काणे, पांडुरंग वामन (१८८०-१९७२ ई.) संस्कृत के अंतरर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त उद्भट विद्वान् एवं उच्च कोटि के प्राच्यविद्याविशारद। महाराष्ट्र के रत्नगिरि जिले के दापोली नामक गाँव में ७ मई, १८८० ई. को आपका जन्म हुआ। इसी जिले में लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, न्यायमूर्ति रानाडे तथा आचार्य विनोबा भावे प्रभृति महापुरुष पैदा हो चुके हैं। श्री काणे ने अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान संस्कृत में नैपुण्य एवं विशेषता के लिए सात स्वर्णपदक प्राप्त किए और संस्कृत में एम.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की। पश्चात् बंबई विश्वविद्यालय से एल.एल.एम. की उपाधि प्राप्त की। इसी विश्वविद्यालय ने आगे चलकर आपको साहित्य में सम्मानित डाक्टर (डी. लिट्.) की उपाधि दी। भारत सरकार की ओर से आपको महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित किया गया। उत्तररामचरित (१९१३ ई.), कादंबरी (२ भाग, १९११ तथा १९१८), हर्षचरित (२ भाग, १९१८ तथा १९२१), हिंदुओं के रीतिरिवाज तथा आधुनिक विधि (३ भाग, १९४४), संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास (१९५१) तथा धर्मशास्त्र का इतिहास (४ भाग, १९३०-१९५३ ई.) इत्यादि आपकी अंग्रेजी में लिखित कृतियाँ हैं।
डा. काणे अपने लंबे जीवनकाल में समय-समय पर उच्च न्यायालय, बंबई में अभिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली में वरिष्ठ अधिवक्ता, एलफ़िंस्टन कालेज, बंबई में संस्कृत विभाग के प्राचार्य, बंबई विश्वविद्यालय के उपकुलपति, रायल एशियाटिक सोसाइटी (बंबई शाखा) के फ़ेलो तथा उपाध्यक्ष, लंदन स्कूल ऑव ओरयिंटल ऐंड अफ्ऱीकन स्टडीज़ के फ़ेलो, रार्ष्टीय शोध प्राध्यापक तथा सन् १९५३ से १९४९ तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। पेरिस, इस्तंबूल तथा कैंब्रिज में आयोजित प्राच्यविज्ञ सम्मेलनों में आपने भारत का प्रतिनिधित्व किया। भंडारकर ओरयंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना से भी आप काफी समय तक संबद्ध रहे।
साहित्य अकादमी ने सन् १९५६ ई. में 'धर्मशास्त्र का इतिहास' पर पाँच हजार रुपए का पुरस्कार प्रदान कर आपके सम्मानित किया और १९६३ ई. में भारत सरकार ने आपको 'भारतरत्न' उपाधि से अलंकृत किया। १८ अप्रैल, १९७२ को ९२ वर्ष की आयु में डा. काणे का देहांत हो गया। (कै.चं.श.)