कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय इस महान् भारतीय संस्था (इंडियन नैशनल कांग्रेस) का जन्म सन् १८८५ में हुआ। सन् १९७४ तक इसके ७२ अधिवेशन हो चुके हैं। इसको स्थापित करनेवालों ने उस समय कदाचित् यह कल्पना भी न की होगी कि वे जिस छोटे से बीज को रोप रहे हैं, वह समय पाकर इतना विशाल वृक्ष हो जाएगा जिसकी छाया में इस महादेश के नए इतिहास की रचना का कार्य पूरा होगा। पिछले ९० वर्षों का कांग्रेस का इतिहास वास्तव में समूचे देश का इतिहास है। इस युग में जिस प्रकार यह देश जागा और पतन के गढ़े से निकलने का उसने प्रयत्न किया, उसका प्रतिबिंब ही कांग्रेस का इतिहास है। जिस अनुपात में इस राष्ट्रीय संस्था ने प्रगति की है उसी अनुपात में देश भी उन्नति करता गया है। दोनों का संबंध कुछ इस प्रकार अन्योन्याश्रित रहता है कि जिस सीमा तक भारत जाग्रत हुआ है उस सीमा तक कांग्रेस भी जागरूक रही है और जब जब कांग्रेस कुंठित हुई है तब-तब हमारा देश भी कुंठाग्रस्त होता गया है, झिझकता, रुकता गया है। कांग्रेस को अखिल भारतीय, शुद्ध राष्ट्रीय और खालिस राजनीतिक संस्था बनाने की कल्पना पहले पहल किसके मन में उठी, यह कहना तो कठिन है परंतु तत्कालीन परिस्थितियों से स्पष्ट है कि यह दृष्टि अथवा प्रेरणा वस्तुत: एकांतिक अथवा वैयक्तिक न थी, सामूहिक थीं; कारण कि जब कांग्रेस स्थापित हुई तब सारे देश में, उसके विभिन्न भागों के अनेक मूर्धन्य दूरदर्शी देशभक्तों के मन में यह भावना अंकुरित हो चुकी थी।

भारत के कल्याण और पुनरुद्धार के लिए यह आवश्यक है कि एक सर्वभारतीय राजनीतिक संस्था की जाए, इस प्रकार की भावना जिन लोगों में उत्पन्न हुई थी उनमें केवल भारतीय ही नहीं थे। देश की गतिविधि को पहचाननेवाले ऐसे कुछ अंग्रेज भी थे जिन्हें यह आभास मिल रहा था कि सारे देश में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध जो असंतोष फैला हुआ है, उसे यदि बाहर निकलने का कोई मौका न दिया गया और उसे बाहर आने देने का कोई उपाय न निकाला गया तो यह व्यापक असंतोष किसी दिन भीषण ज्वाला के रूप में धधक उठेगा। वे समझते थे कि इससे अंग्रेजी राज्य भी भयानक खतरे में पड़ जाएगा। ऐसे ही विदेशी दूरदर्शियों में श्री.ए.सी.ह्यूम भी एक सज्जन थे, जो इंडियन सिविल सर्विस के सदस्य थे। श्री ह्यूम ने अवकाश ग्रहण करने के बाद इस दिशा में अपना प्रयत्न आरंभ किया और भारत में फैले असंतोष को प्रकट रूप से मार्गप्रदान करने के उद्देश्य से, सारे देश की राजनीतिक संस्था स्थापित करने की योजना बनाई। कहा जाता है, श्री ह्यूम ने सिपाही विद्रोह का भी जमाना देखा था। उनके मन में यह आशंका पैदा हुई थी कि यदि कोई उपाय न किया गया और जनता की अशांति विद्रोह का रूप धारण करने से न रोकी गई, तो सिपाही विद्रोह की पुनरावृत्ति हो जा सकती है।

कदाचित् इस प्रयास में श्री ह्यूम को तत्कालीन वायसराय लार्ड डफ़रिन की सहमति और आशीर्वाद प्राप्त था। यह भी कहा जाता है कि श्री ह्यूम ने इंग्लैंड जाकर वहाँ कुछ लोगों से , विशेषत: भारत से पेंशन पानेवाले ऐंग्लो इंडियनों से भी राय बात की और सबकी सलाह और सहमति के बाद इस योजना को कार्यन्वित करने का सूत्रपात किया। सन् १८८४ में लार्ड डफ़रिन से मिलने के बाद इन दोनों ने यह निश्चय किया कि अगले वर्ष, सन् १८८५ में, सारे देश का एक संमेलन बुलाया जाए। यद्यपि श्री ह्यूम को कांग्रेस का जनक कहा जा सकता है, तथापि इसका अर्थ यह नहीं है कि तत्कालीन भारत के नेता, सारे देश की राजनीतिक संस्था स्थापित करने के विचार से प्रभावित नहीं थे।

सन् १८५७ में भारतीय स्वतंत्रता के लिए सिपाही विद्रोह के रूप में जो संघर्ष हुआ वह सफल न हो सका। उस समय देश में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज्य स्थापित था और अंग्रेजी साम्राज्यवाद विकराल रूप धारण कर चुका था। व्यापारी कंपनी के रूप में आई हुई अंग्रेजों की शक्ति ने बिखरते हुए भारतीय राष्ट्र को अपनी कुटिल नीति की चोटों से ध्वस्त करने में सफलता पाई थी। डलहौज़ी की नीति ने बड़े-बड़े जागीरदारों, राजाओं और नवाबों की हैसियत और सम्मान को लूट लिया था। अंग्रेजों की अर्थनीति लूट खसोट की थी। फलत: भारत के सभी वर्ग और समुदाय निर्धन हो रहे थे। इन्हीं परिस्थितियों की प्रतिक्रिया १८५७ के विद्रोह में प्रकट हुई।

अंग्रेजों ने इस विद्रोह को बलपूर्वक दबा दिया और अपने भयंकर दमन से भारत की बची खुची शक्ति को बुरी तरह चूर कर दिया। इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की अमलदारी खतम हुई और भारत का शासन ब्रिटिश पार्ल्यामेंट के अधीन हुआ। अंग्रेजों ने शायद यह कल्पना की थी कि उनके दमन की सफलता भारत को शताब्दियों के लिए कुचल देने में समर्थ हुई है। परंतु उनकी यह धारणा गलत निकली। १८५७ के बाद, यद्यपि भारत मूर्छित पड़ा रहा, तथापि उसकी मूर्छा जल्दी ही टूटी और उसमें सक्रियता और जागृति के लक्षण दिखाई देने लगे।

१८५७ से १८८५ के बीच की राजनीति में मुख्य रूप से दो विचारधाराएँ उल्लेखनीय हैं। एक विचार उन लोगों का था जो हिंसात्मक संगठन पर अंग्रेजी राज को पूर्णरूपेण समाप्त कर देने की बात सोच रहे थे। दूसरा उनका जो यह मानते थे कि अंग्रेजी राज का अंत तो न होना चाहिए पर वैध उपायों से ब्रिटिश शासन के अधीन देश को स्वशासन का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। यह सही है कि लार्ड डफ़रिन से पूर्व के भारत के वायसराय लार्ड रिपन ने अपनी नीति से हिंसात्मक संगठनों को रोक दिया था तथापि असंतोष की आग भीतर ही भीतर सुलग अवश्य रही थी।

दूसरे विचार के लोगों में अधिकतर अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों का प्रभाव था जो अंग्रेजी शासन के अनेक लाभों को स्वीकार करते हुए और अपने को राजभक्त मानते हुए भी वैध उपायों द्वारा देश में अपने देश के शासन को प्राप्त करने की इच्छा रखते थे। उन्हें अंग्रेजों की नेकनीयती पर भी विश्वास था और वे यह भी समझते थे कि धीरे-धीरे माँगकर अंग्रेजी से अपना लक्ष्य सिद्ध कर लेना संभव होगा।

वैध उपायों से स्वराज्य प्राप्त करने की विचारधारा का लोकप्रिय होना स्वाभाविक भी था। क्योंकि शस्त्र और हिंसा के द्वारा अंग्रेजी राज्य समाप्त करने की कोशिश जब बेकार हुई तब देश के सामने दो ही मार्ग हो सकते थे, या तो राष्ट्र मृतप्राय हो जाता या, यदि उसमें जीवन बाकी होता तो, वह वैध उपायों का आश्रय लेता। भारत मरा नहीं था। इसका सबूत यही है कि उसने एक मार्ग से विफल होने पर भी दूसरे सक्रिय उपाय का अवलंबन किया। भारत के कतिपय तत्कालीन नेता इस दिशा में अग्रसर हुए और देश के विभिन्न भागों में प्रदेशीय संगठन स्थापित हुए। १८७० में पूना सार्वजनिक सभा कायम हुई। १८७६ में कलकत्ते में सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंदमोहन बोस के उद्योग से इंडियन ऐसोसिएशन नामक संस्था का जन्म हुआ और बदरुद्दीन तैयबजी तथा फिरोजशाह मेहता ने बंबई में १८८५ के आसपास बंबई प्रेसिडेंसी एसोसिएशन स्थापित किया। इस प्रकार प्रांतीय स्तर पर वैध आंदोलन करनेवाले कुछ राष्ट्रीय संगठन १८८५ से पूर्व भी स्थापित हो चुके थे। इसके संचालक भारतीय नेता थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी का इंडियन ऐसोसिएशन बंगाल के बाहर भी कार्य करने लगा था, जिससे पता चलता है कि सुरेंद्र बाबू ने सारे देश के लिए एक राजनीतिक संगठन स्थापित करने की कोशिश आरंभ कर दी थी। दादाभाई नौरोजी ने, जिनके नेतृत्व में फिरोजशाह मेहता, तैलंग तथा तैयबजी आदि कार्य कर रहे थे, इंग्लैंड में भी ईस्ट इंडिया ऐसोसिएशन के नाम से एक संगठन बना लिया था जो वहाँ भारत की ओर अंग्रेज जनता का ध्यान आकृष्ट करता रहता था।

प्रगट है कि श्री ह्यूम के अतिरिक्त तत्कालीन प्रमुख भारतीय नेता भी सारे देश के लिए एक राष्ट्रवादी, देशव्यापी राजनीतिक संगठन की स्थापना करने की कोशिश में लग चुके थे। इसी भूमिका में सन् १८८४ के दिसंबर में मद्रास के अड्यार नामक स्थान पर थियोसाफिकल सोसाइटी का वार्षिक अधिवेशन भी हुआ। कहा जाता है, इसी अवसर पर सन् १८८५ के दिसबंर में इंडियन नैशनल यूनियन की एक अडचार कफ्रोंस करने का विचार साकार हुआ। यही कफ्रोंस इंडियन नैशनल कांग्रेस के रूप में अवतरित हुई। थियोसाफिकल सोसाइटी के इस अधिवेशन में देश भर से प्रतिनिधि आए थे जिनमें श्री ह्यूम के सिवाय सुरेंद्रनाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, काशीराम त््रयंबक तैलंग आदि प्रमुख लोग भी थे। परस्पर विचार विनिमय के बाद इन लोगों ने यह निश्चय किया कि यह कफ्रोंस १८८५ के दिसंबर में पूना में हो जिसमें देश के सभी प्रांतों के प्रतिनिधि सम्मिलित हों। इनकी ओर से एक गश्ती चिट्ठी भी घुमाई गई जिसमें कफ्रोंस का उद्देश्य विभिन्न प्रांतों के कार्यकर्ताओं में परस्पर परिचय कराना तथा अगले वर्ष के लिए राजनीतिक कार्यक्रम को स्थिर करना बताया गया। इस प्रकार कांग्रेस के जन्म की भूमिका तैयार हुई। १८८५ में पूना में यह अधिवेशन हैजे की बीमारी के कारण न हो सका।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन १८८५ में बंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज के भवन में उमेशचंद्र बनर्जी के सभापतित्त्व में हुआ। देश के विभिन्न भागों के ७२ प्रमुख व्यक्तियों ने इसमें भाग लिया। अधिवेशन में नौ प्रस्ताव पारित हुए जिनसे ब्रिटिश सरकार से विभिन्न क्षेत्रों में सुधार की माँग की गई। उस समय अध्यक्ष ने कांग्रेस के उद्देश्य की घोषणा इन शब्दों में की थी: (क) साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में देशहित के लिए लगन से काम करनेवालों की परस्पर निकटता और घनिष्ठता बढ़ाना, (ख) राष्ट्रीय ऐक्य की उन समस्त भावनाओं का पोषण परिवर्धन जो लार्ड रिपन के चिरस्मरणीय शासनकाल में उद्भूत हुई, (ग) उन उपायों और दिशाओं का निर्णय करना जिनके द्वारा भारत के राजनीतिज्ञ देशहित के कार्य करें। इसी अधिवेशन में संस्था का नाम इंडियन नैशनल कांग्रेस रखा गया।

आरंभ में कांग्रेस का उद्देश्य शुद्ध राजनीतिक न था। वह सब प्रकर के सामाजिक सुधारों का काम भी अपने हाथ में लेना चाहती थी। पर १८८६ में कलकत्ते में कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन के अध्यक्ष पद से दादाभाई नौरोजी ने यह घोषणा की कि कांग्रेस शुद्ध राजनीतिक संस्था है और उसका विवादग्रस्त सामाजिक प्रश्नों से कोई संबंध नहीं है। इस प्रकार प्रति वर्ष दिसंबर में कांग्रेस का अधिवेशन देश के विभिन्न स्थानों में होने लगा। अपनी स्थापना से लेकर सन् १९०५ तक कांग्रेस का इतिहास प्रकट रूप से घटनाप्रधान नहीं है। जो संघटन कालांतर में विदेशी प्रभुसत्ता को समाप्त करके भारत की जनता के प्रतिनिधित्व के रूप में विदेशी शासकों से शासन की बागडोर छीन लेने में समर्थ हुआ, उसका यह शैशवकाल था। अपने आरंभिक दिनों में कांग्रेस मूलत: विदेशी सरकार से सुविधाओं की माँग करनेवाले व्यक्तियों का संगठन थी। उस समय कोई भी उसपर 'गरम' या 'अविनयी' होने का आरोप नहीं लगा सकता था। १८९९ के अपने लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस ने अपना ध्येय वैध उपायों से भारतीय साम्राज्य के निवासियों के स्वार्थों और हितों को बढ़ाना घोषित किया। यद्यपि आरंभ के २० वर्षों की अवधि घटनाओं की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण नहीं रही, तथापि राष्ट्रीय जागरण की पृष्ठभूमि इस बीच तैयार हो गई।

इतिहास साक्षी है कि कोई हुकूमत क्यों न हो, वह अपने अधिकार के संबंध में रंचमात्र भी हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकती। कांग्रेस, जो लार्ड डफ़रिन के आशीर्वाद और ह्यूम की प्रेरणा से अवतरित हुई थी, वह भी उपर्युक्त सत्य का अपवाद नहीं रह सकी। लगता है, जैसे-जैसे कांग्रेस का प्रभाव शिक्षित समुदाय पर बढ़ने लगा और देश का ध्यान उसकी और खिंचने लगा, वैसे ही वैसे भारतीय अंग्रेज सरकार का विरोध भी बढ़ने लगा। कांग्रेस का जन्म हुए तीन वर्ष भी न बीते होंगे कि अधिकारियों की भौंहें टेढ़ी होने लगीं। सन् १८८८ में इलाहाबाद के कांग्रेस अधिवेशन का विरोध अधिकारियों द्वारा हुआ। अधिवेशन के लिए स्थान मिलना भी कठिन हो गया था। अब कांग्रेस की ओर धीरे-धीरे अंग्रेजी सरकार भी सशंक सृष्टि से देखने लगी थी। उसकी यह संशक दृष्टि भारत के लिए वरदान सिद्ध हुई। ज्यों-ज्यों अंग्रेजी सरकार सशंक होती गई, कांग्रेस के निश्चयों की उपेक्षा करती गई, उसकी माँगों को ठुकराती गई, अपनी शासननीति को कठोर करती गई, भारतीयों के साथ भेदमूलक बर्ताव करती गई और अपनी अर्थनीति से देश का दोहन करके भारत को दरिद्रता के गढ़े में ढकेलती गई, त्यों-त्यों उन लोगों का विश्वास भी शनै:शनै: अंग्रेजों की नेकनीयती से उठता गया जो अब तक यह समझते थे कि अंग्रेज उदार हैं, वे भारत की माँग स्वीकार करके उसे स्वशासन का अधिकार प्रदान करेंगे और भारत की उद्भावना का आदर करने में कुछ उठा नहीं रखेंगे। ऐसे लोग यहाँ तक समझते थे कि भारत में अंग्रेजों का राज्य, भगवान् की महती कृपा का फल है जो भारत का कल्याण करने के लिए ही व्यक्त हुआ है। इस काल अंग्रेज सरकार की भारतीय नीति ऐसे लोगों का विश्वास डिगाने और उनकी मोहनिद्रा समाप्त करने में सफल हुई।

जहाँ कांग्रेस की छोटी से छोटी माँग भी ठुकराई गई, वहाँ देश के नागरिकों के साधारण अधिकार छीननेवाले कई कानून भी बनाए गए। फल यह हुआ कि कांग्रेस द्वारा सरकार का विरोध भी कुछ तगड़ा होने लगा और देश में ऐसे तत्व उत्पन्न होने लगे जिनका प्रार्थनाओं तथा आवेदनपत्रों की नीति से विश्वास उठने लगा। इसी बीच कांग्रेस बलसंचय न कर पावे, इसके लिए एक और नीति भी बरती गई। मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रखने की चेष्टा उसी समय से आरंभ हुई। अंग्रेजों की इस नीति को सफल बनाने में सर सैयद अहमद खाँ से बड़ी सहायता मिली। सर सैयद अहमद खाँ मुसलमानों को राजनीति से पृथक रखना चाहते थे। वह यह समझते थे कि १८५७ के विरोध के कारण सरकार मुसलमानों से नाराज है क्योंकि मुसलमानों ने उसमें बहुत बड़ा हिस्सा लिया था। फलत: उनका विचार था कि मुसलमान अगर कांग्रेस में शरीक होंगे तो सरकार उनसे और अधिक नाराज होगी और मुसलमान उन सुधारों से लाभ न उठा सकेंगे जो कांग्रेस के आंदोलनों के फलस्वरूप भारतवासियों को प्राप्त होंगे। कांग्रेस की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अपने जन्म से लेकर आज तक विशुद्ध राष्ट्रीवादी संस्था रही है। राष्ट्रीयता के लिए आरंभिक अनुभूति ही कांग्रेस के जन्म का कारण हुई। उसने जन्म से ही कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक देश को एक माना है और इस देश में बसनेवाले सभी वर्गों, संप्रदायों, जातियों और समूहों को इस देश की संतान स्वीकार किया है। अंग्रेजों ने सदा इसके इस राष्ट्रीय स्वरूप को तोड़ने की चेष्टा की।

अंग्रेजी सरकार की इन तमाम खामियों ने लोगों का विश्वास डिगा दिया जिसके फलस्वरूप कांग्रेस में ऐसे तत्व आने लगे जो प्रार्थना की नहीं, अपितु अधिकार की भाषा में बोलने लगे थे। स्वभावत: जिस संघटन को शासकों ने असंतोष के विकल्प के रूप में प्रश्रय दिया था, उसका यह परिवर्तित रूप उन्हें सह्य नहीं हुआ। बंगाल के मध्यम वर्ग में शिक्षा का प्रसार राजनीतिक कारणों से अपेक्षाकृत पहले होने के कारण वहाँ राष्ट्रीय चेतना भी अधिक उग्र थी। कुछ हिंसात्मक घटनाएँ भी घटीं। अत: इस चेतना को आरंभ में ही दबा देने के उद्देश्य से १९०५ में बंगाल को दो हिस्सों में बाँट दिया गया।

यह जमाना लार्ड कर्ज़न का था जो भारतीयों को घृणा की दृष्टि से देखता था। स्पष्ट है कि बंगभंग विदेशी शासकों ने राष्ट्रीय चेतना के हनन के उद्देश्य से किया था। किंतु इसकी प्रतिक्रिया कांग्रेस के स्वरूप को आमूल परिवर्तित करने के कारण बनी। आवेदनपत्रों का युग समाप्त हुआ। कांग्रेस के जीवनक्रम में यह पहला बड़ा महत्वपूर्ण मोड़ था जिसने भारत के राजनीतिक जीवन में एक नए युग का सूत्रपात किया। बंगभंग के विरोध में न केवल बंगाल में, बल्कि संपूर्ण देश में आंदोलन होने लगा। १९०६ में कलकत्ता कांग्रेस के सभापति ददाभाई नौरोजी ने कांग्रेस के उद्देश्यों की घोषणा करते हुए कहा: ''हमारा सारा आशय केवल एक शब्द स्वशासन या स्वराज्य में आ जाता है।'' तभी से लोकमान्य का 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' यह तेजस्वी उद्घोष भी देश में गूँज उठा।

अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का भी कांग्रेस का स्वरूप बदलने में हाथ रहा। १९०४ में जापान के हाथों रूस की पराजय ने एशियाई देशों में जो आत्मविश्वास उत्पन्न किया उसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा। कलकत्ता कांग्रेस ने स्वदेशी, विदेशी का बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज्य का जो कार्यक्रम अपनाया उससे न केवल विदेशी सत्ता को क्षोभ हुआ, अपितु कांग्रेस भी नरम और गरम दो दलों में बँट गई। इसी विचारभेद का परिणाम था कि १९०७ में कांग्रेस का सूरत अधिवेशन सफल न हो सका। इसके बाद १९१५ तक कांग्रेस के नेतृत्व की बागडोर यद्यपि नरम विचार के व्यक्तियों के ही हाथों में रही, तथापि उग्र भावनाओं के व्यक्ति भी राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाते रहे। नरम विचारों के व्यक्तियों ने एक ओर विदेशी सत्ता से अनुनय विनय का क्रम जारी रखा तो दूसरी ओर शासन ने उग्र विचारवादियों का कठोरता के साथ दमन आरंभ कर दिया। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर, जो उग्र विचारवादियों के नेता थे, राजद्रोह का मुकदमा चलाकर उन्हें छह वर्ष के लिए जेल में बंद कर दिया गया।

दमन से सदा क्रांति की भावना को प्रेरणा ही मिलती है। अत: १९०६-१९११ तक की अवधि में जहाँ विदेशी सत्ता ने राष्ट्रीय चेतना को दबाने के लिए खुलकर अत्याचार किए, वहीं इस अवधि में देश में पहला जोरदार आंदोलन भी हुआ और सरकार को १९११ में बंगभगं का आदेश वापस लेना पड़ा। ४ अगस्त १९१४ को प्रथम महायुद्ध छिड़ गया और शासन की ओर से युद्धकालीन स्थिति के नाम पर नवीन दमनकारी उपाय काम में लाए जाने लगे। १९१४ में तिलक के रिहा होकर आ जाने से फिर उग्र विचारों को प्रश्रय मिलने लगा। १९१५ में बंबई कांग्रेस में इस बात की आवश्यकता अनुभव की गई कि राष्ट्र की माँग संयुक्त रूप से उपस्थित करने के लिए मुस्लिम लीग से, जिसे ब्रिटिश सरकार अपनी उद्देश्यसिद्धि के लिए बराबर प्रोत्साहन देती आई थी, विचार विमर्श किया जाए।

१९१६ की लखनऊ कांग्रेस राष्ट्रीय संघटन के इतिहास में निर्णायक सिद्ध हुई। नरम और गरम दल एक दूसरे के निकट आए और यह माँग की गई कि भारत का दर्जा बढ़ाकर उसे ''पराधीन देश के बदले साम्राज्य के स्वशासित उपनिवेशों के समान भागीदार बना दिया जाए।'' अंबिकाचरण मजूमदार इस अधिवेशन के अध्यक्ष थे। इसी अधिवेशन में प्रसिद्ध कांग्रेस-लीग-समझौता पहले पहल हुआ जिसके द्वारा स्वशासन प्राप्त होने पर मुसलमानों को प्रतिनिधान का अधिकार देने की व्यवस्था निर्धारित की गई। प्रथम महायुद्ध में आश्वासन के बावजूद मित्रराष्ट्रों ने मुसलिम देशों के साथ जो व्यवहार किया था उसने मुसलमानों की भी आँखें खोल दीं। मुसलिम लीग की स्थापना मिंटो के जमाने में ही (१९०६ में) हो गई थी पर लीग न केवल कांग्रेस से अलग रही, वरन् मुसलमानों को भी राष्ट्रीय चेतना से अलग रखने की बराबर कोशिश करती रही। इस प्रकार नरम और गरम को एक करके मुसलिम लीग को साझीदार बनाकर देश के स्वशासन का अधिकार प्राप्त करने का यह प्रयास कांग्रेस के जीवन का दूसरा मोड़ था। अब कांग्रेस अधिक शक्तिशाली और व्यापक संघटन के रूप में अवतरित होने जा रही थी। इन्हीं दिनों लोकमान्य तिलक के रूप में अवतरित होने जा रही थी। इन्हीं दिनों लोकमान्य तिलक और श्रीमती ऐनी बेसेंट के प्रयत्नों से होमरूल लीग की स्थापना हुई। होमरूल आंदोलन का दमन करने के लिए विदेशी सत्ता ने भी कोई प्रयत्न उठा नहीं रखा, प्रमुख नेता जेलों में बंद कर दिए गए। किंतु अब कांग्रेस आवेदनपत्रों के युग से आगे बढ़ रही थी, अत: नेताओं को जेल से छुड़ाने के लिए सत्याग्रह की भाषा में बातें होने लगीं। भारतरक्षा के नाम पर युद्धकालीन काले कानूनों का जोर था और लोकप्रिय आंदोलनों को बलपूर्वक दबाया जा रहा था।

भारत के इतिहास में इस समय विचित्र परिस्थिति उत्पन्न हुई। बंगभंग का आंदोलन सन् १९१२ तक समाप्त हो गया था पर उस समय जो क्रांतिकारी प्रवृत्तियों जग चुकी थीं वे जाग्रत बनी रहीं। सन् १९१४ में यूरोप में प्रथम महायुद्ध का आरंभ हो चुका था। युद्ध के कारण देश में अशांति फैल हुई थी। अब तक अंग्रेजी सरकार की नीति की सारी पोल भी खुल चुकी थी। अब तक अंग्रेजी के आंदोलन के समय सरकार ने जो दमन किया था उसे भी लोग भूले नहीं थे। ब्रिटिश सरकार की अंतरराष्ट्रीय नीति के फलस्वरूप भारत के आसपास देशों में ओर विशेषकर निकट पश्चिम के इस्लामी राष्ट्रों में पश्चिमी शक्ति के विरुद्ध उग्र भावनाएँ जाग चुकी थीं। इन सबका प्रभाव भारत के राजनीतिक जीवन पर व्यापक रूप से पड़ रहा था। लोगों के मन में महायुद्ध के अवसर से लाभ उठाने की भावना भर चली थी। फलत: भारत में और भारत के बाहर विप्लववादियों के प्रचंड संगठन कायम हो रहे थे और उनकी गतिविधि भी तीव्र हो रही थी। भारत के कुछ विप्लववादी जर्मनी की सहायता से इंग्लैंड के शासन को समाप्त करना चाहते थे। अमरीका में गदर पार्टी की स्थापना हुई थी जिसकी ओर से बहुत से विप्लववादी विप्लव करने के लिए भारत आए। बंगाल और पंजाब में विशेषकर षड्यंत्रकारी संगठन कायम हुए और जगह-जगह इनके द्वारा राजनीतिक डकैतियाँ और हत्याएँ भी हुई।

इन सबने मिलकर क्रांति की व्यापक योजना बनाई। विदेशों से भी बहुत से हथियार देश में आए और उन्हें अधिकाधिक लाने का प्रबंध किया गया। क्रांति का दिन निश्चित कर दिया गया और यह तय हुआ कि २१ फरवरी, १९१५ को एक साथ ही देश के विभिन्न भागों में विद्रोह की आग सुलगाई जाए। पर यह योजना असफल रही। सरकार का इसका पता लग गया और उसने एक साथ ही धावा बोलकर व्यापक गिरफ्तारियाँ आरंभ कर दीं। इतिहास को अभी दूसरी मार्ग पकड़ना था अत: क्रांतिकारियों का यह प्रयास असफल हुआ।

अब अंग्रेजी सरकार को खुलकर दमन करने का मौका मिल गया। युद्धकालीन स्थिति मे सुरक्षा के नाम पर 'डिफ़ेंस अॅव इंडिया ऐक्ट' पारित किया गया जिसके अनुसार बहुत से विप्लवकारी नजरबंद कर लिए गए। सरकारी दमन का प्रहार इतना तीव्र था कि सारे देश में आंतक छा गया। इस प्रहार ने एक प्रकार से तत्कालीन विप्लवकारी शक्तियों की कमर ही तोड़ दी। सरकार ने केवल विप्लवकारियों का ही दमन नहीं किया प्रत्युत प्रत्यक्ष रूप से चलनेवाले खुले आंदोलनों पर, स्थिति से लाभ उठाकर सफाया कर देने के विचार से हाथ लगाया। होमरूल के आंदोलन को दबाने के लिए सन् १९१७ में श्रीमती ऐनी बेसेंट नजरबंद कर ली गईं। इस प्रकार सरकारी दमनचक्र देश की उमड़ती हुई राजनीतिक चेतना को जड़ से समाप्त कर देने के प्रयत्न में संलग्न था। सरकार की इस नीयत का स्पष्ट रूप तब प्रकट हुआ जब युद्ध के समाप्त होने पर 'डिफ़ेंस ऑव इंडिया ऐक्ट' की अवधि को समाप्त कर देने के बजाए रौलट कमीशन नियुक्त किया गया, जिसके सुपुर्द यह काम हुआ कि वह षड्यंत्रों की जाँच करके विद्रोहों को दबाने के लिए नए कानून बनाने के संबंध में सिफारिश करे। इस कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने सन् १९१९ में केंद्रीय व्यवस्थापक सभा में दो बिल पेश किए और ये नए दमनकारी कानून बने।

अब देश की स्थिति यह थी कि एक और तो वैध उपायों से स्वराज्य प्राप्त करने की नीति निष्फल हो चुकी थी और दूसरी ओर क्रांतिकारियों का संपूर्ण उन्मूलन हो चुका था। विदेशी सरकार की नीयत और नीति भी स्पष्ट हो चुकी थी। उसके आश्वासन और लड़ाई के जमाने में किए गए वादे, सभी झूठे साबित हो चुके थे। इसके विपरीत भारत की गुलामी की जंजीरों को जकड़ देने और देश की जागृति के बचे खुचे अंश को समाप्त कर देने की योजना काले कानूनों के रूप में कार्यान्वित की जा रही थी। सारा-राष्ट्र असहाय पड़ा था। जो परिस्थिति थी उसमें चुपचाप आत्मसमर्पण कर देने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प दिखाई नहीं दे रहा था।

ऐसे ही समय देश के संकटकाल में भारत के राजीनतिक आकाश में एक नए सूर्य के उदय होने के लक्षण दिखाई देने लगे। मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका में सफलता प्राप्त करने के उपरांत सन् १९१५ में भारत आए। महायुद्ध प्रारंभ हो चुका था और दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रही गांधी जी उस युद्ध में अंग्रेजों की मदद के समर्थक थे। वे यद्यपि आते ही कांग्रेस में प्रमुख भाग नहीं ले रहे थे और न उन्होंने होमरूल के आंदोलन में ही योगदान किया, तथापि निलहे गोरों के अत्याचार के विरुद्ध चंपारन के किसानों का नेत्त्व करके कनए प्रकार की युद्धशैली की आजमाइश वे करने लगे थे रौलट ऐक्ट से गांधी जी के हदय को बड़ी चोट लगी। उन्होंने यह घोषणा की कि यदि ये काले कानून बनाए गए तो वे इन्हें तोड़नें के लिए बाध्य होंगे और सत्याग्रह का युद्ध छेड़ देंगे। गांधी जी की इस घोषणा ने देश में नई जान फूँक दी। ऐसे समय जब सारा राष्ट्र अपने को चारों ओर से असहाय पा रहा था और जब उद्वार के सभी मार्ग अवरुद्ध दिखाई दे रहे थे, गांधी जी के रूप में नए प्रकाशपुंज को पाकर वह खिल उठा। दुनिया के इतिहास ने अब तक प्रतिरोध का एक ही उपाय देखा था बलसंचय करके शस्त्र द्वारा आतताई सत्ता का विनाश करने में सफल होना अथवा स्वयं पराभूत होने पर उसके सम्मुख सिर झुका देना। विद्रोह, प्रतिरोध अथवा संघर्ष का कोई दूसरा उपाय मानव जगत् ने तब तक नहीं जाना था। गांधी जी एक नई पद्धति और नया प्रकार लेकर उपस्थित हुए : सत्य और अहिंसा, त्याग और बलिदान के आधार पर सत्याग्रह के रूप में एक प्रचंड और प्रखर प्रतिरोध का उत्पन्न किया जा सकता है। अब देश को नई आशा, नया उत्साह, नई ज्योति और नई दिशा दिखाई पड़ी। रौलट ऐक्ट का विरोध करने के लिए गांधी जी ने इस नई युद्धनीति का प्रयोग किया। सत्याग्रह को तैयारी के सिलसिले में उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया और लोगों से सत्याग्रह करने की प्रतिज्ञा ली। ३० मार्च, १९१९ को उन्होंने सारे देश में हड़ताल और उपवास आदि करने की अपील की। बहुत से स्थानों में ३० मार्च का ही सफल हड़ताल हुई, पर सभी जगह सूचना न पहुँचने के कारण गांधी जी ने यह तिथि बदलकर ६ अप्रैल कर दी। गांधी जी के द्वारा जनजागृति का जो विशाल रूप प्रकट हुआ वह अंग्रेजी सरकार के लिए असह्य हो उठा।

फिर क्या था, सरकारी दमनचक्र चल पड़ा। गोली बरसाना साधारण बात हो गई। १३ अप्रैल को जलियाँवाला बाग में जो रोमांचकारी घटना घटी वह भारत के राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा की और मोड़ देने में समर्थ हुई। इसके बाद उस महान् गांधीयुग का सूत्रपात हुआ जिसने आज के भारत की रचना की। गांधी जी देश के जावन में नए युग के प्रवर्तक के रूप में चमक उठे। पंजाब की घटनाओं ने ब्रिटिश निरंकुशता का जो नग्न रूप प्रकट किया उसने सारे देश के कण-कण को भारत की घृणित, पराधीन स्थिति का ज्ञान पूरी तरह करा दिया। चारों ओर देश में घोर असंतोष व्याप्त हो गया। धीरे-धीरे देश के नेतृत्व की बागडोर गांधी जी के हाथों में गई। कांग्रेस ने पंजाब के हत्याकांड की जाँच के लिए एक कमेटी बनाई जिसकी रिपोर्ट प्रकाशित होने पर उसने पंजाब में जो कुछ हुआ था उसके लिए कुछ अधिकारियों को दंड देने की माँग की। उधर सरकार ने भी जाँच कमेटी बैठाई थी जिसका परिणाम असंतोष को और बढ़ाने में भी सहायक हुआ। सरकारी जाँच कमेटी ने अधिकारियों की नीयत में कोई दोष न पाते हुए उनकी थोड़ी बहुत विवेकहीनता स्वीकार की ओर एक प्रकार से उन्हें निर्दोष ही सिद्ध कर देने का प्रयास किया। सन् १९१९ में अमृतसर में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ और उसमें पंजाब की घटनाओं के संबंध में कांग्रेस में जो माँग की गई, उसे स्वीकार करना तो दूर रहा, केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा में इंडेम्निटी ऐक्ट बनाकर सरकारी अधिकारियों को सुरक्षा प्रदान कर दी गई।

यह स्थिति देश के लिए असह्य हो उठी। पंजाब में जो कुछ किया गया था वह न केवल अत्याचार था बल्कि सारे भारतीय राष्ट्र का उद्दंड अपमान था। गांधी जी तत्कालीन भारत की भावना और आकांक्षा की प्रतिध्वनि के रूप में राष्ट्रीय जीवन के मंच पर उतरे थे। वे देश की स्थिति से अत्यंत क्षब्ध हुए। उधर युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने तुर्की के खलीफा के साथ जो बर्ताव किया उससे भारत के मुसलमान बहुत ही क्रुद्ध थे। खिलाफत का प्रश्न जुड़ जाने से अब सारे देश में एक स्वर से अंग्रेजी सरकार के प्रति क्षोभ प्रकट किया जाने लगा। इस व्यापक जनजागृति और क्षोभ की प्रतिक्रिया गहरे रूप में कांग्रेस पर हुई। गांधी जी ने १ अगस्त, १९२० से व्यापक असहयोग आंदोलन आरंभ करने की घोषणा की। देश में नई जान आई और प्रचंड जन आंदोलन की भूमिका प्रस्तुत हो गई। सितंबर, १९२० में कलकत्ते में लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में कांग्रेस ने अपने विशेष अधिवेशन में गांधी जी के असहयोग के प्रस्ताव को स्वीकार किया। उसी वर्ष नागपुर में श्री विजयराघवाचारी की अध्यक्षता में कांग्रेस के साधारण वार्षिक अधिवेशन में गांधी जी के असहयोग का प्रस्ताव बड़े उत्साह के साथ बहुत बड़े बहुमत से स्वीकृत हुआ।

कांग्रेस का यह ऐतिहासिक नागपुर अधिवेशन कांग्रेस के जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण और बड़ा मोड़ है जिसने राष्ट्रीय जागृति को महान् भारतीय जनजीवन के मूल तक पहुँचा दिया। कांग्रेस का स्वरूप भी ऊपर से नीचे तक बदल गया। यह राष्ट्रीय संस्था अब तक मध्यम वर्ग के पढ़े लिखे और सुशिक्षित वर्गों का संगठन बनी हुई थी और इसमें अंग्रेजी भाषा और देश के हिमायतियों का ही प्राधान्य था। वही कांग्रेस अब सहसाज जनसंगठन का रूप ग्रहण करने जा रही थी। कांग्रेस के विधान में भी अब परिवर्तन आवश्यक था, और परिवर्तन किया गया। उसका द्वार सबके लिए खोल दिया गया और जनवर्ग के प्रवेश के लिए मार्ग प्रस्तुत कर दिया गया। कांग्रेस का लक्ष्य शांतिमय तथा उचित उपायों से स्वराज्य प्राप्त करना घोषित किया गया। सत्य और अहिंसा पर आधारित असहयोग और सत्याग्रह को राष्ट्रीय ध्येय की पूर्ति के लिए साधन घोषित किया गया। भारत की राजनीति अब भारत के लाखों गाँवों में बसनेवाले करोड़ों किसानों और दलित प्राणियों की ओर मुड़ चली। कांग्रेस में हिंदी का समावेश हुआ, उसे राष्ट्रीय पताका मिली, तेजस्वी नेता प्राप्त हुआ। उसका ध्यय स्पष्ट हुआ, मार्ग निर्धारित हुआ और नई क्रांतिशैली तथा साधन उपलब्ध हुए। गांधी जी ने स्वदेशी के प्रयोग और चरखे की प्रतिष्ठा करके करोड़ों दलित और शोषित वर्गों के हृदय में नई आशा का संचार कर दिया। यह निश्चय हुआ कि कांग्रेस के एक करोड़ सदस्य बनाए जाएँ और एक करोड़ रुपया एकत्रित किया जाए जिससे कांग्रेस अपना संदेश लेकर दूर-दूर तक गरीबों की झोपड़ियों में भी पहुँच सके। १९२१ में अहमदाबाद कांग्रेस ने, जिसके मनोनीत अध्यक्ष देशबंधु चित्तरंजन दास की गिरफ्तारी के कारण अध्यक्ष पद का भार हकीम अजमल खाँ ने उठाया, सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन की योजना स्वीकार की। इस प्रकार गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने उस विशाल भारतीय जनआंदोलन का सूत्रपात किया जो कालांतर में सैकड़ों वर्षों से इस देश पर लदी हुई ब्रिटिश सत्ता का उन्मूलन करने में समर्थ हुआ। गांधी जी सदा साधन पर ही अधिक जोर दिया करते थे। उनका कहना था कि सविनय अवज्ञा आंदोलन का आधार अहिंसा है जिसके बिना उसका चलाया जाना सर्वथा असंभव हैं। यही कारण है कि कुछ दिनों तक चलने के बाद जब गोरखपुर जिले के चौरीचौरा नामक स्थान में हिंसात्मक कार्य हो गया तो गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को उपयुक्त परिस्थिति उत्पन्न होने तक के लिए स्थगित कर दिया। एक बार इससे देश का उत्साह मंद पड़ गया। सरकार ने भी आंदोलन को रुकते देखकर गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया और राजद्रोह के अभियोग में उन्हें छह वर्ष की सजा देकर जेल भेज दिया।

जब आंदोलन का पहला जोर कम हुआ, तब पुन: लोगों का ध्यान कौंसिलों में प्रवेश करके उनके माध्यम से स्वराज्य की लड़ाई जारी रखने की ओर गया। इसके लिए स्वराज्य पार्टी बनाई गई। १९२३ की कोकोनाडा कांग्रेस ने कौंसिल प्रवेश को स्वीकार कर लिया। १९२५ में कांग्रेस में दो विचारधाराएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी थीं । एक वर्ग के लोग रचनात्मक कार्यक्रम में विश्वास करते थे और दूसरे कौंसिलों के भीतर से संघर्ष जारी रखने में। पर १९२८ आते-आते यह प्रकट हो गया कि कौंसिलों के माध्यम से विदेशी सत्ता से मुक्ति नहीं मिल सकती। देश में फिर वातावरण बदलने लगा। भारत में किस सीमा तक उत्तरदायी शासन का सिद्धांत लागू किया जाए इसकी जाँच के लिए साइमन कमीशन को यहाँ भेजने की घोषणा नवंबर, १९२७ में ब्रिटिश सरकार ने की। कांग्रेस की माँग की इससे रंचमात्र भी पूर्ति होते न देखकर कमीशन का बहिष्कार करने का निश्चय किया गया। फरवरी, १९२८ में जब साइमन कमीशन भारत आया तब देश भर में उसका बहिष्कार हुआ। इसी बीच कांग्रेस की ओर से भावी शासनव्यवस्था का रूप निर्धारित करने के लिए मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नेहरू कमेटी की स्थापना की गई। दिसंबर, १९२८ की कलकत्ता कांग्रेस ने इस कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकार किया और यह घोषणा की कि यदि ब्रिटिश सरकार ने एक वर्ष के भीतर इसे स्वीकार न कर लिया तो जनता को पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए करबंदी और अहिंसात्मक असहयोग आरंभ करने के लिए संघटित किया जाएगा। जब ब्रिटिश सरकार ने इसकी और ध्यान नहीं दिया तो दिसंबर, १९२९ में लाहौर कांग्रेस में पूर्ण स्वाधीनता की घोषणा कर दी गई और निश्चय किया गया कि अब से कांग्रेस अपनी सारी शक्ति देश को हर प्रकार के विदेशी आधिपत्य से मुक्त करने में लगाएगी। लाहौर कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे। इस अधिवेशन में कांग्रेस के उद्देश्य को परिवर्तित करते हुए यह घोषणा की गई कि कांग्रेस का लक्ष्य देश में पूर्ण स्वाधीनता की स्थापना है जिसका अर्थ ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्ण संबंधविच्छेद हैं। इस स्वाधीनता की प्राप्ति का साधन समस्त शांतिमय और उचित उपायों का अवलंबन ही होगा। २६ जनवरी, १९३० को संपूर्ण देश में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा की गई। (यह स्वाधीनता की प्रतिज्ञा का दिवस इसके बाद प्रति वर्ष मनाया जाता रहा है और अब यही स्वाधीन भारत में गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है)।

१९२९ की घोषणा के बाद पुन: देश के वातावरण में राजनीतिक चेतना प्रकट होने लगी। जनजागृति का यह नया रूप देखकर कांग्रेस ने व्यापक विधि से सविनय अवज्ञा आंदोलन का निश्चय किया और उसके संचालन का संपूर्ण भार महात्मा गांधी को सौंप दिया। महात्मा गांधी ने नमक कानून भंग कर आंदोलन आरंभ करने का निश्चय किया और १२ मार्च, १९३० को वे स्वयं इसके लिए दांडी की ओर चल पड़े। ५ अप्रैल को समुद्र के किनारे इस स्थान पर नमक बटोरकर उन्होंने सरकारी कानून भंग किया। उसी रात गांधी जी गिरफ्तार कर लिए गए और इसके बाद ही संपूर्ण देश में नमक कानून का उल्लंघन, शराब और विदेशी वस्त्र की दूकानों पर धरना आदि के रूप में आंदोलन फैल गया। जितना व्यापक आंदोलन था उतना ही उग्र सरकार का दमनचक्र चला। किंतु कांग्रेस की उपेक्षा करके भारत के प्रश्न का निपटारा करने के प्रयत्नों में असफल होने के बाद ब्रिटिश सरकार का रुख बदला। कांग्रेस ने नेता जेलों से रिहा कर दिए गए। मार्च, १९३१ में गांधी जी और तत्कालीन वाइसराय लार्ड इरविन के बीच समझौता हुआ। मार्च में ही कराची में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में हुआ। इस अधिवेशन की विशेषता उस प्रस्ताव के कारण है जिसे कांग्रेस ने देश के भावी आर्थिक ढाँचे को निर्धारित करते हुए जनता के मौलिक अधिकारों की घोषणा के रूप में स्वीकार किया। इस प्रस्ताव द्वारा कांग्रेस ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह देश की कोटि-कोटि भूखी नंगी जनता के लिए ही स्वराज्य के संघर्ष का संचालन कर रही है। इसमें प्रथम बार कांग्रेस ने मौलिक अधिकारों का प्रस्ताव स्वीकार करके यह घोषणा की कि स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के मत से देश के नागरिकों के क्या अधिकार होंगे।

प्रकट रूप से समझौता करने पर भी सरकार ने अपनी नीति वास्तव में बदली नहीं और समझौते की शर्तों का बराबर उल्लंघन होता रहा। गांधी जी गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए लंदन गए। पर वहाँ भी हरिजनों, मुसलमानों आदि के प्रश्न को लेकर नई समस्याएँ खड़ी की गई। गांधी जी के स्वदेश लौटने से पहले ही कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता फिर जेलों में बंद कर दिए गए। कांग्रेस को पुन: असहयोग आंदोलन आरंभ करना पड़ा। १९३२-३३ में जेलें सत्याग्रहियों से भर गई। गांधी जी ने जेल में ही हरिजनों की समस्या को लेकर अनशन आरंभ किया और सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। सविनय अवज्ञा आंदोलन का जोर समय बीतने के साथ कम होता देखकर गांधी जी ने उसे वापस ले लिया। सरकार ने इसमें अपनी विजय देखी और यह सिद्ध करने के लिए कि कांग्रेस का प्रभाव समाप्त कर दिया गया है, नवंबर, १९३४ में केंद्रीय असेंबली का चुनाव कराने की घोषणा की। कांग्रेस ने इस चुनौती को स्वीकार किया, वह चुनाव में सम्मिलित हुई और विदेशी सरकार की आशा के प्रतिकूल उसे सफलता प्राप्त हुई।

इसके बाद १९३५ के इंडिया ऐक्ट के अनुसार कांग्रेस ने प्रांतों के निर्वाचन में भाग लिया और आठ प्रांतों में उसे बहुमत प्राप्त हुआ। बहुमतवाले प्रांतों में कांग्रेस मंत्रिमंडल बनाने का निश्चय किया गया और जुलाई, १९३७ में मंत्रिमंडल बने। इंडिया ऐक्ट की सीमित परिधि में भी मंडलों के कार्यों में बाधाएँ आती रहीं, पर द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ होने तक कोई ऐसा बड़ा संकट, जो इन सीमित अधिकारों के मंत्रिमंडलों का ससम्मान चलना असंभव कर दे, उपस्थित नहीं हुआ। १ सितंबर, १९३९ को हिटलर के पोलैंड पर आक्रमण करने पर द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हुआ और ब्रिटिश सरकार ने भारत की केंद्रीय धारा सभा और प्रांतों के मंत्रिमंडलों की उपेक्षा कर यह घोषणा कर दी कि भारत भी जर्मनी के विरुद्ध इस युद्ध में स्वेच्छा से सम्मिलित है। कांग्रेस फासिस्तवाद का विरोध आरंभ से करती आई थी, पर देश के प्रतिनिधियों की उपेक्षा करके उसे युद्ध में सम्मिलित घोषित करने की नीति का उसने विरोध किया। युद्धकालीन संकट के नाम पर वाइसराय और गवर्नरों का हस्तेक्षप भी अत्यधिक होने लगा था। फलत: २२ अक्टूबर, १९३९ को कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया। जगत् की बदलती हुई राजनीतिक स्थिति में मंत्रिमंडलों की परिधि से बाहर आकर कांग्रेस के लिए चुपचाप बैठना संभव नहीं था। फलत: १५ सितंबर, १९४० को कांग्रेस ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का निश्चय किया और १० अक्टूबर, १९४० से व्यक्तिगत सत्याग्रह आरंभ हो गया। अक्टूबर, १९४१ तक यह सत्याग्रह पूरे वेग से चला। बाद में बदली हुई युद्धस्थिति के कारण कांग्रेस ने पुन: स्थिति का सिंहावलोकन किया। जापान के युद्ध में आ जाने से भारत का सामरिक महत्व देखकर ब्रिटिश सरकार के सहयोगी राष्ट्र भी उसपर समस्या का समाधान करने के लिए जोर डालने लगे थे।

मार्च, १९४२ के अंत में सर स्टैफ़र्ड क्रिप्स ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि बन भारतीय नेताओं से परामर्श करने के लिए दिल्ली आए। उनके द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव में कांग्रेस की माँग स्वीकार नहीं की गई थी और ऐसी बातों का उल्लेख हुआ था जो यदि स्वीकार कर ली जातीं तो भारत के अनेक टुकड़े हो जाते। जो तात्कालिक संकट देश के सामने उपस्थित था उसका सामना करने के लिए भारत को कोई अधिकार नहीं मिल रहे थे। फलत: क्रिप्स की यात्रा का कोई परिणाम नहीं निकला। इतना अवश्य स्पष्ट हो गया कि भारत को अधिकार देने के बदले ब्रिटिश सरकार उसे जापानी आक्रमण के सामने अरक्षित छोड़ सकती है। बर्मा से हटने तथा भारत के पूर्वी भागों को खाली करने की योजना से यह प्रकट था। कांग्रेस इस स्थिति की निरपेक्ष दर्शक नहीं बन सकती थी। इस देश में अंग्रेजों की उपस्थिति से भारत पर बाहरी आक्रमण की अधिक आशंका थी। अधिकारों से वंचित होने के कारण भारतवासी अपने देश की रक्षा करने में असमर्थ थे। अत: गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 'अंग्रेजों, भारत छोड़ो' का नारा लगाया, साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस अंग्रेजों से जब हटने के लिए कह रही है तब उनके स्थान पर किसी अन्य का स्वागत नहीं करेगी। प्रत्येक आक्रमणकारी का सामना किया जाएगा। कांग्रेस ने देश में बढ़ते हुए असंतोष को संघटित किया और 'भारत छोड़ों' आंदोलन आरंभ करने का निश्चय करने के लिए ७ अगस्त, १९४२ से बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई। ब्रिटिश सरकार क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद से ही दमन की पूरी तैयारी कर चुकी थी। अत: ९ अगस्त, १९४२ को प्रात: काल बंबई में ही गांधी जी तथा अन्य प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए और कांग्रेस संघटन गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके साथ ही देश में व्यापक आंदोलन आरंभ हो गया। यह अवसर था जब कांग्रेस के उच्च नेताओं की गिरफ्तारी के बाद जनता ने अपने हाथ में नेतृत्व ले लिया।

कांग्रेस-कार्य-समिति के सदस्य अहमदनगर के किले में बंद थे और गांधी जी पूना स्थित आगा खाँ महल में। ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को बदनाम करने के लिए उसके नेताओं की अनुपस्थिति में जो प्रचार आरंभ किया, उसका गांधी जी ने जेल से ही पत्रव्यवहार में विरोध किया। इस प्रकार यहाँ जनता बाहर संघर्षरत थी, भीतर बंद होने पर भी नेतागण अपना कार्य करते जा रहे थे। फरवरी, १९४३ में गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के मिथ्या आरोपों का खंडन करने के लिए कांग्रेस-कार्य-समिति के सदस्यों से न मिलने देने के विरोध में २१ दिन का अनशन किया। अप्रैल, १९४४ में गांधी जी जेल में बीमार पड़े और उनकी दशा चिंताजनक देखकर ६ मई, १९४४ को उन्हें रिहा कर दिया गया। छूटते ही गांधी जी ने यह घोषित किया कि ८ अगस्त, १९४२ के प्रस्ताव का सविनय अवज्ञा संबंधी अंश अब स्वत: समाप्त हो गया है क्योंकि १९४४ में हम १९४२ को वापस नहीं ला सकते। साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि प्रस्ताव का शेष अंश, जो राष्ट्रीय माँग से संबंधित है, यथावत् विद्यमान है। रिहा होते ही गांधी जी ने सांप्रदायिक एकता के लिए भी प्रयत्न किया, जो सदा से कांग्रेस का ध्येय रहा है। सितंबर, १९४४ में वे मुसलिम लीग के नेता श्री मुहम्मद अली जिन्ना से भी मिले। पर यह वार्ता लीग की नीति के कारण सफल नहीं हो सकी।

इसी बीच यूरोप में युद्ध की स्थिति बदल चली थी और अंग्रेजों के पक्ष को सफलताएँ प्राप्त होने लगी थीं। अत: विश्व के समक्ष भारतीय नेताओं को अनिश्चित अवधि तक बंद रखने का औचित्य सिद्ध करना ब्रिटिश सरकार के लिए कठिन हो गया। फलत: मार्च, १९४५ में वाइसराय को वार्ता के लिए लंदन बुलाया गया और लौटने पर लार्ड वेवल ने १४ जून, १९४५ को ब्रिटिश सरकार की भारत संबंधी नीति की घोषणा की तथा १५ जून, १९४५ को कांग्रेस-कार्य-समिति के सदस्य भी जेल से रिहा कर दिए गए।

वाइसराय ने जो घोषणा की उसके अनुसार २५ जून, १९४५ से शिमला में राजनीतिक नेताओं का सम्मेलन आरंभ हुआ। पर ब्रिटिश सरकार तथा मुसलिम लीग की नीति के कारण वह सफल नहीं हो सका और जुलाई, १९४५ के मध्य में इसकी असफलता की घोषणा कर दी ।

७ मई, १९४५ को जर्मनी के बिना शर्त आत्मसमर्पण करते ही द्वितीय महायुद्ध समाप्त हो गया। ब्रिटेन में आम चुनाव हुआ और उसमें श्री चर्चिल के कंज़रवेटिव दल के स्थान पर मजदूर को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। मजदूर सरकार ने भारत में भी नए चुनाव कराने की घोषणा की और कांग्रेस संघटन से प्रतिबंध हटा लिया। सितंबर, १९४५ में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई। भारत की स्थिति का अध्ययन करने के लिए दिसंबर, १९४५ में ब्रिटेन से पार्लामेंट के सदस्यों का एक प्रतिनिधिमंडल भारत भेजा गया। १५ फरवरी, १९४६ को लंदन में यह घोषणा की गई कि भारतीय शासनविधान के निर्माण के संबंध में नेताओं से विचार विनिमय करने के लिए ब्रिटिश मंत्रिमंडल के तीन सदस्यों का एक मिशन भारत आएगा। २३ मार्च, १९४६ को इस इस मिशन के सदस्य भारत पहुँचे। लगभग तीन महीने यह मंत्रिमिशन इस देश में रहा और उसने अलग-अलग तथा सम्मिलित रूप से भारतीय नेतओं से बात की। १६ जून, १९४६ को इस मंत्रिमडंल ने भारत के राजनीतिक भविष्य के संबंध में घोषणा की और अंतरिम सरकार की स्थापना की चर्चा की। पर्याप्त विचार विमर्श के उपरांत कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया। मुस्लिम लीग आरंभ में उसमें सम्मिलित नहीं हुई।

२ सितंबर, १९४६ को अंतरिम नेहरू सरकार का जन्म हुआ। कांग्रेस और वाइसराय दोनों की इच्छा थी कि लीग भी अंतरिम सरकार और ब्रिटिश घोषणा के अनुसार बननेवाली संविधान परिषद्, दोनों में, सहयोग की भावना से सम्मिलित हो। १५ अक्टूबर, १९४६ को लीग भी अंतरिम सरकार में तो सम्मिलित हो गई, पर उसने अलग पाकिस्तान की स्थापना की माँग जारी रखी। सरकार में सम्मिलित होने के बाद उसके प्रतिनिधि इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए गुप्त ओर प्रकट रूप से कार्य करते रहे। देश में दंगे हुए और सम्मिलित रूप से शासन का संचालन असंभव हो गया। अंत में ३ जून, १९४७ को ब्रिटिश सरकार ने एक और योजना की घोषणा की जिसमें विभाजन के बाद भारत को सत्ता हस्तांतरित करने का अपना निश्चय बताया। ४ जुलाई, १९४७ को ब्रिटिश पार्लामेंट में एक बिल पेश हुआ जो 'इंडियन इंडिपेंडेंस ऐक्ट, १९४७' कहलाता है। इसमें भारत को दो भागों में विभाजित करके १५ अगस्त, १९४७ को सत्ता हस्तांतरण की व्यवस्था की गई।

१४अगस्त, सन् १९४७ को अर्धरात्रि के बाद, अंग्रेजी गणना के अनुसार १५ अगस्त का प्रारंभ हुआ और ठीक उसी समय लार्ड माउंडबैटन के द्वारा तत्कालीन भारत की अंतरिम सरकार के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू को ब्रिटिश सत्ता सौंप दी गई। १४ अगस्त, १९४७ को रात के १२ बजे तक, ३५ करोड़ नरनारियों से भरा जो देश सदियों से गुलाम था, वह १२ बजते ही स्वाधीन हो गया। १८४७ में जिस क्रांति का सूत्रपात हुआ और १८८५ में जन्म ग्रहण कर राष्ट्रीय चेतना की जिस बागडोर को कांग्रेस ने अपने हाथों में लिया वह ९० वर्ष का क्रांतियुग सन् १९४७ में समाप्त हुआ। कांग्रेस का लक्ष्य सिद्ध हुआ और कई सौ वर्षों के बाद भारत की जनता ने स्वतंत्रता की आबहवा में साँस ली। सन् १८८५ में पैदा हुआ छोटा सा संगठन एक ऐसी बलवती संस्था के रूप में बढ़ा जो भारत की विशाल जनता की इच्छाओं और भावनाओं का प्रतीक बनने में सफल हुई। स्वराज्य के जिस लक्ष्य को दादाभाई नौरोजी ने पहले पहल घोषित किया, लोकमान्य तिलक ने जिसे देश का जन्मसिद्ध अधिकार घोषित करके सप्राण बनाया, उसी की संसिद्धि कांग्रेस ने गांधी जी के नेत्तृत्व में प्राप्त की। स्वयं इस संस्था में आत्मनिर्भरता और राष्ट्रभिमान भरकर गांधी जी ने उसे भारत की प्रतिनिधि संस्था बनाया। १५ अगस्त, १९४७ को वह अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हुई और स्वंतत्र भारत की जनता की सेवा में अपने को उत्सर्ग कर देने की दूसरी प्रतिज्ञा लेकर अग्रसर हुई।

भारत की स्वतंत्रता के साथ-साथ देश पर विपत्ति के बादल भी मँडराए। एक ओर स्वाधीनता मिली, दूसरी और भारत का विभाजन हुआ। देश के लिए विभाजन का परिणाम बड़ा भंयकर सिद्ध हुआ। उत्तर भारत के बहुत बड़ें हिस्से में सांप्रदायिक दंगों, हत्याओं, लूटपाट और खूनखराबी से तबाही आ पड़ी। लाखों लोग बेघरबार के हुए। प्रदेश के प्रदेश उजड़ गए और न जाने कितनों ने अपनी जान गँवाई। भाई ने भाई के खून से देश को रँग डाला और ऐसा प्रतीत होने लगा कि स्वतंत्रता का बीज, जो अभी-अभी बोया गया है, अंकुरित होने से पूर्व ही झुलस कर राख हो जाएगा। बड़ी कठिनाई से इस रक्तपात को रोका गया। इस कठिन समय में भी कांग्रेस ने अपनी राष्ट्रवासदनी प्रवृत्ति का सुंदर परिचय दिया और दृढ़तापर्वूक उसने राष्ट्रीयता की डगमगाती नैया की पतवार पकड़े रखी। इस समय कांग्रेस और देश को जो बड़ा भारी बलिदान करना पड़ा उसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। गांधी जी ने सांप्रदायिकता के इस जहर को शांत करने में अपने प्राणों की आहुति दे डाली। उन्होंने दासता से निकालकर हमें स्वतंत्र बनाया था। राष्ट्र को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में सफलता प्राप्त की थी। अहिंसा, प्रेम और राष्ट्रीयता के अपने आदर्श के लिए उन्होंने अपना बलिदान किया और संकटकाल में कांग्रेस उनके लोकोत्तर नेतृत्व से वंचित हो गई।

देश एक बार पुन: दु:ख और निराशा के गर्त में जा गिरा। पर कांग्रेस का सुदृढ़ नेतृत्व पुन: उसकी सहायता और सेवा करने में समर्थ हुआ। कांग्रेस ने स्वाधीनता की अपनी पुरानी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के बाद, देश के लिए अपने दूसरे दायित्व को पूरा करने का कदम उठाया। सदा से यह राष्ट्रीय संस्था देश की गरीबी, अज्ञता और शोषण तथा विषमता मिटाने की चेष्टा करती रही है। स्वंतत्रता की प्राप्ति तो हो गई, पर देश को सुखी एवं संपन्न करने का महान् कार्य अभी बाकी बड़ा था। गांधी जी के नेतृत्व के अभाव में यद्यपि इस भार को उठाना उसके लिए कठिन हो रहा था, तथापि आत्मविश्वास और सेवा के जिस मंत्र से गांधीजी ने उसे अनुप्राणित किया था, उनके उसी संदेश ने उसे बल प्रदान किया। सत्ता हस्तांतरित करते हुए भारत का भावी संविधान बनाने के लिए संविधान परिषद् की स्थापना की योजना तैयार की गई थी। कांग्रेस का सदा से यह मत था कि स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए संविधान परिषद् की उपयुक्त प्रकार हो सकता है। सन् १९३६ में लखनऊ कांग्रेस के अध्यक्ष पद से भाषण करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ''हमारा संविधान बनाने के लिए संविधान सभा ही एकमात्र उचित और लोकतंत्रीय ढंग हो सकता है।'' तब से कांग्रेस बराबर इस निश्चय को दोहराती आई थी।

१६ मई, १९४६ को ब्रिटेन के मंत्रिमंडल कमीशन ने जो घोषणा की थी उसमें भारत का संविधान बनाने के लिए संविधान परिषद् का उल्लेख किया गाया था। फलत: संविधान परिषद् की प्रथम बैठक ९ दिसंबर, १९४६ को हुई। १५ नवंबर, १९४९ को संविधान स्वीकृत हुआ और इसके द्वारा भारत सर्वप्रभुतासंपन्न स्वतंत्र गणराज्य घोषित किया गया। २६ जनवरी, १९५० को हमारा यह संविधान लागू कर दिया गया। २६ जनवरी, १९३० को जिस स्वाधीनता की घोषणा कांग्रेस ने की थी, सन् १९५० के उसी २६ जनवरी को स्वतंत्र भारतीय गणराज्य का जन्म हुआ। इस बीच जहाँ एक ओर लाखों शरणार्थियों को पुन: बसाने और शांति स्थापित करने का कार्य हो रहा था, वहीं दूसरी और दृढ़तापूर्वक भारत की एकता की नींव डाली जा रही थी। भारत के सैंकड़ों देशी रजवाड़ों के राज्य धीरे-धीरे विशाल भारतीय संघ में विलीन किए गए। आश्चर्य यह है कि अपने ढंग का यह अनूठा विलीनीकरण कांग्रेस के नेतृत्व में बनी हुई केंद्रीय सरकार ने शांति और सहयोग के साथ कर डाला। स्वतंत्र भारत में कांग्रेस के सामने नवीन लक्ष्य स्थापित करने का प्रश्न भी उपस्थित था। पहले यह निश्चय किया गया कि शांति और वैध उपायों से भारत की कोटि-कोटि भूखी एवं नंगी जनता के लिए सहकारिता के आधार पर कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना कांग्रेस का लक्ष्य है। आगे चलकर इसी लक्ष्य की निश्चित और सही-सही व्याख्या की गई। १९५५ में आवड़ी में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ उसमें स्पष्ट रूप से यह घोषणा की गई कि कांग्रेस देश में समाजवादी समाज की स्थापना करना अपना लक्ष्य निर्धारित करती है। समाजवाद के साथ-साथ वह लोकतंत्रिक शासनव्यवस्था में विश्वास करती है और नए सिरे से यह एलान करती है कि उक्त लक्ष्य की सिद्धि का उसका साधन शांतिमय होगा। फलत: कांग्रेस ने अपनी मौलिक प्रवृत्ति को प्रकट किया। प्रजातांत्रिक, समाजवादी शासनव्यवस्था उसका लक्ष्य है और शांतिमय तथा विधेय मार्ग उसके साधन हैं। राष्ट्र की एकता और असांप्रदायिक हुकूमत वह आधार है जिसपर नवीन भारत के निर्माण का प्रयत्न करने का उसने निश्चय किया एवं जिस संविधान की रचना हुई उसकी प्रस्तावना में कांग्रेस की इन्हीं मूल प्रवृत्तियों का समावेश किया गया।

संविधान की भूमिका में कहा गया : ''हम भारत के लोग, भारत को प्रभुतासंपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तथा न्यायविचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान के लिए तथा अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए और व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता के लिए पारस्परिक बंधुभाव बढ़ाने के हेतु दृढ़संकल्प होकर अपने संविधान को अंगीकार करते हैं और आत्मार्पित करते हैं।'' इस प्रकार नए भारत और उसके भविष्य की कल्पना का जन्म हुआ।

सन् १९५१-५२ में संपूर्ण भारत में नवीन संविधान के अनुसार प्रथम आम चुनाव हुए। संसार में कहीं भी, इससे पूर्व इतने बड़े पैमाने पर लोकतंत्रात्मक ढंग से ऐसा चुनाव नहीं हुआ था। भारत के लगभग १९ करोड़ बालिग स्त्री पुरुषों को, बिना किसी भेदभाव के, इस चुनाव में मत देने का अधिकार प्राप्त हुआ। कांग्रेस ने भी चुनाव में भाग लिया और जनता ने उसे बहुत बड़ी विजय प्रदान कर उसके प्रति अपने विश्वास की घोषणा की। नए आम चुनाव के बाद देश में स्थिरता आई। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में केंद्र की सरकार ने भारत की अनेक समस्याओं का समाधान करने के लिए नियोजित कदम उठाने का निश्चय किया। कांग्रेस ने अपने प्रस्तावों द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं की रूपरेखा स्थिर की और इस प्रकार पंचवर्षीय योजना प्रचालित हुई। ११ मार्च, सन् १९५६ को प्रथम पंचवर्षीय योजना की समाप्ति हुई तथा दूसरी पंचवर्षीय योजना का प्रारंभ हुआ। दूसरी पंचवर्षीय योजना के समाप्त होने पर तृतीय योजना का आरंभ सन् १९६१ के मार्च से हुआ। पंचवर्षीय योजनाओं का यह क्रम अभी तक जारी है।

सन् १९५७ में दूसरा आम चुनाव हुआ जिसमें पुन: कांग्रेस के प्रति भारतीय राष्ट्र ने अपना विश्वास प्रकट करके उसे केंद्र में और प्राय: सभी राज्यों में बहुमत प्रदान किया। द्वितीय पंचवर्षीय योजना की सफल समाप्ति ने देश की चतुर्मुखी उन्नति के लिए नींव रखी। तीसरे आम चुनाव का समय निकट आने के साथ तृतीय पंचवर्षीय योजना प्रारंभ हुई। (क.त्रि.)

सन् १९६२ ई. में तीसरा आम चुनाव हुआ जिसमें केंद्र और लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस की ही विजय हुई। सन् १९६७ ई. में हुए आम चुनाव में यद्यपि कांग्रेस को केंद्र में स्पष्ट बहुमत मिला, तथापि कई राज्यों में उसे असफलता का मुँह देखना पड़ा और नौ राज्यों में यह तो संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारें बनीं या अन्य राजनीतिक दलों ने अपनी सरकारें बनाई। लेकिन संविद सरकारें स्थायी प्रशासन न दे सकीं और आपसी मतभेद के कारण शीघ्र ही टूट गई। सन् १९६९ ई. के दौरान कांग्रेस में आंतरिक विघटन हुआ वह दो दलों में विभाजित हो गई। हुआ यह कि जून, १९६८ ई. को कांग्रेस महासमिति के बँगलौर अधिवेशन में राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के चुनाव को लेकर प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्री निजलिंगप्पा तथा दोनों के समर्थकों के बीच सीधा टकराव हुआ। दल के संसदीय बोर्ड ने १३ जून को, श्रीमती गांधी के विरोध के बावजूद, लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष श्री नीलम संजीव रेड्डी को दो के विरुद्ध चार मत से कांग्रेस प्रत्याशी चुना।

१६ अगस्त, १९६९ ई. को हुए राष्ट्रपति के चुनाव में श्रीमती गांधी और उनके समर्थकों ने 'अंतरात्मा की आवाज' के आधार पर श्री वराह वेंकट गिरि को मत दिए और श्री गिरि विजयी रहे। श्री निजलिंगप्पा और उनके गुट ने इस कार्य को अनुशासन भंग की गंभीर कार्यवाही माना और कार्यसमिति की अगली बैठक से एक रात पूर्व श्री जगजीवनराम, श्री फखरुद्दीन अली अहमद तथा तीन में से एक महासचिव डा. शंकरदयाल शर्मा को कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्यता से अलग कर दिया। श्रीमती गांधी ने उसी रात अपने समर्थक नेताओं की एक बैठक बुलाकर कार्यसमिति की बैठक अपने निवासस्थान पर उसी समय करने की घोषणा की। इस प्रकार अगले दिन एक ही समय कार्यसमिति की दो समानांतर बैठकें हुई–एक दल के मुख्यालय पर श्री निजलिंगप्पा की अध्यक्षता में हुई जिसमें कार्य समिति के २१ सदस्यों में से ११ ने भाग लिया और दूसरी प्रधान मंत्री निवास पर श्रीमती गांधी के सभापतित्व में हुई जिसमें शेष १० सदस्य उपस्थित थे। प्रधान मंत्री और उनके समर्थकों ने २३ तथा २४ नवंबर, १९६९ ई. को महासमिति की विशेष बैठक में श्री निजलिंगप्पा और उनकी कार्यसमिति के सभी सदस्यों को कांग्रेस से निकाल दिया तथा उनके द्वारा की गई अनुशासनात्मक कार्रवाई रद्द कर दी। इसके बाद कांग्रेस दो दलों में विभाजित हो गई; 'अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' तथा 'अखिल भारतीय राष्ट्रीय संगठन कांग्रेस'।

कांग्रेस के विभाजन के बाद अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसे सामान्यत: कांग्रेस के नाम से जाना जाता है, सत्ता में रही। उसने राजाओं के 'प्रिवी पर्स' बंद कर दिए तथा देश के प्रमुख १४ बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त मामलों में प्रशासन के विरुद्ध निर्णय दिया। अत: १९७० ई. में लोकसभा भंग कर दी गई और १९७१ ई. के मध्यावधि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने भारी बहुमत से विजय प्राप्त की। उसे ५२१ में से ३५० स्थान मिले। नवनिर्वाचित लोकसभा ने देश में समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के लिए संविधान में संशोधन किए जिससे 'प्रिवी पर्स' व्यवस्था की समाप्ति और बैंकों का राष्ट्रीयकरण संभव हो सका। (कै.चं.श.)