कांसुल प्रजातंत्रयुगीन रोम के उच्चवर्गीय न्यायाधीशों की पदवी। प्राचीन राजतंत्र के पतन के साथ ही इस पद का उत्कर्ष हुआ। रोमन राजनीति एवं समाज में न्याय की जिस आदर्श भावना ने जन्म लिया था उसी ने इस राजकीय पद के अधिकार की रक्षा की। जिन दो पदाधिकारियों ने राजा के स्थान को ग्रहण किया उनमें से एक प्रधान तथा दूसरा न्यायाधीश बना, परंतु जिस सहकारिता की भावना ने राजतंत्र का अंत किया था, उसने एक तीसरे पद को जन्म दिया–कांसुल यानी सहाधिकारी अथवा सहभागी के पद को। सहकारिता के आधार पर स्थापित रोमन प्रजातंत्र का यह प्रथम स्वरूप था। प्रत्येक पद एवं वर्ग में दो कर्मचारियों की नियुक्ति होती थी, प्रत्येक पदाधिकारी उच्च शासन के समस्त अधिकारों का उपभोग तथा उसके अनुसार शासन कर सकता था, परंतु उसके सहयोगी की सम्मति के अभाव में उसकी नीति एवं आदेश व्यर्थ सिद्ध हो सकते थे। इसके अतिरिक्त इस पद का जीवन भी अवधि की परिधि से बाँधा गया था। पदकाल की समाप्ति पर ये दोनों ही पदाधिकारी, अन्य दो पदाधिकारियों को, जो उनके स्थान पर नियुक्ति होते थे, अपने अधिकार सौंप देने के हेतु बाध्य थे। चूँकि इनकी नियुक्ति का आधार जनता द्वारा उनका चुना जाना था, अत: ये जनता की सम्मति के प्रति कृतज्ञ होते थे। इस युग में कोमीशिया नामक एक संघ था जो इन पदाधिकारियों का चुनाव करता था। कांसुल का पद आरंभ में केवल उच्च वर्ग के महानुभावों के लिए सुरक्षित था। फिर उच्च वर्ग एवं साधारण जनता में इस पद के लिए संघर्ष हुआ, परिणामत: ३६७ ई.पू. में एक नियम बना जिसके अनुसार दो में से एक कांसुल साधारण वर्ग से चुना जाने लगा।
कांसुल के अधिकार, जैसे-जैसे नियम बनते गए वैसे ही वैसे सीमित होते गए, उदाहरणार्थ उसके निर्णय पर अपील करने का नियम, प्रधान के अधिकारों की वृद्धि तथा नियमों और कनूनों का प्रकाशन। साधारण जनता के अधिकारों की रक्षा के हेतु उनके प्रतिनिधियों की नियुक्ति तथा नए न्यायाधीशों की नियुक्त द्वारा भी कांसुल के अधिकारों पर आघात पहुँचा, क्योंकि कांसुल के कुछ उत्तरदायित्व उन्हें सौंप दिए गए। इन सीमाओं एवं बंधनों के परिणामस्वरूप कांसुल का कार्य बहुत थोड़ा सा रह गया। अत: यह स्वाभाविक था कि उसका कार्य साधारणतया शासन के कार्यों के निरीक्षण की ओर उन्मुख हो जाता। और ये कांसुल वास्तव में राज्य के प्रमुख पदाधिकारी हो गए। उन्होंने सिनेट की स्वीकृति से, जिसके वे प्रमुख कर्मचारी थे, नियंत्रण रखा। इस सभा के ये सबसे नियमित सदस्य थे, उसके अंतर्गत हुए वादविवाद को ये घोषणा का रूप देते, तथा सिनेट द्वारा स्वीकृत नियमों को जनता के सम्मुख विदेशी राजदूतों को प्रस्तुत करते। उन्हें दीवानी तथा फौजदारी के न्यायसंबंधी अधिकार भी प्राप्त थे, वैसे ही, धनसंबंधी मामले भी, जैसे सरकार और प्रजा के बीच, तथा इटली नगर राज्यों के मध्य। फौजदारी के तीन प्रकार के मामलों में उन्हें न्याय का अधिकार था। साधारण अपराधों के विरुद्ध नियमों को कार्यान्वित करना, तथा जब सिनेट या जनता किसी आयोग का निर्माण करती थी तब आयोग के सदस्य कांसूल होते थे। इसके अतिरिक्त अंतरराष्ट्रीय नियम के अनुसार किसी अपराध की जाँच भी कांसूल ही करता था। ऐसे विषय में यह संभव था कि उसकी सहायता के लिए हेराल्ड्स की एक समिति भी रहे।
कांसूल रोम में तथा रोम से बाहर स्थित रोमन शासन के भी प्रधान माने जाते थे। अत: यह नितांत आवश्यक था कि प्रशासन संबंधी विभाग निश्चित कर दिए जाते। इस विभागीय वितरण के तरीके भिन्न-भिन्न थे; जैसे विदेशी युद्ध दोनों कांसुलों का उत्तरदायित्व था। ऐसी स्थिति में स्थायी सेना को दोनों में बराबर बाँट दिया जाता था। और जब दोनों सेनाओं को एक दूसरे की सहायता करनी पड़ती तब ये दोनों कांसुल एक-एक दिन की बारी से सेना अध्यक्षता करते थे। कैने (कान) के युद्ध में तथा तीसरी और दूसरी शताब्दी ई.पू. में की गई विजयों में यही पद्धति अपनाई गई। इटली उस समय कांसुल का प्रांत माना जाता था। परंतु जब इटली में युद्ध समाप्ति के पश्चात् शांति की स्थापना हुई तब दोनों कांसुलों ने अपने राजकीय तथा सैनिक क्षेत्र बाँट लिए। इन विभागों को वे या तो समझौते द्वारा निश्चित करते या गोटी डालकर। कुछ काल पश्चात् कांसुल के कर्तव्य निश्चित करने का अधिकार सिनेट के हाथों में चला गया। परंतु राजकीय पदाधिकारी, जिनके ऊपर शासन का भार था, साम्राज्य की सैनिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असमर्थ रहे। अत: सेना की अध्यक्षता को स्थायी, करने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। अपने शासन की अवधि समाप्त करने के बाद ये शासक एक वर्ष के लिए देश के बाहर प्रांतीय शासन सँभालने के लिए जाने लगे। कभी-कभी तो ये नियुक्तियाँ कुछ अधिक काल के लिए नियमपूर्वक की जाती थीं। ५२ ई.पू. में बने एक नियम के अनुसार देश के भीतर एवं विदेशी प्रांतों के शासन की अवधि में पाँच वर्ष का अंतर आवश्यक कर दिया गया। प्रारंभ में राजतंत्रीय शासन के अतंर्गत भी प्रजातंत्र के सिद्धांतों को ही आधार माना गया था। अत: कांसुल के पद की प्रतिष्ठा पूर्ववत् बनी रही तथा एक अध्यक्ष की मृत्यु और दूसरे के चुनाव के मध्य काल में कांसुल शासन के प्रमुख का पद भोगता रहा। सिनेट के अध्यक्षों के रूप में सिनेट के न्याय संबंधी अधिकारों का भी उन्होंने उपभोग किया। यह अधिकार उनकी स्थिति की श्रेष्ठता का द्योतक है और संभव है कि सिनेट में की गई अपील भी कांसुल को ही सौंप दी जाती रही हो। धन एवं व्यक्ति की संरक्षणता के क्षेत्र में उन्होंने राज्य के अध्यक्ष का भी प्रतिनिधान किया। कांसुल का पद विशेषतया सेना की अध्यक्षता की आधारशिला था। इनका पदकाल घटता गया, यथा आरंभिक अधिनायकतंत्र काल में कांसुल की अवधि छह मास थी, उसके पश्चात् चार मास एवं दो मास हो गई। जनवरी में नियुक्ति कांसुल 'आर्दिनरी' कहलाते थे तथा अन्य 'सफ़ेक्ती'। कोंस्तांतीन के शासनकाल तक यह अंतर बना रहा। आर्दिनरी सम्राट् के द्वारा मनोनीत होते थे, सफ़ेक्ती सिनेट के द्वारा; परंतु सम्राट् इस नियुक्ति पर भी अपनी स्वीकृति देता था। यह पद अब भी साम्राज्य द्वारा प्रदत्त महत्तम सम्मान था। परंतु जैसे-जैसे इस पद का बाह्य सम्मान बढ़ता गया, वास्तविक अधिकार घटता गया। कांसुल द्वारा पदग्रहण एक जुलूस से प्रारंभ होता था। उसमें जनता द्वारा मनोरंजनार्थ विभिन्न खेलों का आयोजन होता था, तथा भेंट और उपहार बाँटे जाते थे। परंतु सिनेट, जिसकी वे अध्यक्षता करते थे, अब केवल रोम की नगरपालिका सभा के रूप में रह गया था। उनके द्वारा किए हुए न्याय का मूल्य घट गया था। अंतिम कांसुल ई. ५४१ का बासीलियस है, परंतु सम्राट् इस पदवी को कुछ काल तक भोगते रहे। (प.उ.)