसा तथा जॉन ऑव द क्रॉस की प्रेरणा से इस संघ का १६वीं सदी में सुधार हुआ था जिसके फलस्वरूप आजकल पुरुषों तथा स्त्रियों दोनों के संघों की दो-दो शाखाएँ पाई जाती हैं। प्राचीन कार्मेलीय संघ अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय हैस्त्रियों में मठों में १,००० से कम तथा पुरुषों के मठों में २,००० से कुछ अधिक सदस्य हैं। नवीन कार्मेलीय संघ में १०,००० से अधिक स्त्रियाँ अपने मठ के बाहर नहीं जा सकती हैं। बँगलोर, कलकत्ता, मँगलूर आदि भारत के दस स्थानों में इस संघ की संन्यासनियों के लिए मठ स्थापित हो चुके हैं जहाँ अविला की संत तेरेसा का नियम लागू है। (का.बु.)