कायोत्सर्ग मुनिके सामयिक, संस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, और कायोत्सर्ग, ये 'षड् आवश्यक' कार्य हैं। कायोत्सर्ग का शब्दार्थ 'शरीर के ममत्व का त्याग' है। मूलाचार (अ. ७, गा. १५३) के अनुसार इसका लक्षण (परिभाषा) है—पैरों में चार अंगुल का अंतराल देकर खड़े हों, दोनों भुजाएँ नीचे को लटकती रहें और समस्त अंगों को निश्चल करके यथानियम श्वास लेने (प्राणायाम) पर कायोत्सर्ग होता है। इस प्रकार कायोत्सर्ग ध्यान की शारीरिक अवस्था (समाधि) का पर्यायवाची है, जैसे 'जिन सुथिर मुद्रा देख मृगगन उपल खाज खुजावते' से स्पष्ट है। संकल्प-विकल्प-रहित आंतरिक थिरता को ध्यान (आत्मकायोत्सर्ग) कहा है। अपराधरूपी व्रणों के भैषजभूत कायोत्सर्ग के दैनिक, मासिक आदि अनेक भेद हैं। उत्कृष्ट कायोत्सर्ग एक वर्ष तक तथा जघन्य अंतर्मुहूर्त (एक क्षण से लेकर दो घड़ी के पहिले तक) होता है। (खु.चं.गो.)