कहावत, लोकोक्ति महावत जनता की उक्ति होती है। लोक उसे अपनी करके मानता है, इसीलिए वह लोकोक्ति कहलाती है। विद्वानों ने कहावत की अनेक परिभाषाएँ दी हैं। किसी ने उसे अनुभव की दुहिता कहा है, किसी ने ऐसे सूत्रवाक्य का नाम दिया है जिसमें जीवन का अनुभव संचित रहता है; किसी ने उसे ज्ञान के सागर की गागर कहा है, किसी ने उसे कालातीत बताया है, ऐसे 'फर्नीचर (साजसज्जा) जिसमें काल की दीमक नहीं लग पाती।' किंतु सच तो यह है कि किसी उक्ति में चाहे अन्य कितने ही गुण क्यों न हों, जब तक वह लोक की उक्ति नहीं होगी, लोकोक्ति या कहावत नहीं कहला सकेगी।

संक्षेप, सारगर्भिता तथा सप्राणता-इन तीनों का कहावत के संबंध में प्राय: उल्लेख किया जाता है किंतु ऐसी अनेक उक्तियाँ मिलती हैं जिनमें उक्त तीनों गुणों के होते हुए भी लोकोक्ति के अनिवार्य गुण लोकप्रियता का अभाव पाया जाता है जिसके कारण वे लोकोक्ति के रूप में व्यवहृत नहीं हो पातीं। इसलिए इन तीनों गुणों का यह सिद्धांत सामान्यत: अच्छी कहावतों के संबंध में यद्यपि लागू होता है, तथापि लोकप्रियता ही कहावत मात्र का अनिवार्य गुण है। वेदांत की पारिभाषिक शब्दावली का आश्रय लेकर कहा जा सकता है कि उक्त तीन गुणों का संबंध कहावत के तटस्थ लक्षण से है जबकि लोकप्रियता कहावत का स्वरूपलक्षण है। वस्तुत: संक्षेप, सारगर्भिता, सप्राणता तथा लोकप्रियता, इन चारों तत्वों के कारण ही किसी उक्ति को सामान्यत: कहावत का गौरव प्राप्त होता है।

यद्यपि परिभाषा करना बड़ा कठिन है, कहावत की एक साधारण परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है : अपने कथन की पुष्टि में, शिक्षा या चेतावनी देने के उद्देश्य से, किसी बात को किसी की आड़ में कहने के अभिप्राय से, अथवा उपालंभ देने और व्यंग्य कसने आदि के लिए अपने में स्वतंत्र अर्थ रखनेवाली जिस लोकप्रचलित तथा सामान्यत: सारगर्भित, संक्षिप्त एवं चटपटी उक्ति का लोग प्रयोग करते हैं, उसे लोकोक्ति अथवा कहावत का नाम दिया जा सकता है।

'कहावत' शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। कथावत्, कथावृत्त, कथावस्तु, कथापत्य, कथावार्ता आदि अनेक शब्द विद्वानों द्वारा सुझाए गए हैं जिनसे उक्त शब्द का निर्वचन किया जा सकता है। यह भी संभव है कि यह शब्द संस्कृत के किसी मूल रूप से व्युत्पन्न हो, इसके निर्माण में उर्दू फारसी शब्दरचना का कुछ हाथ हो। स्वर्गीय आचार्य केशवप्रसाद मिश्र का मत था कि 'कह्' धातु के आगे 'आवत' प्रत्यय लगकर 'कहावत' शब्द बना है, जो बहुतों को ग्राह्य नहीं है।

व्युत्पत्तिशास्त्री अथवा वैयाकरण किसी शब्द के मूल रूप का अन्वेषण करते समय पहले इस बात का निर्णय कर लेना भूल जाते हैं कि वह मूल रूप उस भाषाविशेष में प्रचलित भी था अथवा नहीं। कथावत्, कथावस्तु, कथावृत्त, कथापत्य आदि से यद्यपि 'कहावत' शब्द व्याकरण द्वारा सिद्ध किया जा सकता है तथापि संस्कृत साहित्य में लोकोक्ति के अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग देखने में नहीं आता। इसलिए जब तक संस्कृत, पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश आदि में लोकोक्ति के अर्थ में प्रयुक्त 'कहावत' शब्द के मूल रूप का पता नहीं चलता, तब तक इस प्रकार की व्युत्पत्तियाँ उट्टंकणा मात्र ही मानी जाएँगी। हाँ, निष्कर्ष के रूप में दो विकल्प यहाँ रखे जा सकते हैं :-

१. यदि 'कहावत' शब्द संस्कृत के किसी शब्द से भारतीय भाषाओं में आया है तो 'कथावार्ता' एक ऐसा शब्द है जिससे उसका घनिष्ठ संबंध जान पड़ता है। 'कथावार्ता' का प्राकृत रूप 'कहावत्ता' भी ध्वनि और अर्थ दोनों की दृष्टि से 'कहावत' के अत्यधिक निकट है। दूसरी बात यह है कि 'कथावार्ता' शब्द 'कथावत्' आदि की तरह कोई कल्पित शब्द नहीं, यह प्रयोग में भी आता है।

२. यदि 'कहावत' शब्द सादृश्य के आधार पर प्रचलित हुआ है तो 'लिखावट', 'सजावट' आदि के सादृश्य पर 'कहावत' (कहावत) शब्द का बन सकना असंभाव्य नहीं है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि राजस्थानी भाषा में कथन के अर्थ में, कुवावट, कुहावट आदि शब्द बोलचाल में आज भी प्रयुक्त होते हैं।

संस्कृत में कहावत के लिए आभाणक, प्रवाद, लोकोक्ति, लोकप्रवाद, लौकिकी गाथा लौकिक न्याय तथा प्रायोवाद आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। वाल्मीकि रामायण में कहावत के अर्थ में प्रवाद, लोकप्रवाद तथा लौकिकी गाथा जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यथा,

प्रवाद: सत्य एवायं त्वां प्रति प्रायशो नृप।

पतिव्रतानां नाकस्मात्पतन्त्यश्रूणि भूतले।। ६।११४।६७

लोकप्रवाद: सत्योऽयं पंडितै: समुदाहृत:।

अकाले दुर्लभो मृत्यु: स्त्रिया वा पुरुषस्य वा।। ५।२५।१२

कल्याणी बत गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे।

एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि ।। ६।१२९।२

कालिदास ने अपने मालविकाग्निमित्र नामक नाटक में कहावत के लिए 'लोअवाओ' (लोकवाद) तथा 'लोअप्पवाओ' (लोकप्रवाद) शब्दों का प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ-

१. हंजे णिउणिए सुणामि बहुसो मदो किल इत्थि आजणस्स बिसेण मण्डणंत्ति। अवि सच्चो एसो लोअवाओ। (तृतीय अंक)

निपुणिका-मैं बहुत सुना करती हूँ कि मदिरा पीने से स्त्रियाँ बहुत सुंदर लगने लगती हैं। यह लोकवाद क्या सच है?

२. जोसिणीए-अत्थि क्खु लोअप्पवादो आआमि सुहं दुक्खं वा हिअ असमवत्था कहेदि त्ति। (पंचम अंक)

ज्योत्सनिका-यह लोकप्रवाद है कि अपना मन आगे आनेवाले सुख या दु:ख सभी बता देता है।

पालि साहित्य में कहावत के लिए 'भासितो' शब्द का व्यवहार हुआ है।

अपभ्रंश में 'अहाणउ' (आभाणक) शब्द कहावत के अर्थ में व्यवहृत हुआ है किंतु इस भाषा में भी ऐसा कोई शब्द नहीं मिलता जिसे 'कहावत' शब्द का पूर्वरूप कहा जा सके।

कुछ आधुनिक भारतीय भाषाओं से 'कहावत' शब्द के पर्यायों का आकलन यहाँ किया जा रहा है :

भाषा पर्याय

तमिल फ़्ज़ुमोलि।

तेलुगु सुमेतु।

मलयालम पजुमचोल।

मराठी म्हण, म्हणणी, आणा, आहणा, न्याय, लोकोक्ति।

बँगला प्रवाद, वचन, प्रवचन, लोकोक्ति, प्रचलित वाक्य।

गुजराती कहेवत, कहेणी, कहेती, कथन, उखाणुं।

हिंदी कहावत, कहनावत, कहाउत, कहनूत, उपखान, पखाना, लोकोक्ति।

उर्दू जर्बुल मसल।

लहँदी अखाण।

गढ़वाली पखाणा।

मिकिर भाषा (असमी) लंबीर, लंबरिम।

राजस्थानी ओखाणों, कहबत, कैवत, कुवावत, कुवावट।

मालवी केवात।

लोकोक्तियाँ जनसमुद्र के बिखरे हुए रत्न हैं। किसने ये रत्न बिखेरे, इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता; फिर भी इतना निश्चित है कि एकांत में बैठकर कहावतों का निर्माण नहीं किया गया; प्रत्युत जीवन की प्रत्यक्ष वास्तविकताओं ने कहावतों के जन्म दिया है। किताबों की आँखों से देखनेवाले निरे बुद्धिविलासी व्यक्ति कहावतों के निर्माता नहीं थे, कहावतों के रचयिता जीवन के द्रष्टा थे। क्या हुआ यदि किसी कहावत के निर्माता ने कोई पुस्तक नहीं पढ़ा, जीवन की पुस्तक से उसने जो पाठ पढ़ा था, सूक्ष्म निरीक्षण, सामान्य बुद्धि और प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर सत्य का जो साक्षात्कार उसने किया था, वही एक मनोरम लोकोक्ति के रूप में प्रकट हो गया। कहावत का जन्मदाता तो विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गया किंतु उससे उद्भूत वह अमर वाक्य काल समुद्र की लहरियों पर अमिट होकर तैरता रहा। किंतु कोई कहावत कब जन्मा और किसने उसको जन्म दिया, इसका कुछ पता नहीं चल सकता।

संसार के सभी देशों और जातियों में कहावतों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। दुनिया की शायद ही कोई ऐसी भाषा हो जिसमें कहावतों का प्रयोग न हुआ हो। ईसामसीह ने कहावतों द्वारा शिक्षा दी-बाइबिल में कहावतों (प्रावर्ब्स) का एक विशद प्रकरण ही है। गौतमबुद्ध ने उपदेश के लिए लौकिकी गाथाओं का प्रयोग किया-जातक कथाएँ उसी संदर्भ में प्रस्तुत हुईं। स्वयं अरस्तू जैसे सुविख्यात दार्शनिक ने सर्वप्रथम कहावतों का संग्रह किया। इस प्रकार अत्यंत प्राचीन काल से कहावतों को अमित सम्मान मिलता रहा है। ऐसी लोकोक्तियाँ, जिनका सत्य पुराना नहीं पड़ा है, जीवनरूपी व्याकरण के लिए पाणिनि के सूत्रों की भाँति ही उपयोगी हैं।

कहावतों के अध्ययन का महत्व अब प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। लोगों को अब इस तथ्य की प्रतीति होने लगी है कि पुराने सिक्कों और शिलालेखों के अन्वेषण की भाँति ही कहावतों का अन्वेषण और अध्ययन भी वांछनीय है। कहावतों के तुलनात्मक अध्ययन से अनुभव की समानता और सांस्कृतिक एकता पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। क्या साहित्य, क्या भाषविज्ञान, क्या नृतत्वशास्त्र, सभी दृष्टियों से कहावतें महत्वूपर्ण हैं।

सं.ग्रं.-आर.सी. ट्रेंच : लेसंस इन प्रावर्ब्स; एस.जी. चैपियन : रेशल प्रावर्ब्स; जे.लांग : प्रीफ़ेस टु ईस्टर्न प्रावर्ब्स ऐंड एंब्लेम्स; एच. स्मिथ : प्रावर्ब्स ऐंड कामन सेइंग्स फ्ऱॉम द चाइनीज़; डिज़रेली : द फ़िलॉसफ़ी आँव प्रावर्ब्स; जमशेदजी नशनवानजी पेतीत : कहेवत माला; सुशीलकुमार दे : बाँग्ला प्रवाद; यशवंत रामकृष्ण दाते और चिंतामणि गणेश कर्वे : महाराष्ट्र वाक्संप्रदाय कोश; कन्हैयालाल सहल : राजस्थानी कहावतें-एक अध्ययन; कन्हैयालाल सहल : राजस्थानी कहवतें; आशाराम दुलीचंद शाह : गुजराती कहेवत संग्रह। (क.स.)