कार्डिनल रोमन काथलिक गिरजे के उच्चतम पदाधिकारी, जो गिरजे के प्रशासन में परमाध्यक्ष (पोप) की सहायता करते हैं। वास्तव में आजकल अधिकांश कार्डिनल इटली के बाहर रहकर परामर्श मात्र दे सकते हैं; दूसरे कार्डिनल स्थायी रूप से रोम में निवस करते हैं और गिरजे के प्रशासन में सक्रिय भाग लेते हैं। परमाध्यक्ष के मरने पर सभी कार्डिनल मिलकर उनका नवीन उत्तराधिकारी चुनते हैं।
काथलिक धर्म के परमाध्यक्ष ही संसार भर के पुराहितों में से नए कार्डिनलों की नियुक्ति करते हैं। इन नियुक्तियों में विभिन्न देशों के महत्व तथा काथलिकों की संख्या का ध्यान रखा जाता है जिससे कार्डिनल मंडल समस्त काथलिक संसार का प्रतिनिधान कर सके। जनवरी, १९५३ ई. में बंबई के वर्तमान आर्चबिशप कार्डिनल नियुक्त हुए; इस नियुक्ति का ऐतिहासिक महत्व इसमें है कि ये प्रथम भारतीय कार्डिनल हैं। १५वीं शताब्दी में कार्डिनलों की संख्या २४ थी। सन् १५५६ ई. से लेकर वह ७० तक सीमित रही किंतु वर्तमान परमाध्यक्ष ने उसे और बढ़ा दिया है; जनवरी, १९६१ ई. में इनकी संख्या ८९ थी। नियुक्ति के बाद प्रत्येक कार्डिनल रोम जाकर परमाध्यक्ष से लाल टोपी (रेड हैट) ग्रहण करता है। सन् १६३० ई. में कार्डिनलों को 'ऐमिनेंस' उपाधि दी गई थी।
'कार्डिनल' का अर्थ है मुख्य (लातीनी शब्द कार्दो का अर्थ है कब्जा)। कार्डिनलों के नियोजन का इतिहास इस प्रकार है : द्वितीय शताब्दी ई. से लेकर रोम के आसपास के बिशपों को, रोम नगर के प्रधान गिरजाघरों के पुरोहितों को तथा कुछ उपयाजकों को (ये दरिद्रों की देखभाल करते थे) कार्डिनल की उपाधि दी जाने लगी क्योंकि वे काथलिक धर्म के परमाध्यक्ष की विशेष सहायता करत थे। ११वीं शताब्दी से इटली के बाहर से भी कार्डिनलों को बुलाया जाने लगा, किंतु उनका रोम में निवास करना अनिवार्य समझा जाता था। इस कारण अधिकांश कार्डिनल शताब्दियों तक इतालवी थे। १४वीं शताब्दी से कार्डिनलों को अपने-अपने देश में रहने की अनुमति दी जाने लगी।
उपर्युक्त ऐतिहासिक विकास के कारण आज तक कार्डिनलों के तीन वर्ग हैं—(१) कार्डिनल बिशप जिनकी संख्या छह तक सीमित है; इनमें से जो पहले कार्डिनल नियुक्त हुए हैं वही नए परमाध्यक्ष का अभिषेक करते है; (२) कार्डिनल प्रीस्ट (याजक); इस वर्ग में इटली के बाहर रहनेवाले कार्डिनल सम्मिलित हैं; (३) कार्निडल डोकन (उपयाजक) जिनकी संख्या १४ तक सीमित है। (का.बु.)