कॉरनेय पियर (१६०६-१६८४) इनका जन्म रुआँ में ६ जनवरी, सन् १६०६ को हुआ था। इनके पिता न्यायनिष्ठ मजिस्ट्रेट थे। आरंभ में मध्यवर्गीय (बूर्जुवा) थे; किंतु अपनी सेवाओं के कारण कालांतर में कुलीन (नोबुल) बना दिए गए। इन्होंने जेसुइट स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। सन् १६२४ में इन्होंने वकालत करने के लिए अपना नाम लिखवाया किंतु इनका व्यवसाय वकालत नहीं, काव्य था। इन्होंने सन् १६२९ में 'मेलाँज पोएतिक' और प्रथम सुखांत नाटक 'मेलित' लिखा जो इनके निजी विफल प्रेमव्यापार पर आधारित है। इनके आरंभिक छह सात सुखांत नाटकों में कोई महान् गुण नहीं था; किंतु नवीनता एवं आकर्षण के कारण उन्हें सफलता प्राप्त हुई। सन् १६४० में एक मध्यवर्गीय महिला मारी द लामपियर से इन्होंने विवाह किया जिनसे छह संतानें हुईं।
रूआँ में कॉरनेय की नाटक विषयक सफलता ने रिशलू का ध्यान आकृष्ट किया और कॉरनेय पेरिस जाकर 'पाले कारदिनाल थेआत्र' के रिशलू-कविमंडल में सम्मिलित हो गए। इस प्रकार नाट्यशाला के नाटककारों से इनका निकटतर संपर्क हुआ। 'मेदे' इनका प्रथम दुम्खांत नाटक है। इस युगप्रवर्तिनकारी पुस्तक ने उन्हें प्रसिद्ध कर दिया। 'ल सिद' (१६३६) बहुत लोकप्रिय हुआ; किंतु अन्य नाटककार तथा रिशलू उससे अप्रसन्न हुए और रिशलू के संकेत पर अकादेमी ने उसकी आलोचना की। इससे उत्पन्न घृणा के कारण कॉरनये तीन वर्ष के लिए रूआँ लौट आए।
'ल सिद' की आलोचना के पश्चात् 'कॉरनेय' रोमांस तथा दु:खात्मक सुखांत नाटक को छोड़कर विशुद्ध दु:खांत नाटक की ओर प्रवृत्त हुए। सन् १६४० और १६४३ के बीच लिखी हुई इनकी सर्वोत्कृष्ट पुस्तकें 'होरास', 'सिना' और 'पॉलियुत' हैं। सन् १६४३ और १६५२ के बीच इन्होंने १० नाटक लिखे जिनमें 'ला मॉर्त द पॉम्पे', 'रोदोगुन', 'आँद्रोमेद', 'निकोमेद' आदि सात दु:खाँत नाटक तथा दो सुखांत नाटक हैं। 'ल मांतर' फ्ऱेच सुखांत नाटकों का अग्रदूत है, जिसमें एक सफेद झूठ बोलनेवाले पात्र की व्यग्रता का सुंदर चित्रण है। 'सुइत' को सफलता नहीं मिली। 'दॉन् सॉश दारागाँ' वीर रसपूर्ण सुखांत नाटक है। सन् १६५९ और १६७४ के बीच इन्होंने ११ नाटक लिखे जिनमें 'ला त्वाज़ाँदॉर', 'सेरतोरियस', 'अतिला' और 'तित ए बेरेनिस' (रासिन के 'बेरेनिस' से उत्कृष्ट) मुख्य हैं। इनके परवर्ती नाटक इनके पूर्ववर्ती नाटकों की तुलना में अच्छे नहीं हैं।
दो बार अस्वीकृत होने के पश्चात् सन् १६४७ में ये अकादमी के सदस्य चुने गए। कॉरनेय मध्यमवर्गीय गुणों एवं परिमितियों से युक्त प्रांतीय (बोहीमियन नहीं) पुरुष थे। ये स्नेहपूर्ण एवं कर्तव्यपरायण पुत्र, भाई तथा थे। ये असुंदर आकृति, कठोर रूप, अनाकर्षक व्यवहार, पवित्र प्रकृति और स्खलित स्वरवाले मनुष्य थे। यह धारणा भ्रांत है कि इनका निधन निर्धनावस्था में हुआ। इनका देहांत ३० सितंबर, सन् १६८४ को हुआ।
सन् १६२९ और १६७४ के बीच कॉरनेय ने ३३ नाटक लिखे, जिनमें आठ अत्यंत उत्कृष्ट हैं। ये अनुपम लेखक थे। इनके आरंभिक सुखांत नाटकों में आडंबर तथा चपलता है; किंतु वे थकानेवाले नहीं हैं। इनके अंतिम छह नाटक महत्वहीन हैं। इनके नाटकों के कुछ अनुच्छेद एवं उपकथाएँ विचार की उच्चता, गठन की समीचीनता तथा भाषा की उपयुक्तता की दृष्टि से अनुपम हैं; किंतु कहीं-कहीं उनमें व्यर्थ बड़े-बड़े शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। इनकी कविताएँ नीरस तथा भद्दी हैं।
जब कॉरनेय पेरिस आए तब रिनेसाँ क्लैंकिसल ड्रामा विलीन हो चुका था; करुण दु:खांत नाटक का अध:पतन हो रहा था; और दु:खपूर्ण सुखांत नाटक लोकप्रिय था। कॉरनेय ने यही अंतिम नाट्यप्रणाली अपनाई। इनके दु:खांत नाटक का अभिप्राय वीररसप्रधान रोमांटिक नाटक था, जिसमें पात्रों की शक्ति का प्रदर्शन, संकल्प शक्ति के विश्वास की व्याख्या तथा गौरव की श्लाघनीय खोज होती थी। कॉरनेय फ्ऱेंच क्लैसिकल दु:खांत नाटकों के रचयिता थे। इन्होंने कार्यों में मनोविश्लेषण पर बल दिया। इनके पात्रों के विषय में यह भ्रांत धारणा है कि वे 'सुंदर विचार' हैं, जीवित मनुष्य नहीं। वस्तुत: वे असाधारण मनुष्य हैं। जीवन की साधारण वस्तुओं के प्रति उनकी निश्चिंतता दर्शनीय है। ये नारीचित्रण की अपेक्षा पुरुषचित्रण में अधिक सफल हुए हैं।
कॉरनेय ने गुणों पर नहीं, वरन् संकल्प पर बल दिया है। बीरतापूर्ण चरित्र की उदात्तता इनके दु:खांत नाटकों का प्रधान गुण है। 'ल सिद' में एक पुत्र के उदात्त एवं वीरतापूर्ण कर्तव्यपालन तथा सम्मान का, 'होरास' में देशभक्ति का, 'सिना' में कृपा का, 'पालियुत' में विश्वास का और 'निकोमेद' में सैनिक वीरता का चित्रण है। इनके समस्त नाटकों में आत्मा की उच्चता परिलक्षित होती है। सम्राटीय रोम, सामंतीय स्पेन तथा मूर्ति-पूजा-संबंधी पौराणिक कथाओं के द्वारा इन्होंने लुई चतुर्दश के फ्रांस की आत्मा की अभिव्यक्ति की है। सम्राटीय रोम ने कॉरनेय को उनके नाटकों के लिए विषय प्रदान किए। कठिन, पुष्ट, संकीर्ण, व्यावहारिक तथा अप्रगीतात्मक रोमन प्रतिभा फ्ऱेंच प्रतिभा के साथ मिलकर कॉरनेय की असाधारण प्रतिभा के अनुकूल हुई।
कॉरनेय शैक्सपियर की भाँति प्रगीतात्मक नाटक नहीं लिख सके। इनमें शेक्सपियर जैसी व्यापकता और काव्यात्मक उच्चता का अभाव है। इनके नाटकों में कल्पना की उड़ान नहीं; किंतु तर्क की प्रधानता है। इनके पात्र बड़े ही तर्कवादी हैं। ये बौद्धिक संकट एवं वीरतापूर्ण निर्णय का चित्रण करनेवाले नाटककार हैं। अरस्तू के संधित्रय का यथासंभव पालन करते हुए इन्होंने अपने नाटकों में समस्याओं, उनके समाधान एवं अंत का सुंदर निदर्शन किया। इनमें लक्ष्य की ओर घटनाओं का प्रतिबद्ध प्रवाह दर्शनीय है। इनके संवाद बड़े ही मार्मिक एवं विनोदपूर्ण हैं। वाक्प्रवाह तथा उनके उत्तर में एक दूसरे के पश्चात् बड़ी पटुता एवं तड़ित्क्षिप्रता के साथ आए हैं। इन्होंने बड़ी सरलता से अलेग्ज़ैंड्रीन का प्रयोग किया है। इनके 'दिसकुर' एवं 'एक्ज़ामे' नामक दु:खांत नाटकों में इनके नाटकीय सिद्धांत एवं प्रयोग की संक्षिप्त व्याख्या है। (मु.मो.दे.)