कामदेव भारतीय गाथाशास्त्र के अनुसार कामदेव एक देवता की संज्ञा है। इसकी पत्नी का नाम रति है। कहीं-कहीं पुराणों में रति और प्राति दोनों कामदेव की स्त्रियाँ कही गई हैं। मनुष्य की जो रागात्मक वृत्ति है और जो सब प्राणियों को अभिभूत करती है, उसे ही मूल रूप से कामदेव माना गया है। देवों में परिगणित होने के कारण कामदेव इंद्र की सभा का एक सदस्य है। इंद्र जब किसी का तप भंग करना चाहता है तब काम को प्रेरित करता है। उर्वशी, मेनका, रंभा आदि अप्सराएँ काम की विजय के साधन हैं। इनके द्वारा वह समाधि में विघ्न उत्पन्न करता है। ये अप्सराएँ स्त्रीसौंदर्य का प्रतीक हैं। वसंतऋतु और मलयानिल कामदेव के मित्र कहे गए हैं। काम को पुष्पधन्वा और पंचबाण भी कहा गया है। रक्तकमल, अशोक, आम्रमंजरी, नवमल्लिका और नीलोत्पल ये पाँच पुष्प कामदेव के पंचबाण कहे जाते हैं। अथवा सम्मोहन, उन्मादन, शोषण, तापन और स्तंभन ये भी कामदेव के पंचशर हैं।
कामदेव की एक संज्ञा अनंग है। कथा यों है कि कामदेव का शरीर शिव की कोपाग्नि में भस्म हो गया था और तब से वह एक वृत्ति या भाव के रूप में जीवित रहा, शरीर के रूप में नहीं। इसीलिए वह मनोज या मनसिज कहलाता है। कालिदास ने 'कुमारसंभव' काव्य में शिव द्वारा मदनदहन का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है। वस्तुत: इस कथा के मूल में काम के विषय में जो भारतीय दर्शन का अभिमत था, उसी की व्याख्या की गई है। यहाँ के तत्वज्ञ काम को सृष्टि का आवश्यक अंग मानते हैं और उसे देवता का सम्मानित पद दिया गया है। देवता अमर और पवित्र होते हैं; किंतु हम लोक में यह भी देखते हैं कि कामवृत्ति मानव में अनेक कुत्सित और विकृत रूप धारण कर लेती हैं। यह मानव हित का विरोधी है और इसलिए इष्ट नहीं। इस अधम वृत्ति को पवित्र करने या ऊर्ध्वमुखी करने के लिए तपश्चर्या आवश्यक उपाय है। पार्वती की तपश्चर्या और शिव की समाधि इसी ओर संकेत करती हैं। पार्वती ने शिव को पति रूप में पाना चाहा। उन्हें रूपसौंदर्य का गर्व था और सोचती थी कि हावभाव से शिव को आकृष्ट कर लेंगी। वे हिमालय के देवदारु वन में, जहाँ शिव अखंड तप में लीन थे, गईं और उनकी सहायता के लिए देवों के कामदेव को भी भेजा। उपयुक्त अवसर पर काम ने बाण चलाकर शिव की समाधि को भंग कर दिया। शिव ने अपने नेत्र खोले। पार्वती का रूपप्रदर्शन सामने था ही, पर शिव को आकृष्ट न कर सका। शिव ने सोचा, समाधिभंग का कारण अंत:करण में नहीं, कहीं बाहर ही होना चाहिए। सामने वृक्ष पर उन्हें कामदेव दिखाई पड़ा। तब उनके तृतीय नेत्र से निकली हुई ज्वाला ने उसे भस्म कर दिया। अपने नेत्रों से इस प्रकार रूप को विफल होते देखकर पार्वती का गर्व खर्व हो गया और उन्होंने भी तपस्या द्वारा शिव का पाने का मार्ग अपनाया। इसमें उन्हें सफलता मिली। इस कथा का तात्पर्य आध्यात्मिक और वह यह कि काम की अधोमुखी वृत्ति को तपस्या और संयम द्वारा ऊर्ध्वमुखी बनाना आवश्यक है। शिव के मदनदहन से मिलता हुआ अभिप्राय बुद्ध के मारघर्षण की कथा में है। मार को पराजित करके ही बुद्ध संबोधि की सिद्धि तक पहुँच सके।
प्राचीन भारतीय जीवन में कामदेव की मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं और कामायतन या कामदेव के मंदिरों में उनकी पूजा होती थी (द्र. चित्र कामदेव)। इस प्रकार का एक मंदिर उज्जयिनी में था जिसका उल्लेख 'मृच्छकटिक' में आया है। बाण ने लिखा है कि राज्यश्री के कौतुकगृह के द्वार पर एक पार्श्व में कामदेव और दूसरे में रति और प्रीति के चित्र अंकित किए गए थे। मथुरा से प्राप्त एक मिट्टी के खिलौने पर कामदेव की मूर्ति उभारी गई है जो हाथ में पाँच बाण लिए खड़ा है। उसके पैरों के नीचे एक लेटे हुए पुरुष की मूर्ति है जिसकी पहचान शूर्पक नामक कछुवे से की गई है। लोककथा है कि राजकुमारी कुमुद्वती शूर्पक पर अनुरक्त हो गई पर शूर्पक ने कोई आसक्ति प्रकट न की। तब राजकुमारी ने कामदेव की पूजा की और वह शूर्पक को अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल हुई। पुराणों की कथा के अनुसार कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कामदेव के अवतार थे पर इस रूप में उनकी मूर्ति या चित्र प्राप्त नहीं होता। कामदेव की पूजा विशेष उत्सव वसंतोत्सव कहलाता था और उस समय स्त्री और पुरुष विशेष समारोह से उनके मंदिर में जाकर उनकी पूजा करते थे। (वा.श.अ.)