कामशास्त्र मानव जीवन के लक्ष्यभूत चार पुरुषार्थों में 'काम' अन्यतम पुरषार्थ माना जाता है। संस्कृत भाषा में उससे संबद्ध विशाल साहित्य विद्यमान है। इस शास्त्र का आधारपीठ है महर्षि वात्स्यायनरचित कामसूत्र। सूत्र शैली में निबद्ध, वात्स्यायन का यह महनीय ग्रंथ विषय की व्यापकता और शैली की प्रांजलता में अपनी समता नहीं रखता। महर्षि वात्स्यायन इस शास्त्र में प्रतिष्ठाता ही माने जा सकते हैं, उद्भावक नहीं, क्योंकि उनसे बहुत पहले इस शास्त्र का उद्भव हो चुका था। कहा जाता है, प्रजापति ने एक लाख अध्यायों में एक विशाल ग्रंथ का प्रणयन कर कामशास्त्र का आंरभ किया, परंतु कालांतर में मानवों के कल्याण के लिए इसके संक्षेप प्रस्तुत किए गए। पौराणिक पंरपरा के अनुसार महादेव की इच्छा से 'नंदी' ने एक सहस्र अध्यायों में इसका सार अंश तैयार किया जिसे और भी उपयोगी बनाने के लिए उद्दालक मुनि के पुत्र श्वेतकेतु ने पाँच सौ अध्यायों में उसे संक्षिप्त बनाया। इसके अंनतर पांचाल बाभव्य ने तृतीयांश में इसकी और भी संक्षिप्त कियाडेढ़ सौ अध्यायों तथा सात अधिकरणों में, कालांतर में सात महनीय आचार्यों ने प्रत्येक अधिकरण के ऊपर सात स्वतंत्र ग्रंथों का निर्माण किया(१) नारायण ने ग्रंथ बनाया साधारण अधिकरण पर, (२) सुवर्णनाभ ने सांप्रयोगिक पर, (३) घोटकमुख ने कन्या संप्रयुक्तक पर, (४) गोनर्दीय ने भार्याधिकारिक पर, (५) गोणिकापुत्र ने पारदारिक पर, (६) दत्तर ने वैशिक पर तथा (७) कुचिमार ने औपनिषदिक पर। इस पृथक् रचना का फल शास्त्र के प्रचार के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ और क्रमश: यह उच्छिनन होने लगा। फलत: वात्स्यायन ने इन सातों अधिकरण ग्रंर्थों का सारांश एकत्र प्रस्तुत किया और इस विशिष्ट प्रयास का परिणत फल वात्स्यायन कामसूत्र हुआ। इस प्रकार वर्तमान कामसूत्र की शताब्दियों के साहित्यिक सदुद्योगों कापर्यवसान समझना चाहिए, यद्यपि परंपरया घोषित कामशास्त्रीय ग्रंथों के इस अनंत प्रणयन के विस्तार को स्वीकार करना कठिन है।

कामशास्त्र के इतिहास को हम तीन कालविभागों में बाँट सकते हैंपूर्ववात्स्यायन काल, वात्स्यान काल तथा पश्चातद्वात्स्यायन काल। पूर्ववात्स्यायन काल के आचार्यों की रचनाओं का विशेष पता नहीं चलता। ब्राभ्रव्य के मत का निर्देश बड़े आदर के साथ वात्स्यायन ने अपने ग्रंथ में किया है। घोटकमुख और गोनर्दीय के मत कामशास्त्र और अर्थशास्त्र में उल्लिखित मिलते है। केवल दत्तक और कुचिमार के ग्रंथों के अस्तित्व का परिचय हमें भली भाँति उपलब्ध है। आचार्य दत्तक की विचित्र जीवनकथा कामसूत्र की जयमंगला टीका में है। उनका ग्रंथ 'वैशिक शास्त्र' सूत्रात्मक था जो ओंकार से आरंभ होनेवाला बतलाया जाता है (शूद्रक-पद्मप्राभृतक भाण, श्लोक २४)। कुचिमार रचित तंत्र के पूर्णत: उपलब्ध न होने पर भी हम उसके विषय से परिचत हैं। इस तंत्र में कामोपयोगी औषधों का वर्णन है जिसका संबंध बृंहण, लेपन, वश्य आदि क्रियाओं से है। 'कुचिरमारतंत्र' का हस्तलेख मद्रास से उपलब्ध हुआ है जिसे ग्रंथकार 'उपनिषद्' का नाम देता है और जिस कारण उसमें प्रतिपादित अधिकरण 'औपनिषदिक' नाम से प्रख्यात हुआ।

कामसूत्रवात्स्यायन का यह ग्रंथ सूत्रात्मक है। यह सात अधिकरणों, ३६ अध्यायों तथा ६४ प्रकरणों में विभक्त है। इसमें चित्रित भारतीय सभ्यता के ऊपर गुप्त युग की गहरी छाप है, उस युग का शिष्टसभ्य व्यक्ति 'नागरिक' के नाम से यहाँ दिया गया है कि कामसूत्र भारतीय समाजशास्त्र का एक मान्य ग्रंथरत्न बन गया है। ग्रंथ के प्रणयन का उद्देश्य है लोकयात्रा का निर्वाण, न कि राग की अभिवद्धि। इस तात्पर्य की सिद्धि के लिए वात्स्यायन ने उग्र समाधि तथा ब्रह्मचर्य का पालन कर इस ग्रंथ की रचना की

तदेतद् ब्रह्मचर्येण परेण च समाधिना।

विहितं लोकयावर्थं न रागार्थोंऽस्य संविधि:।।

(कामसूत्र, सप्तम अधिकरण, श्लोक ५७)

ग्रंथ सात अधिकरणों में विभक्त है। प्रथम अधिकरण (साधारण) में शास्त्र का समुद्देश तथा नागरिक की जीवनयात्रा का रोचक वर्णन है। द्वितीय अधिकरण (सांप्रयोगिक) रतिशास्त्र का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। पूरे ग्रंथ में यह सर्वाधिक महत्वशाली खंड है जिसके दस अध्यायों में रतिक्रीड़ा, आलिंगन, चुंबन आदि कामक्रियाओं का व्यापक और विस्तृत प्रतिपादन हे। तृतीय अधिकरण (कान्यासंप्रयुक्तक) में कन्या का वरण प्रधान विषय है जिससे संबद्ध विवाह का भी उपादेय वर्णन यहाँ किया गया है। चतुर्थ अधिकरण (भार्याधिकारिक) में भार्या का कर्तव्य, सपत्नी के साथ उसका व्यवहार तथा राजाओं के अंत:पुर के विशिष्ट व्यवहार क्रमश: वर्णित हैं। पंचम अधिकरण (पारदारिक) परदारा को वश में लाने का विशद वर्णन करता है जिसमें दूती के कार्यों का एक सर्वांगपूर्ण चित्र हमें यहाँ उपलब्ध होता है। षष्ठ अधिकतरण (वैशिक) में वेश्याओं, के आचरण, क्रियाकलाप, धनिकों को वश में करने के हथकंडे आदि वर्णित हैं। सप्तम अधिकरण (औपनिषदिक) का विषय वैद्यक शास्त्र से संबद्ध है। यहाँ उन औषधों का वर्णन है जिनका प्रयोग और सेवन करने से शरीर के दोनों वस्तुओं की, शोभा और शक्ति की, विशेष अभिवृद्धि होती है। इस उपायों के वैद्यक शास्त्र में 'बृष्ययोग' कहा गया है।

रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान हैचुस्त, गंभीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मंडित। दोनों की शैली समान ही है—सूत्रात्मक; रचना के काल में भले ही अंतर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है :

कामसूत्र के ऊपर तीन टीकाएँ प्रसिद्ध हैं (१) जयमंगला प्रणेता का नाम यथार्थत: यशोधर है जिन्होंने वीसलदेव (१२४३-६१) के राज्यकाल में इसका निर्माण किया। (२) कंदर्पचूडामणि बघेलवंशी राजा रामचंद्र के पुत्र वीरसिंहदेव रचित पद्यबद्ध टीका (रचनाकाल सं. १६३३; १५७७ ई.)। (३) कामसूत्रव्याख्याभास्कर नरसिंह नामक काशीस्थ विद्वान् द्वारा १७८८ ई. में निर्मित टीका। इनमें प्रथम दोनों प्रकाशित और प्रसिद्ध हैं, परंतु अंतिम टीका अभी तक अप्रकाशित है।

पश्चाद्वात्स्यायन कालमध्ययुग के लेखकों ने कामशास्त्र के विषय में अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। इनका मूल आश्रय वात्स्यायन का ही ग्रंथरत्न है और रतिक्रीड़ा के विषय में नवीन तथ्य विशेष रूप से निविष्ट किए गए हैं। ऐसे ग्रंथकारों में कतिपय की रचनाएँ ख्यातिप्राप्त हैं(क) पदश्री'नागरसर्वस्व'। ग्रंथकार बौद्ध है जो दामोदर गुप्त के 'कुट्टनीमत' का निर्देश करता है और 'शाङ्र्गधरपद्धति' में स्वयंनिर्दिष्ट है। इसलिए इसका समय दशम शती का अंत मानना चाहिए। (ख) कल्याणमल्लअंनंगरंग। अवध के किसी मुसलमान नवाब को प्रसन्न करने के लिए यह लिखा गया है। (ग) कोक्कोकरतिरहस्य। पारिभद्र के पौत्र तथा तेजोक के पुत्र कोक्कोक की यह रचना कामसूत्र का सुंदर सुबोध सारांश प्रस्तुत करती है। राणा कुंभकर्ण द्वारा गीतगोविंद की टीका में उधृत होने के कारण इसका समय १३वीं शती से पहले नहीं हो सकता। इसी विद्वान् का नाम सर्वसाधारण में भ्रष्ट होकर 'कोका पंडित' पड़ गया है तथा उनकी रचना 'कोकशास्त्र' के नाम प्रख्यात हो गई है। (घ) कविशेखर ज्योतिरीश्वरपंचसायक। अनेक प्राचीन कामशास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर निर्मित यह ग्रंथ पर्याप्त लोकप्रिय रहा है।

इन बहुश: प्रकाशित ग्रंथों के अतिरिक्त कामशास्त्र की अनेक अप्रकाशित रचनाएँ उपलब्ध हैंहरिहर का रतिरहस्य (या शृंगारदीपिका); विजयनगर के राजा प्रौढदेवराय (१४२२-४८ ई.) की रतिरत्नदीपिका; तंजोर के राजा शाहजी (१६६४-१७१०) की शृंगारमंजरी; अनंत की कामसुधा, मीननाथ की स्मरदीपिका, चित्रधर का शृंगारसार, आदि। इन ग्रंथों की रचना से इस शास्त्र की व्यापकता और लोकप्रियता का पता चलता है।

सं.ग्रं.डा.आर. श्मिट : बाइत्रेगे सुर इन्दिशे इरोतिक (जर्मन ग्रंथ; लाइपज़िग, १९११)।