कहानी साधारणत: गद्य या पद्य में रचित मौखिक या लिखित कहानी; विशेषत: गद्य में लिखित आधुनिक छोटी कहानी (शार्ट स्टोरी), जिसके लिए कभी-कभी गल्प, आख्यायिका या लघुकथा शब्द भी प्रयुक्त होते हैं।
कहानी की इन परिभाषाओं के आधार पर उसे साहित्यिक अभिव्यक्ति का सबसे पुराना और सबसे नया माध्यम कहा जा सकता है। सबसे पुराना इसलिए कि मानव समाज और भाषा के उदय के साथ ही आखेटक की आपबीती कहने और परबीती सुनने के सहज इच्छा से इसका जन्म हुआ। सबसे नया इसलिए कि सहज कलात्मक सृष्टि के रूप में इसका उदय पश्चिम में १९वीं सदी में हुआ। कथानक, पात्र संवाद और न्यूनाधिक मात्रा में उद्देश्य या नैतिक शिक्षा के उभयनिष्ठ रहने के बावजूद नई कहानी और पुरानी कहानी में रूप और आत्मा का आधारभूत अंतर है।
कहानी के सबसे प्रारंभिक रूपों में लोककथाओं, पौराणिक आख्यायिकाओं, पशु पक्षियों के आधार पर रचित गल्पों और धार्मिक या नैतिक गूढ़ाख्यानों की गणना होती है। ऐसी रचनाओं में वेदों, पुराणों और महाभारत की कथाएँ, मिस्र की लोककथाएँ, यूनान के ईसप की पशु पक्षियों की कथाएँ, इब्रानी (हिब्रू) भाषा में यहूदियों के धर्मग्रंथ ओल्ड टेस्टामेंट की कथाएँ बुद्ध और ईसा के प्रवचनों की गूढ़ाख्यायिकाएँ इत्यादि विशेष उल्लेखनीय हैं। प्राचीन और मध्ययुगीन भारत के प्रसिद्ध कथासंग्रह कथासरित्सागर, बृहत्कथा, पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक, जैन कथाएँ, शुकसप्तति, सिंहासन द्वात्रिंशिका, कथार्णव, प्रबंधकोश, प्रबंधचिंतामणि आदि हैं।
पश्चिम में यूनान की अनेक कथाएँ रोम पहुँचीं। यूनान और रोम की संस्कृति के पतन के बाद कथा की परंपरा ईसाई धर्म के प्रवचनों और मध्ययुगीन यूरोप केप्रेम और साहसिक यात्राओं या अभियानों के वृत्तांतों में जीवित रही। पुराने कथासंग्रहों में फारसी और अरबी के सहस्ररजनीचरित और अलिफलैला अत्यंत लोकप्रिय हैं। यूरोप में कथा के विकास में फ्रांस के चारणों और इटली के लघु-उपन्यास-लेखकों का महत्वपूर्ण योगदान था। १४वीं सदी के प्रणीत इटली के बोकाच्चो का 'देकामेरान' नामक संग्रह, अश्लीलता के बावजूद, यूरोपीय कथाकारों के लिए प्रवाह और रोचकता का आदर्श बन गया। लघु उपन्यासों में रूप की सुघड़ता नहीं थी, लेकिन उनमें वृत्तांत को अकृत्रिम और सरल ढंग से प्रस्तुत किया जाता था। यूरापे में १९वीं सदी के प्रारंभ तक कथा साहित्य लघु उपन्यासों या लोककथाओं की पद्धति पर ही चलता रहा। अक्सर ऐसी कथाओं को लंबे उपन्यासों की घटनाओं के अंतराल में क्षेपक के रूप में समाविष्ट कर दिया जाता था।
कथा में प्रयोग की दृष्टि से इंग्लैंड में एडीसन और स्टील के निबंध और स्केच और बौज के स्केच भी काफी महत्वपूर्ण थे। लेकिन न तो पहले की कथाएँ और न ये निबंध और स्केच आधुनिक कहानी के प्रतिरूप कहे जा सकते हैं।
१९वीं सदी के प्रारंभ में जर्मनी में हाफ़मन, जैकब, ग्रिम और टीक, अमरीका में ईविग और हाथार्न, फ्ऱांस में मेरिमिए, गोतिए और बाल्ज़ाक, रूस में पुश्किन इत्यादि ने आधुनिक कहानी की रचना की, लेकिन उसे स्वतंत्र और विशिष्ट साहित्यिक विधा मानकर प्रयोग करने की दृष्टि से रूसी लेखक निकोलाई गोगोल (१८०९-१८५९) और अमरीकी लेखक एडगर ऐलेन पो (१८०९-१८४९) आधनिक कहानी के प्रवर्तक माने जाते हैं। गोगोल ने कहानी को रोमांस की जगह जनसाधारण के जीवन का यथार्थ प्रदान किया। पो की कहानियों की विशेषता रोमांचकारी रहस्य, अलौकिकता, भूत-प्रेत-संबंधी अंधविश्वास और रक्तरंजित आतंक से उत्पन्न मानसिक तनाव है। पो ने आधुनिक कहानी के रचनाविधान के मूल सिद्धांत एवं उसके प्रभाव की एकता या केंद्रीयता की स्थापना की। उसके अनुसार 'पूरी रचना में ऐसा एक शब्द भी नहीं होना चाहिए जिसकी प्रवृत्ति, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, किसी पूर्वनिश्चित उद्देश्य की ओर न हो।'
इस प्रकार पुरानी कथाओं की कपोलकल्पित घटनाओं और चरित्रों के प्रति बाह्य और संकुचित नैतिक दृष्टिकोण के स्थान पर आधुनिक कहानी ने जीवन के यथार्थ और चरित्रों के अंतर्द्वंद्वों की अनुभूति को महत्व दिया। यथार्थ और मनोविज्ञान आधुनिक कहानी के पाए कहे जा सकते हैं। आधुनिक कहानी घटनाओं या व्यक्तियों का रोचक वर्णन मात्र नहीं, बल्कि व्यक्ति और समाज के अर्थ को पकड़ने और खोलने का प्रयत्न है।
पो का तत्कालिक प्रभाव फ्रांसीसी लेखकों पर पड़ा, जिनमें बोदलेयर, फ्लाबेर और दोदे उल्लेखनीय हैं।
संसार के दो महत्तम कहानीकार फ्रांस के मोपासाँ और रूस के चेख़व, १९वीं सदी की ही उपज हैं। दोनों ने ही किसानों और मध्य या निम्नवर्गीय बुद्धिजीवियों और कर्मचारियों के जीवन की विविध असमर्थताओं और लघु व्यंग्यों का चित्रण किया, दोनों में ही जीवन के प्रति गहरा औत्सुक्य है, दोनों में ही निराशा और विषाद का दृष्टिकोण है। लेकिन इन समानताओं के बावजूद दोनों दो तरह के कहानीकार हैं। मोपासाँ के चरित्र वासनाओं के और चेख़व के चरित्र बौद्धिक प्रमाद, स्वप्नभंग और नियति के शिकार हैं। मोपासाँ में अपने चरित्रों के प्रति अतिरंजित और प्राय: कृत्रिम भावुकता है; चेख़व जीवन को रासायनिक वस्तुनिष्ठता के साथ देखता है, किंतु उसकी आत्मा में गहरी सहानुभूति और करुणा है। मोपासाँ में अक्सर नाटकीय अंतों के बावजूद वर्णन की सरलता और स्वाभाविकता है; चेख़व की विशेषता स्वच्छ, संयमित, निश्छल, व्यंजनात्मक और प्रहसनयुक्त शैली और भाषा है। रचना में प्रयासहीन कलात्मक चारुता और जीवन के निर्मम और निर्लिप्त सत्य के अंकन की दृष्टि से चेख़व मोपासाँ से बढ़कर है। चेख़व के अनुसार 'कहानी में प्रारंभ और अंत नहीं होना चाहिए।' संसार के अधिकांश कहानीकारों ने इन्हीं दोनों से दीक्षा ली।
चेख़व के समकालीन अन्य महान् रूसी कहानीकारों में तोल्स्तोइ, तुर्गनेव,गोर्की, दास्तोएव्स्की, गार्शिन, आंद्रेयेव, कोरोलेंको आदि हैं। सूक्ष्म अंतर्दृष्टि, गहरी सामाजिक चेतना और मानवतावादी दृष्ठिकोण में रूसी कहानीकार बेजोड़ हैं।
पो के बाद पूरी १९वीं सदी में अनेक अमरीकी कहानीकारों का उदय हुआ, जिनमें मेल्विल, ओ'ब्रायन, ब्रेट हार्ट, ऐंब्रोज़ बीयर्स, सारा ओर्न जिवेट, मेरी विल्किंस फ्ऱीमन, ओ'हेनरी, जैक लंडन, हेनरी जेम्स, थियोडोर ड्रेजर, स्टीफ़ेन क्रेन के नाम अत्यंत प्रसिद्ध हैं। अमरीकी कहानियों में अधिकांशत: कलात्मक सौंदर्य के स्थान पर उस युग के अमरीकी जीवन के अनुरूप वेग है, उनमें अनुभूतियों की गहराई न होकर अधिकतर पत्रकारिता और गद्य का झीनापन है। अमरीका में काफी बड़ी संख्या में ऐसे कहानीकार भी हुए जिन्होंने ओ'हेनरी के यांत्रिक अनुकरण के सहारे प्रभाव के चमत्कार को ही अपना धर्म बना लिया।
इंग्लैंड में कहानी का विकास १९वीं सदी के अंतिम वर्षों में हुआ। अक्सर इस विलंबित विकास का दोष उस काल के इंग्लैंड में थोथी नैतिकता और लातीनी बहुत शैली के प्रभुत्व को दिया जाता है। इंग्लैंड से पहले अमरीका में कहानी के उदय और विकास का श्रेय अमरीका में रूढ़ियों के अभाव, वेगवान जीवन और प्रहसन की क्षिप्र और जीवंत शैली को दिया जाता है। १९वीं सदी के अंतिम दशक में 'सिक्स पेनी' पत्रिकाओं के प्रचलन ने इंग्लैंड में कहानी के लिए विस्तृत पाठकवर्ग तैयार किया। इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक औद्योगिक और व्यावसायिक जीवन की व्यस्तता तथा व्यापक जन साक्षरता ने कहानी को सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यिक माध्यम बना दिया है।
पो और मोपासाँ से प्रभावित स्टीवेंसन और किपलिंग ने इंग्लैंड में कहानी का नेतृत्व किया। उसके युग में बाद प्रसिद्ध कहानीकारों में जिसिंग, जार्ज मूर, आस्कर वाइल्ड, वेल्स, जेम्स, कानन डायल, कानराड, पी.जी. वुडहाउस, गाल्सवर्दी बेनेट, सॉमरसेट माम आदि हैं। इनके समानांतर यूरोप की अन्य भाषाओं में भी कहानी का विकास हुआ।
२०वीं सदी में यूरोप और अमरीका में कहानीकारों ने साधारणत: पो और ओ'हेनरी की चमत्कारिक कथानकवाली शैली के स्थान पर यथार्थवाद या प्रकृतिवाद का अनुसरण किया है। उनकी कहानियों में व्यक्तिगत शैली का भी बहुत बड़ा महत्व है। उदाहरणार्थ, जैमस ज्वायस, कापर्ड, कैथरीन मैंसफ़ील्ड, टामस मान, शेरवुड ऐंडर्सन, कैथरीन ऐन पोर्टर का उल्लेख किया जा सकता है। कुछ लेखकों में यह प्रवृत्ति इतनी आगे बढ़ गई है कि उन्होंने कहनी के 'कहानीपन' को सर्वथा त्याज्य कहा है। शेरवुड ऐडर्सन के अनुसार कथानक 'कहानी का विष है'। इस सदी में कहानी के विकास की एक और अत्यंत महत्वपूर्ण दिशा 'समाजवादी यथार्थवाद' है जिसका प्रवर्तक गोर्की था। समाजवादी देशों के कहानीकारों के अतिरिक्त अन्य देशों के अनंक कहानीकारों ने इस दृष्टिकोण को अपना कर मेहनत करनेवालों की जिंदगी के यथार्थ चित्रण के साथ-साथ उनकी भावी आशा आकांक्षाओं को भी अभिव्यक्ति दी है।
भारतीय भाषाओं ने आधुनिक कहानी की प्रेरणा पश्चिम से ही ली। यहाँ प्रारंभ में मोपासाँ, चेख़व, तुर्गनेव, तोल्स्तोइ आदि प्रसिद्ध कहानीकारों के अनुवाद बहुत व्यापक पैमाने पर हुए। सबसे पहले यह प्रभाव बँगला पर पड़ा, जिसने रवींद्रनाथ ठाकुर और शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय जैसे विश्वकोटि के कहानीकार उत्पन्न किए। हिंदी में आधुनिक कहानी का उदय २०वीं सदी के दूसरे दशक में हुआ और उसके सबसे बड़े रचनाकार प्रेमचंद को संसार के बड़े-बड़े कहानीकारों के समकक्ष रखा जा सकता है। दक्षिण भारत की भाषाओं का कहानी साहित्य भी अत्यंत समूद्ध है; वास्तव में आज भारत के प्रत्येक विकसित भाषा में कहानी सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम है।
एशिया की अन्य भाषाओं में भी, विशेषत: चीनी और जापानी में, कहानी का ऊँचा स्थान है१ लू सुन को चीन का गोर्की कहा जाता है। जापान का सबसे प्रसिद्ध कहानीकार आकुतागावा है।
इतने बड़े पैमाने पर रची जाने के कारण कहानी कहानी में वस्तु और रूप की असाधारण विविधता है। इसलिए विधा के रूप में अक्सर कहानी की 'अनंत तरलता' का उल्लेख किया जाता है।
कहानीकारों में आग्राहें की भिन्नता के बावजूद साधारणीकरण की प्रणाली से कहानी के प्रधान तत्व ये हैं : विषयवस्तु और कथानक, चरित्र, कथोपकथान, वातावरण, शैली, जीवनदर्शन। इन्हीं तत्वों से उपन्यास की भी रचना होती है, लेकिन इनके बारे में कहानीकार और उपन्यासकार के रुख अलग-अलग होते हैं। इस प्रकार उपन्यास और कहानी में तत्वों की समानता किंतु विधाओं का अंतर होता है।
सतही तौर पर देखने से उपन्यास और कहानी में सबसे बड़ा अंतर लंबाई का है। पो, वेल्स आदि कई कहानीकारों के अनुसार कहानी बस इतनी लंबी हो कि पंद्रह बीस मिनट से लेकर घंटे दो घंटे में पढ़कर खत्म की जा सके। इसका यह अर्थ नहीं कि उपन्यास को काट छाँटकर कहानी में और कहानी को खींच तानकर उपन्यास में बदल दिया जा सकता है। उपन्यासकार जीवन को उसके विशाल परिवेश में संलग्न कर देखता है। जबकि कहानीकार उसके किसी छोटे किंतु अर्थपूर्ण क्षण या खंड से ही संतुष्ट एक चरित्र के भी बहुमुखी विकास की गुंजाइश नहीं होती। इतना ही नहीं, घटना, चरित्र और वातावरण किसी भी कहानी में समान रूप से महत्वपूर्ण नहीं हो सकते। कहानीकार उनमें से किसी एक पर ही जोर देता है और वह भी अत्यंत छोटी परिधि में रहकर। अनेक कहानियों में समय अचल सा लगता है, जिससे उनके कथानक में आदि और अंत या उनके बीच की अवस्थाओं का ही लोप हो जाता है। सकाग्रता और लक्ष्य और प्रभावान्विति की दृष्टि से ही कहानी और गीति का सानेट के रचनाविधानों को मूलत: समान कहा गया है।
कहानी का कथोपकथन या संवाद भी एकाग्रता के सिद्धांत से ही अनुशासित होता है। वह नपा तुला, संक्षिप्त और सांकेतिक होता है। उपन्यास की तरह उसमें लंबे व्याख्यानों या विवादों के लिए स्थान नहीं। भाषाचमत्कार के स्थान पर उसका साध्य चरित्र का प्रस्फुटन होता है।
कहानी के वातावरण की सृष्टि चरित्र की आकृति, वेशभूषा, भाषा, परिस्थिति, देशकाल, मानसिक उथल-पुथल आदि की अन्विति का फल होता है। कुशल कहानीकार के निकट ये साधन बाह्य, निरर्थक या संदर्भहीन सज्जा मात्र न होकर चरित्र की कुंजियाँ होते हैं। उपन्यास इनके सूक्ष्म से सूक्ष्म अवयवों की ओर ध्यान देता है। कहानी इनके उस अंश भर को ही ग्राह्य समझती है जो वस्तु और चरित्र को आलोकित करने के लिए आवश्यक है।
शैलियों की अनेकरूपता के कारण कहानी बहुत ही लचकदार साहित्यिक माध्यम है। वार्ता, वर्णन, पत्रलेखन, सिंवाद और डायरी कहानी की मुख्य शैलियाँ हैं। कभी-कभी कहानी और निबंध, रेखाचित्र और रिपोर्ताज की विभाजक रेखा बिलकुल धुँधली पड़ जाती है। साहित्येतर माध्यमों में चलचित्रों और चित्रकारी ने कहानी की तकनीक को काफी प्रभावित किया है।
कहानी के छोटे आकर का यह अर्थ नहीं है कि उसका जीवनदर्शन भी अनिवार्यत: अकिंचन या उपेक्षणीय होगा। आकार की लघुता के बावजूद कहानी महान् विचारों का वहन कर सकती है। नाविक के तीर की तरह कहानी गंभीर घाव कर सकती है। कहानी के खंडचित्रों में भी आगे और पीछे का प्रसार हो सकता है, जिसमें लेखक का सम्यक् जीवनदर्शन होता है। कहानीकार अपने जीवनदर्शन को सैद्धांतिक स्थापनाओं में ही नहीं प्रकट करता है; उसका दृष्टिकोण घटनाओं के आंतरिक संबंधों से भी ध्वनित होता है। लेखक का दृष्टिकोण वस्तु और चरित्र की कुछ विशेषताओं के उभरने और दबने में भी व्यक्त हो जाता है। इसलिए कहानी को उद्देश्यहीन मनोरंजन समझना गलत है। साहित्यिक और साहित्येतर विधाओं से पुष्ट अपनी अनेकरूपता के कारण कहानी बड़े ही सहज ढंग से आधुनिक जीवन के नए और प्रतिनिधि तत्वों को ग्रहण कर लेती है। जीवन की व्यस्तता और पत्रपत्रिकाओं के व्यापक प्रचलन से भी अधिक शायद यही उसकी लोकप्रियता का कारण है।
सं.ग्रं.-एस. ओ'फ़ाओलेन : द शॉर्ट स्टोरी; एच.ई. बेट्स : द मार्डन शार्ट स्टोरी; ए क्रिटिकल सर्वे। (चं.ब.सिं.)