कान्यकुब्ज उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में २७स् ३व् उ.अ. तथा ७९स् ५९व् पू.दे. पर स्थित नगर। इसे आजकल 'कन्नौज' कहते हैं। प्राचीन काल में 'कान्यकुब्ज' नगर के अतिरिक्त प्रदेश का भी द्योतक था। प्राचीन काल में 'कान्यकुब्ज' नगर के अतिरिक्त प्रदेश का भी द्योतक था। चीनी यात्री हुएनत्सांग ने इस जनपद का विस्तार ४,००० ली (लगभग ६७० मील) लिखा है। प्रतीहार अभिलेखों में कान्यकुब्ज प्रदेश की राजधानी का नाम 'महोदय' मिलता है। राजतरंगिणी में कान्यकुब्ज का विस्तार यमुनातट के कालिंदी नदी तक बताया गया है। पहले जैसे भारत पर आक्रमण करनेवाले राजा बिना मगध की राजधानी पाटिलिपुत्र पर अधिकार किए अपने को अकृतकार्य मानते थे, वैसे ही मध्यकाल में बिना कन्नौज पर अधिकार किए विदेशी विजेता अपने को असफल मानते थे। कुसुमपुर की 'श्री' अब 'महोदयश्री' कहलाने लगी थी, जिसे स्वयात्त करने की महत्वाकांक्षा जैसी विदेशियों में भी वैसी ही देश के राजाओं में भी प्रबल हो गई थी।

वाल्मीकीय रामायण में चंद्रवंशीय राजा कुशनाभ द्वारा महोदय नगर की स्थापना की कथा है। उसके अनुसार जब राजा की एक सौ कन्याएँ वायुदेव के शाप से कुबड़ी हो गईं तब इस नगर का नाम 'कान्यकुब्ज' हुआ। कान्यकुब्ज तथा महोदय के अतिरिक्त नगर के नाम गाधिपुर, कुशस्थल, कुशिक आदि मिलते हैं। प्राचीन साहित्य में कान्यकुब्ज के अनेक शासकों के नाम दिए हैं। जह्नु नामक राजा के नाम पर गंगा की एक संज्ञा 'जाह्नवी' हुई। कुशनाभ के पौत्र विश्वामित्र की वसिष्ठ मुनि के साथ बहुत समय तक प्रतिस्पर्धा चली।

बुद्ध के समय से लेकर गुप्त काल के अंत तक स्वतंत्र जनपद के रूप में कान्यकुब्ज का उल्लेख नहीं मिलता है। उसके बाद कान्यकुब्ज उत्तर भारत के मौखरी राज्य का केंद्र बना, जिसका संस्थापक हरिवर्मा था। मौखरियों के सबसे प्रसिद्ध शासक ईशनवर्मा ने 'महाराजाधिराज' उपाधि ग्रहण की। उनकी बढ़ती शक्ति के कारण मालवा के परवर्ती गुप्त शासक तथा बंगाल के गौड़ मौखरियों के विरोधी हो गए। थानेश्वर के प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री मौखरी राजा ग्रहवर्मा को ब्याही गई। मालवा के शासक देवगुप्त ने ग्रहवर्मा को मारकर राज्यश्री को कैद कर लिया। अंत में कन्नौज के मंत्रियों ने राजनीतिक कारणों से अपना राज्य हर्षवर्धन को सौंप दिया।

हर्ष के समय कान्यकुब्ज उन्नति के शिखर पर आरूढ़ हुआ और एक बड़े साम्राज्य की राजधानी बना। उस समय यहाँ आए हुए चीनी यात्री हुएनत्सांग ने नगर की समृद्धि की प्रशंसा की। हर्ष के बाद यशोवर्मा कान्यकुब्ज का शासक हुआ। उसके बाद क्रमश: आयुध, प्रतीहार तथा गाहड़वाल राजवंशों का यहाँ अधिकार रहा। प्रतीहार वंश में नागभट, मिहिरभोज, महेंद्रपाल आदि कई बड़े शासक हुए। गाहड़वालवंश में गोविंदचंद्र तथा उसके पौत्र जयचंद्र के समय कन्नौज की अच्छी उन्नति हुई। जयचंद्र को अपने पराक्रमी प्रतिद्वंद्वी चाहमाननरेश पृथ्वीराज तृतीय से युद्ध करना पड़ा। ११९३ ई. में मोहम्मद गोरी ने जयचंद्र को परास्त कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया।

छठी से १२ शताब्दी के अंत तक कान्यकुब्ज में धर्म, साहित्य और ललितकला का बड़ा विकास हुआ। समय-समय पर यहाँ अनेक देवों के मंदिरों का निर्माण हुआ। बौद्ध साहित्य में भगवान् बुद्ध के कण्णकुज्ज (कान्यकुब्ज का पालिरूप) आने की चर्चा मिलती है। हुएनत्सांग ने यहाँ बौद्ध विहार होने पर तथा उनमें दस हजार भिक्षुओं के निवास का उल्लेख किया है। हर्षवर्धन उच्च कोटि का विद्वान् भी था। उसके राजकवियों में 'हर्षचरित' तथा 'कादंबरी' के प्रसिद्ध लेखक बाणभट्ट का नाम अग्रगण्य है। यशोवर्मा के राजकवि वाक्पति तथा भवभूति थे। प्रतीहार शासनकाल में राजशेखर तथा गाहड़वालकाल में लक्ष्मीधर एवं श्रीहर्ष संस्कृत के उद्भट लेखक और कवि हुए। प्रतीहारों के समय कान्यकुब्ज स्थापत्य तथा मूर्तिकला के लिए प्रख्यात था। कान्यकुब्ज नामक ब्राह्मणों की उत्पत्ति इसी स्थान से मानी जाती है, जहाँ से उनका विकास बंगाल तक हुआ।

(कृ.द.वा.)