कामरान (मीर्ज़ा) बाबर का पुत्र, उसके ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ से छोटा था। बाबर ने उसे अल्पावस्था में ही क़ंधार का राज्य प्रधान कर दिया था। वहाँ उसने बड़ी योग्यता से शासन किया। बाहर ने अपने जीवनकाल में ही यह आदेश दिया था कि हुमायूँ तथा कामरान में राज्य का इस प्रकार विभाजन हो कि पाँच भाग कामरान को मिले तो छह भाग हूमायूँ। इसे अतिरिक्त बाबर की यह भी इच्छा थी कि काबुल ख़ालसे में सम्मिलित रहे। बाबर की मृत्यु के बाद कामरान मिर्ज़ा ने अपने राज्य को विस्तृत करने का निश्चय कर लिया। उसने अपने छोटे भाई मीर्ज़ा अस्करी को कंधार सौंपकर लाहौर की ओर प्रस्थान किया और उसे युक्ति द्वारा जीत लिया। हुमायूँ ने भी संघर्ष उचित न देखकर उसे काबुल, क़ंधार तथा पंजाब दे दिए। जब हुमायूँ शेरशाह से युद्ध के लिए बंगाल पहुँचा और उसके सबसे छोटे भाई हिंदाल ने विद्रोह करके देहली पर आक्रमण कर दिया तब कामरान भी लाहौर से देहली, फिर आगरे जा पहुँचा। २६ जून, १५३९ ई. को जब हुमायूँ शेरशाह से पराजित होकर आगरा पहुँचा तो कामरान तथा हुमायूँ की भेंट हुई। शेरशाह से युद्ध में मुग़्लाों की ओर से नेतृत्व के लिए कामरान ने पहले तो असफल प्रयत्न किया फिर वह हुमायूँ का साथ छोड़कर सेना सहित लाहौर की ओर चल दिया। १७ मई, १५४० ई. को हुमायूँ कन्नौज के युद्ध में पराजित होकर आगरा होता हुआ काबुल की ओर बढ़ा किंतु अभी चिनाव नदी के तट पर ही था कि कामरान तथा अस्करी काबुल की ओर चल दिए और उन्होंने काबुल पर अधिकारि जमा लिया। कामरान ने ग़्ज़ानी आदि अस्करी मीर्ज़ा को दे दिए। तदुपरांत उसने बदख़्शाँ पर आक्रमण कर मीर्ज़ा सुलेमान को अधीनता स्वीकार करने पर विवश कर दिया। हिंदाल को भी, जिसने क़ंधार पर अधिकार कर लिया था, पराजित करके वह अपने साथ ले आया और अस्करी को क़ंधार प्रदान किया। तदुपरांत मीर्ज़ा सुलेमान के विरुद्ध बदख़्शाँ पर पुन: आक्रमण कर मीर्ज़ा सुलेमान तथा उसके पुत्र मीर्ज़ा इब्राहीम को बंदी बना लिया।
१५४५ ई. में हुमायूँ ईरान के शाह तहमास्प सफवी से सहायता लेकर क़ंधार पहुँचा और उसे विजित कर लिया। १७ नवंबर, १५४५ ई. को काबुल भी जीत लिया। कामरान ग़्ज़ानी होता थट्टा पहुँचा। अगले साल फिर ग़्ज़ानी और काबुल पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ तुरंत काबुल पहुँचा और कई मास के घोर संघर्ष के उपरांत उसने किला विजय कर लिया। कामरान जान छोड़कर लड़ा किंतु उसे सफलता नहीं मिली। भाग्य के अनेक उलटफेर के बाद अंत में उसने हुमायूँ के प्रति १७ अगस्त, १५४८ ई. को आत्समर्पण कर दिया। कामरान क्षमायाचना करके हज की अनुमति लेकर बदख़्शाँ रवाना हुआ किंतु कुछ दूर जाकर लौट आया और २२ अगस्त, १५४८ ई. को हुमायूँ की सेवा में उपस्थित हुआ। हुमायूँ ने उसे क्षमा कर कोलाब की जागीर प्रदान की पर कामरान को इससे भी संतोष न हुआ और उसने फिर विद्रोह कर काबुल पर अधिकार जमा लिया। किंतु हुमायूँ ने पुन: सेना संगठित करके कामरान से काबुल छीन लिया। हुमायूँ ने उसे बार-बार क्षमा किया, अंत में भी क्षमा करना चाहा, किंतु अमीरों के अत्यधिक विरोध के कारण उसकी आँखों में सलाई फिरवा कर मक्का चले जाने की अनुमति दे दी (दिसंबर, १५५३ ई.)। वह अपनी पत्नी के साथ मक्का पहुँचा और ५ अक्टूबर, १५५७ ई. को मर गया। कामरान बड़ा अच्छा कवि, वीर, दानी, योग्य शासक एवं कट्टर सुन्नी था।
सं.ग्रं.—(फारसी) बाबरनामा; गुलबदन बेगम : हुमायूँनामा; जौहर : तज़किरतुल वाक़ेआत; बायज़ीद : तज़किरए हुमायूँ व अकबर; (हिंदी)—सैं.अ.अ.रिज़वी : मुग़्ला कालीन भारत—हुमायूँ (अलीगढ़, १९६१, १९६२ ई.)। (सै.अ.अ.रि.)