कामायनी यह आधुनिक छायावादी युग का सर्वोत्तम और प्रतिनिधि हिंदी महाकाव्य है। जयशंकर 'प्रसाद' की यह अंतिम काव्य रचना १९३६ ई. में प्रकाशित हुई, परंतु इसका प्रणयन प्राय: ७-८ वर्ष पूर्व ही प्रारंभ हो गया था। चिंता से प्रारंभ कर आनंद तक १५ सर्गों के इस महाकाव्य में मानव मन की विविध अंतर्वृत्तियों का क्रमिक उन्मीलन इस कौशल से किया गया है कि मानव सृष्टि के आदि अब तक के जीवन के मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक विकास का इतिहास भी स्पष्ट हो जाता है।

मानव के अग्रजन्मा देव निश्चिंत जाति के जीव थे। किसी भी प्रकार की चिंता न होने के कारण वे 'चिर-किशारे-वय' तथा 'नित्यविलासी' देव आत्म-मंगल-उपासना में ही विभोर रहते थे। प्रकृति यह अतिचार सहन न कर सकी और उसने अपना प्रतिशोध लिया। भीषण जलप्लावन के परिणामस्वरूप देवसृष्टि का विनाश हुआ, केवल मनु जीवित बचे। देवसृष्टि के विध्वंस पर जिस मानव जाति का विकास हुआ उसके मूल में थी चिंता जिसके कारण वह जरा और मृत्यु का अनुभव करने को बाध्य हुई। चिंता के अतिरिक्त मनु में दैवी और आसुरी वृत्तियों का भी संघर्ष चल रहा था जिसके कारण उनमें एक ओर आशा, श्रद्धा, लज्जा और इड़ा का आविर्भाव हुआ तो दूसरी ओर कामवासना, ईर्षा और संघर्ष की भी भावना जगी। इन विरोधी वृत्तियों के निरंतर घात-प्रतिघात से मनु में निर्वेद जगा और श्रद्धा के पथप्रदर्शन से यही निर्वेद क्रमश: दर्शन और रहस्य का ज्ञान प्राप्त कर अंत में आंनद की उपलब्धि का कारण बना। यह चिंता से आनंद तक मानव के मनौवैज्ञानिक विकास का क्रम है। साथ ही मानव के आखेटक रूप में प्रारंभ कर श्रद्धा के प्रभाव से पशुपालन, कृषक जीवन और इड़ा के सहयोग से सामाजिक और औद्योगिक क्रांति के रूप में भौतिक विकास एवं अंत में आध्यात्मिक शांति की प्राप्ति का उद्योग मानव के सांस्कृतिक विकास के विविध सोपान हैं। इस प्रकार कामायनी मानव जाति के उद्भव और विकास की कहानी है।

प्रसाद ने इस काव्य के प्रधान पात्र मनु और कामपुत्री कामायनी श्रद्धा को ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में माना है, साथ ही जलप्लावन की घटना को भी एक ऐतिहासिक तथ्य स्वीकार किया है। शतपथ ब्राह्मण के प्रथम कांड के आठवें अध्याय से जलप्लावन संबंधी उल्लेखों का संकलन कर प्रसाद ने इस काव्य का कथानक निर्मित किया है, साथ ही उपनिषद् और पुराणों में मनु और श्रद्धा का जो रूपक दिया गया है, उन्होंने उसे भी अस्वीकार नहीं किया, वरन् कथानक को ऐसा स्वरूप प्रदान किया जिसमें मनु, श्रद्धा, और इड़ा के रूपक की भी संगति भली भाँति बैठ जाए। परंतु सूक्ष्म सृष्टि से देखने पर जान पड़ता है कि इन चरित्रों के रूपक का निर्वाह ही अधिक सुंदर और सुसंयत रूप में हुआ, ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में वे पूर्णत: एकांगी और व्यक्तित्वहीन हो गए हैं।

मनु मन के समान ही अस्थिरमति हैं। पहले श्रद्धा की प्रेरणा से वे तपस्वी जीवन त्याग कर प्रेम और प्रणय का मार्ग ग्रहण करते हैं, फिर असुर पुरोहित आकुलि और किलात के बहकावे में आकर हिंसावृत्ति और स्वेच्छाचरण के वशीभूत हो श्रद्धा का सुख-साधन-निवास छोड़ झंझा समीर की भाँति भटकते हुए सारस्वत प्रदेश में पहुँचते हैं; श्रद्धा के प्रति मनु के दुर्व्यवहार से क्षुब्ध काम का अभिशाप सुन हताश हो किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं और इड़ा के संसर्ग से बुद्धि की शरण में जा भौतिक विकास का मार्ग अपनाते हैं। वहाँ भी संयम के अभाव के कारण इड़ा पर अत्याचार कर बैठते हैं और प्रजा से उनका संघर्ष होता है। इस संघर्ष में पराजित और प्रकृति के रुद्र प्रकोप से विक्षुब्ध मनु जीवन से विरक्त हो पलायन कर जाते हैं और अंत में श्रद्धा के पथप्रदर्शन में उसका अनुसरण करते हुए आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। इस प्रकार श्रद्धाआस्तिक्य भावतथा इड़ाबौद्धिक क्षमताका मनु के मन पर जो प्रभाव पड़ता है उसका सुंदर विश्लेषण इस काव्य में मिलता है।

काव्य रूप की दृष्टि से कामायनी चिंतनप्रधान है, जिसमें कवि ने मानव को एक महान् संदेश दिया है। 'तप नहीं, केवल जीवनसत्य' के रूप में कवि ने मानव जीवन में प्रेम की महत्ता घोषित की है। यह जगत् कल्याणभूमि है, यही श्रद्धा की मूल स्थापना है। इस कल्याणभूमि में प्रेम ही एकमात्र श्रेय और प्रेय है। इसी प्रेम का संदेश देने के लिए कामायनी का अवतार हुआ है। प्रेम मानव और केवल मानव की विभूति है। मानवेतर प्राणी, चाहे वे चिरविलासी देव हों, चाहे देव और प्राण की पूजा में निरत असुर, दैत्य और दानव हों, चाहे पशु हों, प्रेम की कला और महिमा वे नहीं जानते, प्रेम की प्रतिष्ठा केवल मानव ने की है। परंतु इस प्रेम में सामरस्य की आवश्यकता है। समरसता के अभाव में यह प्रेम उच्छृंखल प्रणयवासना का रूप ले लेता है। मनु के जीवन में इस सामरस्य के अभाव के कारण ही मानव प्रजा को काम का अभिशाप सहना पड़ रहा है। भेद-भाव, ऊँच-नीच की प्रवृत्ति, आडंबर और दंभ की दुर्भावना सब इसी सामरस्य के अभाव से उत्पन्न होती हैं जिससे जीवन दु:खमय और अभिशापग्रस्त हो जाता है। कामायनी में इसी कारण समरसता का आग्रह है। यह समरसता द्वंद्व भावना में सामंजस्य उपस्थित करती है। संसार में द्वंद्वों का उद्गम शाश्वत तत्व हैफूल के साथ काँटे, भाव के साथ अभाव, सुख के साथ दु:ख और रात्रि के साथ दिन नित्य लगा ही रहता है। मानव इनमें अपनी रुचि के अनुसार एक को चुन लेता है, दूसरे को छोड़ देता है और यही उसके विषाद का कारण है। मानव के लिए दोनों को स्वीकार करना आवश्यक है, किसी एक को छोड़ देने से काम नहीं चलता। यही द्वंद्वों की समन्वय स्थिति ही सामरस्य है। प्रसाद ने हृदय और मस्तिष्क, भक्ति और ज्ञान, तप, संयम और प्रणय, प्रेम, इच्छा, ज्ञान और क्रिया सबके समन्वय पर बल दिया है।

कला की दृष्टि से कामायनी छायावादी काव्यकला का सर्वोत्तम प्रतीक माना जा सकता है। चित्तवृत्तियों का कथानक के पात्र के रूप में अवतरण इस काव्य की अन्यतम विशेषता है। और इस दृष्टि से लज्जा, सौंदर्य, श्रद्धा और इड़ा का मानव रूप में अवतरण हिंदी साहित्य की अनुपम निधि है। (श्री.कृ.ला.)