कारावाज्जो, मिकेलांजेलो मेरिसी दा सन् १५७३ में इटली के लोंबार्दी प्रांत में मीलान के समीप कारावाज्जो ग्राम ने एक ऐसे चितेरे को जन्म दिया जिसने इटली की कला में क्रांति पैदा कर दी। कारावाज्जो एक राजगीर का पुत्र था। ११ वर्ष की उम्र में वह मीलान भेजा गया जहाँ सीमान्ने पीतरत्सेनो की संरक्षा में उसे रहना पड़ा। १६ वर्ष की उम्र में वह रोम आया (लगभग १५९० में) जहाँ वह दे आरपिनो का शिष्य बना। परंतु कम उम्र के कारण उसे जीविकार्जन में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। उसका स्वभाव बड़ा क्रोधी था और बहुत ही शीघ्र वह उत्तेजित भी हो जाया करता था। इसी उत्तेजना के प्रभाव में १६०६ में उसने अपने एक विरोधी के प्राण तक ले लिए, परिणामत: प्राणरक्षा के लिए उसे नगर छोड़कर भागना पड़ा। जीवन के शेष दिन उसने नेपुल्स, माल्टा तथा सिसली में बिताए। इन अभाव के दिनों में भी सरकार निरंतर उसका पीछा करती रही। अपने इसी उत्तेजित स्वभाव के कारण वह जहाँ जाता, अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ा लेता। माल्टा से भी उसे शत्रुता के कारण ही सिसिली से भागना पड़ा था। कुछ दिनों के बाद वहीं उसे रोम द्वारा क्षमा का संदेश मिला। परंतु रोम की भूमि का दर्शन अब उसके भाग्य में न था। रोम लौटते समय राह में ज्वर का शिकार हो सन् १६१० में उसने इस संसार से विदा ले ली।
पितरत्सेनो आदि की शैली में अनाकर्षक रंगों का प्रयोग का प्रयोग होता था, प्रकाश और छाया में बहुत गहरा अंतर हुआ करता था, कारावाज्जो ने उसे सुधारकर एक सर्वथा भिन्न और वैयक्तिक शैली को जन्म दिया। किंतु उसकी प्रारंभिक शैली पर सबसे स्पष्ट छाप बेस्कियाई शैली के कलाकारों की पड़ी। आधी लंबाई की मानव आकृतियाँ, सरल अभिव्यक्ति, स्थानीय और सुस्पष्ट श्वेत रंगों का प्रयोग, तथा भूमि एवं अवयवों का सम्यक् रूपायन उसकी प्रारंभिक कला की विशेषताएँ थीं। उसके माडल अधिकांश किशोर हैं। परंतु वह केवल बारीक शैली के क्षेत्र में ही अग्रणी नहीं थी, कहा के क्षेत्र में वह आधुनिक यथार्थवाद का स्रोत भी माना जाता है। उसकी प्रांरभिक कृतियाँ, जैसे 'फलों की टोकरी और किशोर', 'भविष्यवक्ता', 'संगीतरचना', 'बाकस' आदि यथार्थवादी शैली का ही निरूपण करती हैं। उसकी कला को विशेष मर्यादा देने का श्रेय काद्रिनल देल मोंते को है। उसी के बनवाए चित्रों में कारावाज्जो को विशेष यश मिला। उसकी सर्वोत्तम कृतियों—'संत मैथ्यू और देवदूत', 'संत मैथ्यू का आह्वान' तथा 'संत मैथ्यू का बलिदान'—ने १५९८ तथा १६०० के बीच एक प्रभावशाली मोड़ लिया जिसने रोम में धूम मचा दी। उसका झुकाव अब पारंपरिक धार्मिक विषयों की ओर बढ़ा परंतु उनमें उसने एक सर्वथा नवीन अभिव्यक्ति का समावेश किया। उसका आदर्श जनसाधारण का यथार्थ जीवन बना। प्रकाश और छाया का प्रभाव उसकी कृतियों में जीवन भरता तथा भावना को प्रखरता प्रदान करता है। प्रकाश और छाया का यह गहरा अंतर उसकी कला में स्पष्टता को संकेंद्रित कर चला। उसकी शैली के इसी रूप से उसकी कृतियों को क्लासिकल कला के समकक्ष कर दिया है। उसके चित्र 'एमाउस में भोज', 'संत पाल की संशुद्धि', 'संत पीतर की शूली' आदि इसी परंपरा के हैं।
कालांतर में कारावाज्जो ने किशोरों के भड़कीले वस्त्रोंवाले आदर्श को छोड़ अपने चित्रफलक पर केवल एक धधकता लाल रंग ही रखा। इस परंपरा में कारावाज्जो के 'समाधीकरण', 'संत आन के साथ माता और शिशु', 'पवित्र कुमारी की मृत्यु' आदि आते हैं। कारावाज्जो चित्रकला के क्षेत्र में महान् क्रांतिकारी गिना जाता है। उसने प्राचीन पारंपरिक गुरुओं की कभी नकल नहीं की, परंतु पुनर्जागरण काल के परिणामों से स्वयं भी अछूता न बचा और न अपनी समकालीन प्रवृत्तियों की वह उपेक्षा ही कर सका। उसने यह प्रमाणित करने की चेष्टा की कि प्रकृति ही उसका आदहर्श रही है। परंतु उसकी महत्ता इसमें नहीं है कि उसने प्रकृति से अपनी कला का सीधा संबंध जोड़ा, बल्कि इसमें है कि धार्मिक विषयों को उसने जनजीवन पर ढालने की पूर्ण चेष्टा की और इसमें उसे सफलता भी मिली। उसने कला को समाज का दर्पण बनाया।
रोम की कला पर कारावाज्जो का प्रभाव गहरा पड़ा परंतु वह क्षणिक सिद्ध हुआ। किंतु इटली के बाहर फ्रांस और नीदरलैंड्स के कलाकारों पर यह प्रभाव गहरा एवं स्थायी दोनों सिद्ध हुआ। कुल ३७ वर्ष जीवित रहकर भी पाश्चात्य कला के इतिहास में कारावाज्जो ने अपना अमर स्थान बना लिया है। उससे पहले रोमन कलाकार धार्मिक अलौकिक कथाओं का आदर्श चित्रण उपस्थित करने में ही अपनी सफलता समझते थे और प्रत्येक नए कलाकार को उसी साँचे में ढलकर निकलना होता था। कारावाज्जो प्रथम कलाकार है जिसने इस प्रकार की चहारदीवारी में रहना स्वीकार नहीं किया। उसे कथाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण अपना अनुभव तथा दृष्टिकोण लगता था।
उसने वेनिस तथा रोम में कलाशिक्षा प्राप्त की थी पर स्वाभाविक चित्रण की ओर वह विशेष रूप से आकृष्ट था। जिस किसी वस्तु को वह चित्रित करने बैठता, उसकी यही चेष्टा रहती थी कि वह उसे बिलकुल वैसा ही रूप प्रदान करे जैसा वह देखने में आँखों को लगता है। वास्तव में उसे प्रत्येक वस्तु के रूप, रंग तथा आकार में सौंदर्य दिखाई पड़ने लग गया था जो उससे पहले के चित्रकार नहीं देख पाते थे। पुराने कलाकार कल्पना और आदर्श में ही सौंदर्य पाते थे। कारावाज्जो के अधिकतर चित्रों में वस्तुओं का जैसा का तैसा चित्रित करने का प्रयास हुआ है। इस दृष्टि से उसका चित्र 'बोआय बिटेन बाइ अ लिज़ार्ड' अत्यंत महत्वूपर्ण है और निश्चित रूप से प्रचलित कला से भिन्न एक नए दृष्टिकोण का सूत्रपात करता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि शास्त्रीय प्रचलित विषयों के अतिरिक्त भी ऐसे विषय चित्रकला के लिए हो सकते थे। शास्त्रीय धार्मिक प्रकार के चित्रों में भी वह छाया का अद्भुत प्रयोग करता था। इन चित्रों के पात्रों को भी वह साधारण जनजीवन से ही चुनता था। यही कारण था कि वह उस समय के कलारसिकों तथा कलामर्मज्ञों का उसे कोपभाजन बनना पड़ा। वे उसपर कला को अश्लील बनाने का आरोप लगाते थे। कारावाज्जो ऐसी आलोचनाओं की तनिक भी परवाह न करता था और अक्सर उनको मुँहतोड़ जवाब देता था। कई बार ऐसे लोगों से उसका झगड़ा हो गया जहाँ से एक दम वह भाग निकला। वह नेपुल्स वापस आया और रोम जाने की तैयारी में था। वहाँ उसे स्पेन की पुलिस ने वापस आया और राम जाने की तैयारी में था। वहाँ उसे स्पेन की पुलिस ने शक में रोक लिया। वह इस समय आर्थिक संकट में था और वहीं भूख तथा ज्वर से पीड़ित हो उसने दम तोड़ दिया।
१७वी शताब्दी की सारी कला कारावाज्जो की प्ररेणा की प्रतीक है और एक नए युग का निर्माण करती है। (रा.चं.श.)